डॉ. भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी
आखिर वह सम्पादक बन ही गए। मुझसे एक शाम उनकी मुलाकात हो गई। वह बोले सर मैं आप को अपना आदर्श मानता हूँ। एक साप्ताहिक निकालना शुरू कर दिया है। मैं चौंका भला यह मुझे अपना आदर्श क्यों कर मानता है, यदि ऐसा होता तो सम्पादक बनकर अखबार नहीं निकालता। जी हाँ यह सच है, दो चार बार की भेंट मुलाकात ही है उन महाशय से, फिर मुझे वह अपना आइडियल क्यों मानने की गलती कर रहे हैं। मैं किसी अखबार का संपादक नहीं और न ही उनसे मेरी कोई प्रगाढ़ता। बहरहाल वह मिल ही गए तब उनकी बात तो सुननी ही पड़ी।
उनकी मुलाकात के उपरान्त मैंने किसी अन्य से उनके बारे में पूँछा तो पता चला कि वह किसी सेवानिवृत्त सरकारी मुलाजिम के लड़के हैं। कुछ दिनों तक झोलाछाप डाक्टर बनकर जनसेवा कर चुके हैं। जब इससे उनको कोई लाभ नहीं मिला तब कुछ वर्ष तक इधर-उधर मटर गश्ती करने लगे। इसी दौरान उन्होंने शटर, रेलिंग आदि बनाने का काम शुरू किया कुछ ही समय में वह भी बन्द कर दिए और अब सम्पादक बनकर धन, शोहरत कमाने की जुगत में हैं। पढ़े-लिखे कितना है यह तो किसी को नहीं मालूम लेकिन घर-गृहस्थी, खेती बाड़ी का कार्य उन्हें बखूबी आता है। घर का आँटा, सरसों पिसाने-पेराने से लेकर मण्डी से सब्जी, आरामशीन से लकड़ी लाना आदि काम वह बखूबी करते हैं और घर के मुखिया द्वारा दिए गए पैसों में से अपने गुटखा आदि का कमीशन निकाल लेते हैं।
अब वह सम्पादक बन गए हैं। वह कर्मकाण्ड भी कर लेते हैं, मसलन हिन्दू पर्वों पर यजमानों के यहाँ जाकर पूजा-पाठ करवाते हैं। लोगों के अनुसार वह एक सर्वगुण सम्पन्न 40 वर्षीय युवक हैं। वह विजातियों के प्रति नकारात्मक रवैय्या अपनाते हैं और स्वजातियों को थोड़ा बहुत सम्मान देते हैं। वही अब सम्पादक बन गए हैं। वह वाचाल हैं न जानते हुए भी अगले के सामने इस तरह बोलेंगे जैसे वह हर क्षेत्र और विषय में पारंगत हों। वह बाल-बच्चेदार व्यक्ति हैं। पत्नी की डाँट भी खाते हैं। येनकेन-प्रकारेण पत्नी और बच्चों की जरूरतें पूरी करते हैं। इन सबके बावजूद वह कभी भी मेरे सानिध्य में नहीं रहे फिर भी मैं उनका आदर्श हूँ, यह मेरे लिए सर्वथा शोचनीय विषय है।
वह जब मुझसे एकाएक मिले थे, उस समय शाम का वक्त था। मैं एक परिचित की दुकान पर बैठा था और वह पत्नी-पुत्र सहित खरीददारी करने आए थे। मैंने औपचारिकता वश पूँछ लिया कि आज कल क्या कर रहे हो तभी वह बोले थे कि आप मेरे आदर्श हैं अखबार का प्रकाशन शुरू कर दिया है और सम्पादक बन गया हूँ। पहले तो मुझे घोर आश्चर्य हुआ फिर अन्दर की बात अन्दर ही रखकर उनको बेस्ट काम्पलीमेण्ट्स दिया। इसी बीच उनकी पत्नी और पुत्र ने सामान खरीद लिया था और वह भी औपचारिक रूप से बोले चलता हूँ सर। मैंने कहा ठीक है जावो ऊपर वाला तुम्हारा कल्याण करे। इतने से आपसी संवाद उपरान्त वह पत्नी-पुत्र समेत मोटर बाइक पर बैठकर चले गए। मैं भी कुछ देर तक अपने परिचित की दुकान पर बैठा जगमगाती रोशनी में हवा और रोशनी दोनों का लेता रहा, सोचा यदि शीघ्र वापसी करूँगा तो घर पर बिजली नहीं होगी अंधेरे में हैण्डफैन चलाना पड़ेगा।
तभी दुकानदार ने कहा सर जी रात्रि के 9 बज गए हैं वह अपनी दुकान बढ़ाना चाहता है, साथ ही उसने यह भी बताया कि पावर सप्लाई आ गई है। मैंने कहा ठीक है डियर तुम अपनी दुकान बढ़ाओ, मैं भी चलता हूँ। फिर शब्बा खैर कहकर मैं वापस हो लिया। रात में भोजन करता नहीं, दो-एक गिलास द्रव पीकर रात बिताता हूँ, यदि मूड बना तो कुछ लिखता हूँ। सम्पादक जी की मुलाकात के उपरान्त लिखने का मूड हो आया सो यह आलेख आपके सामने है। सम्पादक जी मनुवादी व्यवस्था की उस जाति के जीव हैं, जो अपने को सर्वोच्च मानता है और अन्य सभी से सम्मान-आदर की अपेक्षा करता है जबकि अन्य जाति बिरादरी के लोग उनकी कौम से सम्मान पाना तो दूर नजदीक फटक पाने की हिम्मत नहीं कर पाते हैं।
हालांकि यदि पालिटिकल सिनेरियो देखा जाए तो उनकी नस्ल के नेता निम्न स्तर तक गिर कर वोटबैंक वाली पार्टियों के प्रमुखों की जी-हुजूरी करते हैं। छोड़िए भी कहाँ सम्पादक जी की बात और कहाँ जातीय पॉलिटिक्स की बात? सम्पादक जी को किसी ने समझा दिया है कि 10 से 25 प्रतियाँ फाइल छपवाकर शासकीय विज्ञापनों की मान्यता प्राप्त कर लो साथ ही खुद भी मान्यता प्राप्त पत्रकार बन जावोगे। फिर ऐशो-आराम की हर वस्तु तुम्हारे कदमों पर लोगों द्वारा न्यौछावर होती रहेगी। इसी गलत फहमी का शिकार बने सम्पादक जी एक साप्ताहिक समाचार-पत्र छाप रहे हैं और शासकीय मान्यता हेतु सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग के कार्यालय का चक्कर लगा रहे हैं।
इनके सलाहकार ने उन्हें बताया है कि सम्पादक बनने का कोई मापदण्ड नहीं है आप चोर, उचक्के, अपराधी न हों तो शासकीय मान्यता मिल जाएगी। बस आप का नाम थाने के रजिस्टर संख्या 8/10 में न अंकित हो। सम्पादक बनकर आपका रूतबा बुलन्द होगा, साथ ही पुलिस और प्रशासन में आपकी पैठ भी होगी और हर गलत-सही कार्य कराने में सक्षम हो जाओगे। अपने स्वजातीय सलाहकार की बातें मानकर उन जैसा कर्मठ व्यक्ति आखिरकार सम्पादक बन ही गया।
-डॉ. भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी
अकबरपुर, अम्बेडकरनगर (उ.प्र.)