मनोज कुमार
संसार में एक ही व्यक्ति हुआ है जिसे नाम से नहीं काम से पहचाना गया. समाज के द्वारा स्वस्फूर्त रूप प्रदान की गई उपाधि ‘महात्मा’ ने उनके नाम का स्थान लिया और वे नाम से ऊपर उठ गये. सौ बरस से अधिक समय से हम किसी को जानते हैं तो वे हैं महात्मा गांधी. बहुतेरों को यह स्मरण भी नहीं होगा कि दरअसल, उनका नाम महात्मा गांधी नहीं बल्कि मोहनदास करमचंद गांधी है. एक गांधी से महात्मा बन जाने की यह परिघटना अद्भुत है. और शायद अनोखा भी. हम सब के लिये गर्व की बात कि महात्मा कहें, बापू कहें, राष्ट्रपिता कहें अथवा कहें भी कि मोहनदास करमचंद गांधी, हम उनकी पीढ़ी से आते हैं. यह समस्त भारत के लिये गौरव की बात है. एक गांधी के महात्मा हो जाने का जब हम उल्लेख करते हैं तो हमें बहुत ज्यादा खोजबीन या शोध करने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती है क्योंकि गांधी से महात्मा बन जाने का जो सिलसिला बना, वह वास्तव में हमारी जीवन शैली है. सत्य एवं अहिंसा से हम परे नहीं हैं और स्वच्छता मानव समाज के लिये सबसे जरूरी है. अछूतोद्धार का विषय भी कोई अनावश्यक नहीं है और अन्याय के खिलाफ आवाज बुलंद करने की बात हमारे धर्मग्रंथों में उल्लेखित है. महात्मा ने इन्हीं बातों को जीवन में उतारने की सीख दी. मोहनदास करमचंद गांधी से महात्मा गांधी बन जाने में केवल उनकी बातें ही नहीं थी बल्कि उनके कर्म ऐसे थे जो उन्हें स्वयमेव महात्मा बना गया.
गांधीजी के इस जीवनदर्शन और आम आदमी के लिये संघर्ष की प्रेरणा ने उन्हें गांधी से महात्मा बना दिया. भारत के स्वाधीनता आंदोलन का इतिहास विस्तृत है और इस आंदोलन में गांधीजी का योगदान अविस्मृत. इसी आंदोलन ने बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी को महात्मा, बापू और राष्ट्रपिता में बदल दिया. 1918 में चम्पारन और खेड़ा सत्याग्रह, आंदोलन दौरान ही, गांधीजी को जनता ने बापू, पिता और महात्मा (महान आत्मा) के नाम से संबोधित किया। हालांकि संदर्भ यह भी आता है कि रवीन्द्रनाथ टैगोर एवं तिलक ने पहले गांधीजी को महात्मा पुकारा था. एक गांधी से महात्मा बन जाने की परिघटना सहज नहीं है और एक हद तक तो असंभव सी बात है. किन्तु गांधीजी के संदर्भ में जब हम विचार करते हैं तो निश्चित रूप से यह परिघटना सहज और संभव सी बात लगती है. स्मरण करना होगा उनके द्वारा लिखित पुस्तक ‘सत्य के प्रयोग’ में उल्लेखित उनके जीवन की हर घटना एवं दुघर्टना को. वे बड़ी सहजता तथा सच के साथ अपने जीवन में घटी बातों को पाठकों के समक्ष रखते हैं. वे अपने किये पर लजाते तो हैं लेकिन छिपाते नहीं हैं. वह पिता के मृत्युशैय्या पर होने के समय पत्नी के साथ सहवास करने की बात हो, दोस्तों की संगत में धू्रमपान, मांस और मदिरा के सेवन की बात. वे हर गलत संगत में पड़े लेकिन जल्द ही सच से उनका साक्षात्कार हुआ और वे हर गलती से सीख लेते गये. उन्होंने अपने जीवनकाल में घटी हर हर घटना का ब्यौरा समाज के समक्ष रखने का साहस किया और उनके इस सत्य के साहस ने ही उन्हें मोहनदास से महात्मा बना दिया. इसमें कोई विमत नहीं हो सकता है.
