संजीव चौहान
मैं एडिटर क्राइम तो बनाया गया, मगर मोदी के साथ “सेल्फी-शौकीन-संपादक” की श्रेणी में कभी नहीं आ सका। एक चिटफंडिया कंपनी के चैनल में करीब दो साल एडिटर (क्राइम) के पद पर रहा। मतलब संपादक बनने का आनंद मैंने भी लिया। सुबह से शाम तक चैनल रिपोर्टिंग सब “गाद” (जिम्मेदारियां), चैनल हेड मेरे सिर पर लाद देते थे। लिहाजा ऐसे में मोदी या किसी और किसी “खास या शोहरतमंद” शख्शियत के साथ “चमकती सेल्फी” लेने का मौका ही बदनसीबी ने हासिल नहीं होने दिया। या यूं कहूं कि, चैनल के “न्यूज-रुम” की राजनीति में “नौकरी बचाने” की जोड़-तोड़ में ही “चैनल-हेड” से लेकर चैनल के चपरासी तक ने इतना उलझाये रखा, कि अपनी गिनती “सेल्फी-संपादकों” में हो ही नहीं पाई। हां, इसका फायदा यह हुआ कि, मेरे जेहन में हमेशा इसका अहसास जरुर मौजूद रहा कि, रिपोर्टिंग, रिपोर्टर, और फील्ड में रिपोर्टिंग के दौरान के दर्द, कठिनाईयां क्या होती हैं? शायद एक पत्रकार (वो चाहे कोई संपादक हो) के लिए सेल्फी से ज्यादा यही अहसास जरुरी भी है।
यह लेख लिखने और लेख की भूमिका बांधने की जरुरत है भी और जरुरत नहीं भी थी। जरुरत इसलिए कि, मैं खुद को “सेल्फी-संपादकों” की कैटेगरी में न तो शामिल कराना चाहता हूं, न ही मुझे कोई “सेल्फी-शौकीन-संपादक” अपने साथ मिलाकर अपनी पसंद और अपनी “सेल्फी-शौकीनन-संपादकीय” जिंदगी को गुड़-गोबर कराना चाहेगा। धक्का दीजिए, सेल्फी-शौकीन-संपादकों को। उनके नसीब में “मलाई” चाटना लिखी है, तो चाटेंगे, मेरे बदन को यूं ही “बर्रैयां” (ततैयां) क्यों नोचे जा रही हैं? हो सकता है कि, मैं सेल्फी-शौकीन-संपादकों के कथित “सुख” से “व्यथित” हो रहा होऊं। अब इसमें तो दोष मेरा है, सेल्फी-शौकीन-संपादक बिचारे क्या करें? क्यों सोचें? क्यों अपना सिर मुझ जैसे “ठंडों” से टकराकर फोडें? उन्हें देखकर जलना मेरा स्वभाव है, तो मैं जलूं, वो भला क्यों वक्त जाया करें!
खैर छोड़िये…मुद्दे की बात करते हैं। हरियाणा के बरवाला (हिसार) में बौराई हरियाणा पुलिस के “लट्ठों” के शिकार जितने भी हमपेशा (पत्रकार) साथी हुए हैं, उनमें कहीं भी किसी भी “सेल्फी-शौकीन-संपादक” के “कुटने” की खबर, वीडियो फुटेज या फोटो नहीं है। जहां तक 24 साल की पत्रकारिता का मेरा अपना “अल्पानुभव” है, उसके मुताबिक वर्तमान में मौजूद सेल्फी-शौकीन-संपादकों में, शायद ही कोई हो, जिसने इसी तरह रिपोर्टिंग के दौरान मार खाई होगी, जैसी कथित ढोंगी बाबा रामपाल के सतलोक आश्रम कवरेज करने गये पत्रकारों ने खाई, लेकिन बीते कल के यही पत्रकार अब चूंकि खुद को “सेल्फी-शौकीन-पत्रकार” सिद्ध कर चुके हैं, ऐसे में भला मुंह खोलकर इनसे सवाल करने की जुर्रत कौन करे? मुंह खोलने के लिए मेरे जैसा ही चाहिए, जो संपादक तो रहा हो, लेकिन “सेल्फी-शौकीन-संपादक” नहीं बन पाया हो।
सतलोक आश्रम की कवरेज के दौरान जिन पत्रकारों/ कैमरामैनों/ फोटोग्राफरों ने भी मार खाई, कम-से-कम मैं तो उन्हें “मीडिया-कमांडो” की उपाधि से कतई नहीं नवाज सकता। वजह, काबिलियत, अनुभव और सूझ-बूझ की पत्रकारिता तो तब थी, जब ढोंगी बाबा रामपाल और हरियाणा पुलिस की मिली-भगत, और दोनो के बीच कई दिन से चली आ रही, जोड़-तोड़ की “अंदरखाने की कहानी” को बाहर लाकर कोई साथी (पत्रकार) उन्हें “नंगा” कर लेता। जिसके बाद हरियाणा सरकार का कोई “गुर्गा” या फिर हरियाणा पुलिस का कोई नंबरदार आला-अफसर चैनल/ अखबार के दफ्तर में बैठा “मिमिया” या “रिरिया-गिड़गिड़ा” रहा होता।
इस पूरे प्रकरण में तो साफ जाहिर है कि, हरियाणा सरकार, राज्य पुलिस ने जितना चाहा, उतना मीडिया का “हिसाब से” इस्तेमाल किया। जब बात आई “अपनी कमजोरियों को छिपाने की” तो उसी पुलिस ने मीडिया को खुले खेतों में, मीडिया के ही खुले-कैमरों के सामने दौड़ा-दौड़ाकर “कूट लिया या “कुटवा” दिया।
