हिंदी विवि में ‘दूर शिक्षा की तकनीक और पाठ्य-सामग्री की गुणवत्ता का सवाल’ सत्र में वक्ताओं ने किया विमर्श
वर्धा: सन् 1985 में नई शिक्षा पद्धति के तहत हाशिए के लोगों को मुख्यधारा में शामिल करने के लिए दूर शिक्षा पद्धति की शुरूआत की गई। दूर शिक्षा सहित परंपरागत शिक्षा पद्धति भी जिस संकट में है, पेशेगत नैतिकता उसे कहने से हमें रोकती है। तमाम अखबारों में शिक्षा और शिक्षक को कोसा जा रहा है। परंपरागत स्कूली शिक्षा व्यवस्था दलिया और मध्यान्ह् भोजन में सिमटती जा रही है। स्कूलों में अध्ययन-अध्यापन की संस्कृति खतम होती जा रही है। वर्ल्ड बैंक, आईएमएफ के इशारे पर चलने वाली शिक्षा व्यवस्था से हमारा सर्वांगीण विकास नहीं हो सकता है। क्या हम किसी ठेके की व्यवस्था से शिक्षा को नई ऊंचाईयां दे सकते हैं। दूर शिक्षा को दुधारू गाय समझा जाता है, व्यवसाय के उद्देश्य से डिग्री बांटने से गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की बात नहीं की जा सकती है। आज शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ साक्षर बनाना रह गया है। हमें सूचना आधारित समाज में तब्दील किया जा रहा है। आज भूमंडलीकृत विश्व में शिक्षा व्यवस्था के समक्ष जो चुनौतियां हैं, उससे मुठभेड़ करनी होगी और उसके लिए हमें विकल्प तलाशने होंगे।
उक्त उदबोधन महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के इलाहाबाद केंद्र के प्रभारी प्रो.संतोष भदौरिया ने व्यक्त किए। वे विश्वविद्यालय व भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली के संयुक्त तत्वावधान में ‘दूर शिक्षा की सामाजिक प्रासंगिकता’ विषय पर आयोजित त्रिदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के छठे सत्र में अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए बोल रहे थे।
हबीब तनवीर सभागार में ‘दूर शिक्षा की तकनीक और पाठ्य-सामग्री की गुणवत्ता का सवाल’ विषय पर आधारित सत्र में विवि के दूर शिक्षा निदेशालय के क्षेत्रीय निदेशक डॉ.रवींद्र टी.बोरकर ने मुख्य वक्तव्य में कहा कि ‘टीचर सोशल इंजीनियर’ होते हैं, दूर शिक्षा के विद्यार्थियों के समग्र विकास हेतु व्यक्तिगत व्यवहार पर ध्यान दिया जाना चाहिए। दूर शिक्षा निदेशालय के सहायक प्रोफेसर शैलेश मरजी कदम ने ई-लर्निंग, ई-बिजनेस, ई-मार्केटिंग आदि का जिक्र करते हुए कहा कि भविष्य में कोई भी कार्य ई के बगैर नहीं होगा, इसलिए दूर शिक्षा को ई लर्निंग का हिस्सा बनाना चाहिए। साहित्य विद्यापीठ के सहायक प्रोफेसर डॉ.अशोक नाथ त्रिपाठी ने कहा कि शिक्षा का कार्य ज्ञान का प्रसार करना है। शिक्षा के क्षेत्र में दूरस्थ शिक्षा को क्रांतिकारी परिवर्तन का माध्यम कहा जाता है। ऐसी शिक्षा व्यवस्था को तकनीक और प्रौद्योगिकी से जोड़े जाने की जरूरत है।
भदन्त आनन्द कौसल्यायन बौद्ध अध्ययन केंद्र के प्रभारी डॉ.सुरजीत कुमार सिंह ने कहा कि बौद्ध अध्ययन में ज्ञान की अपार संभावनाएं हैं, इसे दूर शिक्षा में अहम स्थान दिया जाना चाहिए। भगवान बुद्ध ने लोकभाषा में ज्ञान का प्रसार किया, दूर शिक्षा को भी लोकभाषा में दी जाने की परंपरा विकसित होनी चाहिए साथ ही इसे चार दीवारी से बाहर निकल कर शोषण मुक्त समाज के निर्माण में अपना अमूल्य योगदान देना चाहिए। इस अवसर पर चन्द्रशेखर झा, सदानंद चौधरी, अर्चना नामदेव ने भी दूरस्थ शिक्षा में तकनीक की प्रासंगिकता के विविध पहलुओं पर प्रकाश डाला। कार्यक्रम का संचालन सहायक प्रोफेसर शंभु जोशी ने किया। कार्यक्रम में भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली के निदेशक प्रो.के.एल.खेड़ा, प्रो.रामशरण जोशी, प्रो.सुरेश शर्मा, प्रो.वासंती रामन, डॉ.बी.के.श्रीवास्तव, डॉ.जे.पी.राय, अशोक मिश्र, संगोष्ठी के संयोजक अमरेन्द्र कुमार शर्मा, अनिर्बाण घोष, अमित राय, सुनील कु.सुमन, चित्रा माली, बी.एस.मिरगे, अमित विश्वास, विधु खरे दास, रयाज हसन सहित बड़ी संख्या में अध्यापक, शोधार्थी और विद्यार्थी मौजूद रहे।