मनोज कुमार
भारतीय समाज में पिता की मौजूदगी जितनी जरूरी होती है, शायद उनका नहीं रहना उन्हें और भी जरूरी बना देता है. ऐसे ही हैं हमारे बापू. बापू अर्थात महात्मा गांधी. आज बापू को हमसे बिछड़े बरसों-बरस गुज़र गये लेकिन जैसे जैसे समय गुजरता गया, उनकी जरूरत हमें और ज्यादा महसूस होने लगी. एक आम आदमी के लिये बापू आदर्श की प्रतिमूर्ति बने हुये हैं तो राजनीतिक दल वर्षों से उन्हें अपने अपने लाभ के लिये, अपनी अपनी तरह से उपयोग करते दिखे हैं. अब तो गांधी के नाम की टेक पर सब नाम कमा लेना चाहते हैं. मुझे स्मरण हो आता है कि कोई पांच साल पहले कोई पांचवीं कक्षा की विद्यार्थी ने सूचना के अधिकार के तहत जानना चाहा था कि महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता का दर्जा किस कानून के तहत दिया गया? बच्ची का यह सवाल चौंकाने वाला था लेकिन तब खबर नहीं थी कि उसने अपने एक बेहूदा सवाल से पूरे समाज को गांधी की एक ऐसी टेक दे दी है जिसे सहारा बनाकर नाम कमाया जा सकता है अथवा विवादों में आकर स्वयं को चर्चा में रखा जा सकता है.
गांधी की टेक लेकर जस्टिज मार्केण्ड काटजू ने गांधीजी के बारे में जो कुछ कहा, वह चर्चा के योग्य नहीं है. यह इसलिये नहीं कि उनकी बातों में कितनी थाह है अथवा नहीं बल्कि इसलिये जिस बापू के देश में काटजूजी ने अपने उम्र के सर्वाधिक वर्ष गुजार दिये, उस देश में, इतने वर्षों बाद गांधीजी पर टिप्पणी करने की समझ और साहस कहां से आयी? उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं है कि गांधीजी ने क्या कहा, क्या किया और उसके क्या मायने निकले. सच तो यह है कि बाबा काटजू इस उम्र में आकर स्वयं को खबरों में बनाये रखने की जो मन ही मन एक लिप्सा पाले हुये हैं, उसकी परिणिती में यह अनमोल वचन बोलने के लिये उन्हें उनके मन ने मन मजबूर किया होगा . किसी को इस बात से आपत्ति हो सकती है कि काटजू जी को मैंने बाबा क्यों कहा, और शायद वही बच्ची मुझसे यह सवाल कर सकती है कि किस कानून के तहत आपने काटजूजी को बाबा संबोधन दिया तो मेरा एक ही जवाब होगा कि उम्रदराज व्यक्ति के लिये दादा, बाबा या चाचा संबोधन हमारी भारतीय संस्कृति है. हम अंग्रेजों की तरह एक शब्द अंकल नहीं जानते हैं बल्कि रिश्तों का ताना-बाना हमारी संस्कृति है.
बहरहाल, मैं गांधी के टेक की बात कर रहा था. आप इतिहास उठा कर देख लीजिये कि कोई भी नेता और राजनीतिक दल ऐसा नहीं है जिसने गांधी का अपने पक्ष में उपयोग नहीं किया. वर्तमान केन्द्र सरकार और प्रधानमंत्री नरेन्द्र भाई मोदी की बात ही गांधी से शुरू होती है और गांधी पर ही समाप्त होती है. सच यह है कि उनका दल गांधी के खिलाफ भले ही न हो लेकिन गांधी के पक्ष में खड़ा नहीं दिखा. ऐेसे में मोदीजी का गांधीप्रेम, केवल प्रेम नहीं बल्कि राजनीति है. मोदीजी का भला सा तर्क यह हो सकता है कि गांधीजी का रिश्ता गुजरात से था और वे भी गुजरात के हैं तो गांधीजी पर उनका पहला हक है. इसे खारिज नहीं किया जाना चाहिये क्योंकि मोदी जी आज प्रधानमंत्री हैं तो वे एक आम भारतीय भी हैं। गांधीजी के प्रति उनकी आसक्ती कुछ अलग नहीं है। मोदीजी गांधी के पक्ष में खड़े दिखते हैं तो काटजू जी और उनके जैसे अनेक लोग हैं जो गांधीजी में खोट ढूंढ़ते दिखते हैं, इनके बारे में क्या कहेंगे?
बात गांधीजी के पक्ष में हो या विपक्ष में, लोग और नेता उनकी खोट ढूंढ़ें या उनका गुणगान करें, बात तो तय है कि सब लोग येन-केन प्रकारेण गांधी का टेका लगाकर आगे बढ़ जाना चाहते हैं. गांधीजी हर कालखंड में सामयिक रहे हैं और रहेंगे, ऐसा मेरे जैसे लोगों का मानना है. मेरे जैसे मतलब, दस पांच नहीं बल्कि करोड़ों की संख्या में, वह भी देश में नहीं, परदेस में भी. कोई भी व्यक्ति परिपूर्ण नहीं होता और स्वयं गांधीजी ने अपने बारे में यह बात कही है. जिन लोगों को गांधीजी से परहेज है अथवा उनमें खोट निकाल कर चर्चा करना चाहते हैं तो उन लोगों को सत्य के प्रयोग पढ़ लेना चाहिये. एक ऐसी आत्मकथा जिसमें आत्मप्रवंचना नहीं बल्कि स्वयं की आलोचना है और पाश्चाताप भी. गांधी पर सवाल करने से पहले गांधीजी जैसा स्वयं के भीतर ताकत पैदा करें और अपनी कमियों को न केवल सार्वजनिक रूप से स्वीकार करें बल्कि पाश्चाताप करने का साहस भी पैदा करें. गांधी टेक के सहारे सुर्खिया बनने की यह पुरातन परम्परा है और आगे भी जारी रहेगी. हां, मैं इसमें एक लाभ यह देखता हूं कि जो हमारी नयी पीढ़ी गांधी परम्परा से दूर है, वह इसी बहाने कुछ संवाद करती है और यह जानने के लिये शायद कुछ अध्ययन भी. क्या इसके लिये मोदी, काटजू जैसे अनन्य लोगों का हमें आभारी नहीं होना चाहिये?