गांधीजी जन्म से महात्मा नहीं थे और न ही वे निर्विकार थे. उनका बचपन और युवाअवस्था का एक बड़ा हिस्सा भौतिक सुख-सुविधाओं में गुजरा था. उनका जन्म गुजरात के एक तटीय शहर पोरबंदर नामक स्थान पर सनातन धर्म की पंसारी जाति एक सम्पन्न परिवार में 2 अक्टूबर सन् 1869 को हुआ था। उनके पिता करमचंद गांधी ब्रिटिश राज के समय काठियावाड़ की एक छोटी सी रियासत (पोरबंदर) के दीवान अर्थात प्रधानमंत्री थे। धार्मिक प्रवृत्ति वाली उनकी माता पुतलीबाई परनामी वैश्य समुदाय की थीं. भक्ति करने वाली माता की देखरेख और उस क्षेत्र की जैन परम्पराओं के कारण युवा मोहनदास पर वे प्रभाव प्रारंभ में ही पड़ गये थे. माता की शिक्षा का प्रभाव था जो उन्हें महात्मा बनने के रास्ते में आगे बढऩे में उनकी सहायता की. माता से मोहनदास को दुर्बलों में जोश की भावना, शाकाहारी जीवन, आत्मशुद्धि के लिये उपवास तथा विभिन्न जातियों के लोगों के बीच सहिष्णुता की शिक्षा प्राप्त हुई थी. मोहनदास की परम्परा के अनुरूप कुल साढ़े 13 साल की आयु पूर्ण करते ही उनका विवाह 14 साल की कस्तूरबा माखनजी से कर दिया गया।
वहां रहे अप्रसन्न ही रहे क्योंकि उनका परिवार उन्हें बैरिस्टर बनाना चाहता था। बेमन से ही सही, परिवार के दबाव में वे लगभग 19 वर्ष की आयु में 4 सितम्बर 1888 को यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन में कानून की पढ़ाई करने और बैरिस्टर बनने के लिये इंग्लैंड चले गये। इंग्लैंड और वेल्स बार एसोसिएशन में वापस बुलावे पर वे भारत लौट आये किन्तु (तब)बम्बई में वकालत करने में उन्हें कोई खास सफलता नहीं मिली। बाद में एक हाई स्कूल शिक्षक के रूप में अंशकालिक नौकरी का प्रार्थना पत्र अस्वीकार कर दिये जाने पर उन्होंने जरूरतमंदों के लिये मुकदमे की अर्जियां लिखने के लिये राजकोट को ही अपना स्थायी मुकाम बना लिया। परन्तु एक अंग्रेज अधिकारी की मूर्खता के कारण उन्हें यह कारोबार भी छोडऩा पड़ा। गांधीजी ने अपना जीवन सत्य, या सच्चाई की व्यापक खोज में समर्पित कर दिया। उन्होंने इस लक्ष्य को प्राप्त करने करने के लिये अपनी स्वयं की गल्तियों और खुद पर प्रयोग करते हुए सीखने की कोशिश की। उन्होंने अपनी आत्मकथा को ‘सत्य के प्रयोग’ का नाम दिया। गांधीजी ने अपनी आत्मकथा द स्टोरी ऑफ माय एक्सपेरिमेंट्स विथ ट्रूथ में दर्शन और अपने जीवन के मार्ग का वर्णन किया है। उन्हें कहते हुए बताया गया था- ‘जब मैं निराश होता हूं तब मैं याद करता हूं कि हालांकि इतिहास सत्य का मार्ग होता है किंतु प्रेम इसे सदैव जीत लेता है।
