संतोष राय
पहले लोग अखबार पढ़ कर, दूरदर्शन देख कर भाषा सीखते थे या सुधार करते थे। यह मान्यता थी कि जिस भाषा और जिन शब्दों में खबरें छपती हैं वे शुद्ध और सहज होती हैं। यही बात सूचनाओं को लेकर भी थी कि जो अखबार में छप गया, वह सही है। कई बार उसे अदालतों में ‘सबूत’ के तौर पर भी पेश किया जाता रहा है। लेकिन अखबारों और दूरदर्शन के प्रति ऐसी धारणा अब बहुत पुरानी पड़ गई है। आज हम गारंटी के साथ यह नहीं कह सकते कि अखबार हमारी भाषा सुधारेगा। अखबारों और सभी टीवी चैनलों का भाषाई स्तर काफी गिरा है और इस गिरावट में सबसे बड़ी भागीदारी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के रूप में टीवी ने निभाई है। खासतौर पर समाचार चैनलों ने न सिर्फ भाषा के स्तर को बेहतर बनाने की जगह उसे कमतर किया है, बल्कि सूचना के स्तर पर भी काफी भ्रम पैदा हुए हैं।
ये समाचार चैनल जिन ‘मास्टर’ शब्दों का प्रयोग करते हैं, कई बार उसके गलत मायने निकलने की आशंका बनी रहती है। मसलन, ‘हत्यारा प्रोफेसर!’ या ‘हत्यारा प्रोफेसर?’ इन दोनों शब्दों का अर्थ यह नहीं है कि प्रोफेसर हत्यारा है। लेकिन समाचार चैनल देखने वाले तीन-चौथाई से ज्यादा लोगों को ‘विस्मयाधिबोधक’ और ‘प्रश्नवाचक’ चिह्न पर गौर करना जरूरी नहीं लगता। वे यही अर्थ ग्रहण कर लेते हैं कि प्रोफेसर हत्यारा है और कहने लगते हैं कि ऐसा टीवी वाले दिखा रहे थे। यानी एक तरह से समाचार चैनल भाषा और सूचना के स्तर पर भ्रम फैलाते हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के ज्यादा से ज्यादा ‘मास्टर’ शब्द, प्रश्नवाचक या विस्मयाधिबोधक चिह्न के साथ ही होते हैं। ध्यान नहीं देने की वजह से यह सामान्य पढ़े-लिखे लोगों या फिर तकनीकी साक्षरों को भी समझ नहीं आता। टीवी के ‘मास्टर शब्द’ दरअसल ‘मास्टर भ्रम’ फैला देते हैं। शायद इसी वजह से क्षेत्रीय बोलियों का महत्त्व भी कम होता जा रहा है। टीवी पर उद्घोषक जो भाषा बोलता है, ऐसा लगता है कि वही राष्ट्रीय भाषा है। क्षेत्रीय बोली बोलने वालों को अपराध बोध महसूस होने लगता है कि वे अभी भी क्षेत्रीय बोली बोल रहे हैं। सच यह है कि क्षेत्रीय बोलियां लुप्त होती जा रही हैं। खड़ी बोली हिंदी भी विशुद्ध नहीं रह गई है। हिंदी टीवी चैनलों में पूरी तरह से हिंग्लिश हावी है। अब तो वही भाषा ‘मास्टर’ भाषा बनती जा रही है। पहले साहित्यिक शब्द प्रबुद्ध होने की पहचान देते थे, पर अब तो उसे बोझ समझा जाने लगा है।
पहले जो लोग मीडिया में आते थे, वे भाषा और विषय संबंधी ज्ञान से संपन्न होते थे। समाचार पत्रों के संपादक बड़े विद्वान होते थे। अब इक्का-दुक्का उदाहरणों को छोड़ दें तो ऐसे लोग बहुत कम मिलते हैं। इस तरह के शब्दों के साथ अपनी बात कहने वाले लोगों को ‘बीते हुए’ युग का माना जाने लगा है। इस बात से शायद कोई फर्क नहीं पड़ता कि सहजता के नाम पर भाषा के मूल तत्त्व कैसे धीरे-धीरे गायब होते जा रहे हैं। क्षेत्रीय शब्द लुप्त हो रहे हैं। कहने को हिंदी प्रगति पर है, पर हिंदी प्रगति पर नहीं, बल्कि अंगरेजी का चोला ओढ़ने के लिए मजबूर है। सवाल है कि इसके लिए जिम्मेदार कौन है!
(जनसत्ता से साभार)