ऐसे में सवाल यह पैदा होता है, कि आखिर समझदार कौन साबित हुआ और न-समझ कौन? इस्तेमाल कौन हुआ? मीडिया या फिर पुलिस! जग-जाहिर है कि, इस पूरे एपीसोड में मीडिया का ही बेजा “इस्तेमाल” हुआ और मीडिया की ही फिर “कुटाई” की गयी। बात फिर वहीं आ जाती है…मीडिया ने हरियाणा पुलिस के हाथों पिटने का पुलिस को मौका ही क्यों दिया? अब तक मैंने जितने भी पिटे हुए पत्रकारों/ फोटोग्राफरों और कैमरामैनों के वीडियो देखे हैं, सब-के-सब इस बात के गवाह हैं, कि यह सब “जोश-में-होश” खो बैठे। इन सबने (पिटने वाले मीडियाकर्मियों ने) सोचा, कि जो पुलिस कल तक उनके साथ थी, जो पुलिस वाले उनके साथ एक दिन पहले तक हंसी-ठोठोली कर रहे थे, वे 18 नवंबर 2014 को भी वैसे ही रहेंगे। बस यही सबसे बड़ी भूल मीडिया ने कर दी। जिसका खामियाजा कवरेज में जुटे हमारे युवा साथियों को भुगतना पड़ा।
दूसरे, दिल्ली में मोदी के साथ “सेल्फी-शौकीन-संपादकों” में से भी कोई बाबा के अखाड़े में कवरेज करके पत्रकारिता की “अपना अनुभव और हुनरमंदी” दिखाने नहीं पहुंचा। मुझे उम्मीद है, कि इन “काबिलों” में से अगर कोई कवरेज के लिए वहां, मौजूद होता तो, तो संभव था कि, पत्रकारिता में आने वाली हमारी पीढ़ियों को इतिहास के पन्नों में शायद 18 नवबंर 2014 की तारीख “हरियाणा पुलिस के कुछ ओछे और मतलब परस्त पुलिस वालों के हाथों मीडिया के कुटने वाली तारीख के रुप में दर्ज होने से बच जाती।”
हां, इस पूरे घटनाक्रम में मेरी नजरों के सामने से एक ऐसा वीडियो भी गुजरा है, जिसमें हरियाणा पुलिस रामपाल के आश्रम को लाव-लश्कर के साथ घेरे है। रामपाल के समर्थक आश्रम की छतों से पथराव कर रहे हैं। पेड़ों के नीचे खेत की मेढ़ पर खड़े होकर पुलिस उन पर आंसू गैस के गोले छोड़ रही है। कभी-कभार रुक-रुककर आश्रम के अंदर से गोलियां चलने जैसी आवाजें आ रही हैं। आश्रम के भीतर कई स्थानों से धुंआ उठता हुआ दिखाई दे रहा है। यह धुंआं पुलिस द्वारा छोड़े गये आंसू गैसे के गोलों का है। अचानक पुलिस वालों की भीड़ एक खेत की तरफ भागने लगती है। इस पूरे वीडियो में और यह सब कुछ होते हुए को “आज तक” के वरिष्ठ संपादक और मेरे सहयोगी अशोक सिंघल भी कवर कर रहे हैं। जैसे ही भगदड़ मचती है, अशोक सिंघल आश्रम, पुलिस-भगदड़ सब पर नज़र तो रखे हैं। खेत में खुद के बचाते हुए भागते अशोक सिंघल के एक हाथ में मोबाईल, जिस पर वो बात भी कर रहे हैं, दूसरे हाथ में चैनल माइक-आईडी है और उनकी नजर सामने हो रहे बबाल पर भी है, लेकिन वो पुलिस और भीड़ से अपना उतना “फासला” जरुरबनाये हुए हैं, जितने में जरुरत पड़ने पर वो खुद को भीड़-पुलिस का शिकार बनाने से बचा सकें। खेत में इतनी दूर और ऐसे मौके से दौड़-भाग में जुटे हैं अशोक, कि सामने हो रहे को देख तो सकें, मगर उपद्रवियों और भीड़ या पुलिस का “कोपभाजन” किसी हालत में कतई न बनने पायें। उनके कवरेज करने के स्टाइल से महसूस हुआ कि खुद को महफूज रखकर भी कैसे ऐसे फसादी मौकों पर या हालातों में पत्रकारिता कर सकते हैं? बिना मार खाये, कैसे अंदर की खबर को बाहर ला सकते हैं, या फिर कैसे भीड़ के बीच से निकाल के भीड़ की खबर “भीड़” को ही दिखा सकते हैं? शायद इसलिए आज भी रिपोर्टिंग में बे-वजह पिटने से अशोक सिंघल जैसे अनुभवी रिपोर्टर ही खुद को महफूज रख पाते हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि, पत्रकारिता और उसके जोखिम क्या हैं?
यह सब ज्ञान शायद “सेल्फी-शौकीन-संपादकों” के नसीब नहीं आ पाया होगा, वरना वो भी 18 नवबंर 2014 को ताल ठोंककर खड़े होते इस कवरेज के लिए..और अपने से छोटों/ नये साथियों को सुरक्षित पत्रकारिता के गुर देने के वास्ते, लेकिन यह भला कहां और कैसे संभव था! “सेल्फी-शौकीन-संपादकों” के सौजन्य से…पत्रकारिता की आने वाली पीढ़ियों के हितार्थ!
(लेखक यूट्यूब चैनल ‘क्राइम वॉरियर’ के संपादक हैं)