गांधीजी ने प्रत्येक व्यक्ति को परामर्श दिया कि उन्हें अहिंसा को अपने पास रखने की जरूरत नहीं है, खासतौर पर उस समय जब इसे कायरता के संरक्षण के लिए उपयोग में किया गया हो। गांधीजी ने अपने सत्याग्रह आंदोलन में ऐसे लोगों को दूर ही रखा जो हथियार उठाने से डरते थे अथवा प्रतिरोध करने में स्वयं की अक्षमता का अनुभव करते थे। उन्होंने लिखा कि-‘मैं मानता हूं कि जहां डरपोक और हिंसा में से किसी एक को चुनना हो तो मैं हिंसा के पक्ष में अपनी राय दूंगा।’
दक्षिण अफ्रीका से लौटने के पश्चात् उन्होंने पश्चमी शैली के वस्त्रों का त्याग किया. उन्होंने भारत के सबसे गरीब इंसान के द्वारा जो वस्त्र पहने जाते हैं, उसे स्वीकार किया, तथा घर में बने हुए कपड़े (खादी) पहनने की वकालत भी की. गांधीजी और उनके अनुयायियों ने अपने कपड़े सूत के द्वारा खुद बुनने के अभ्यास को अपनाया और दूसरो को भी ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित किया। गांधीजी का मानना था कि अगर एक व्यक्ति समाज सेवा में कार्यरत है तो उसे साधारण जीवन की ओर ही बढऩा चाहिए जिसे वे ब्रह्मचर्य के लिये आवश्यक मानते थे. गांधीजी सप्ताह में एक दिन मौन धारण करते थे. उनका मानना था कि बोलने के परहेज से उन्हें आंतरिक शांति मिलती है. उन पर यह प्रभाव हिन्दू मौन सिद्धांत का है। इन दिनों में वे कागज पर लिखकर दूसरों के साथ सम्पर्क करते थे। 37 वर्ष की आयु से साढ़े तीन वर्षों तक गांधीजी ने अखबारों को पढऩे से इंकार कर दिया।
गांधीजी का मानना था कि प्रत्येक धर्म के मूल में सत्य और प्रेम होता है (संवेदना, अहिंसा और स्वर्ण नियम). गांधीजी का जन्म हिन्दू धर्म में हुआ, उनके पूरे जीवन में अधिकतर सिद्धांतों की उत्पति हिन्दुत्व से हुआ. साधारण हिन्दू कि तरह वे सारे धर्मों को समान रूप से मानते थे, और सारे प्रयासों जो उन्हें धर्म परिवर्तन के लिये कोशिश किये जा रहे थे, उसे अस्वीकार किया. वे ब्रह्मज्ञान के जानकार थे और सभी प्रमुख धर्मो को विस्तार से पढ़ते थे. उन्होंने हिन्दू धर्म के बारे में निम्नलिखित कहा है- ‘हिन्दू धर्म के बारें में जितना मैं जानता हूं, यह मेरी आत्मा को संतुष्ट करती है, और सारी कमियों को पूरा करती है. जब मुझे संदेह घेर लेती है, जब निराशा मुझे घूरने लगती है, और जब मुझे आशा की कोई किरण नजर नहीं आती है, तब मैं भगवद् गीता को पढ़ लेता हूं. और तब मेरे मन को असीम शांति मिलती है और तुरंत ही मेरे चेहरे से निराशा के बादल छंट जाते हैं और मैं खुश हो जाता हूं. मेरा पूरा जीवन त्रासदियों से भरा है और यदि वो दृश्यात्मक और अमिट प्रभाव मुझ पर नहीं छोड़ता, मैं इसके लिए भगवत गीता के उपदेशों का ऋणी हूं. एक गांधी से महात्मा बन जाना परिघटना है और इस परिघटना को समझने के लिये कई बार गांधी को पढऩा होगा, समझना होगा और बार बार संवाद करना होगा.
(वरिष्ठ पत्रकार एवं भोपाल से प्रकाशित शोध पत्रिका ‘समागम’ के संपादक हैं )