संजय तिवारी,पत्रकार –
शायद बेटे की चाह में वह तीन बेटियों का बाप बन गया। अब लोगों के लिए वह दया का पात्र है। चिंता का भी।
एक बेटी पैदा होती है तो आमतौर पर उसे बोझ ही कहा जाता है। बोझ इसलिए क्योंकि शादी का खर्च। दहेज।
हैसियत के मुताबिक आदमी अपना बोझ जोड़ लेता है। फिर वंश परंपरा के डूबने का खतरा।
वंश तो बेटों से ही चलता है। बेटियों से वंश तो नहीं चलेगा।
आखिरी चिंता घर के महिलाओं की जो बेटी से ज्यादा बेटे की चाहत रखती हैं। औरत की अदद इच्छा हमेशा बेटे की ही होती है।
इसमें कुछ बातें प्राकृतिक हैं और कुछ अप्राकृतिक। बेटियों को बोझ मानने की मानसिकता आई है दहेज के कारण।
अगर हम बेटों के लिए दहेज की मांग बंद कर दें तो यह बोझ वाली मानसिकता अपने आप खत्म हो जाएगी।
कुछ कुछ परिवर्तन प्रेम विवाह के कारण दिख रहा है लेकिन उससे बात बनेगी नहीं।
समाज को सोचना होगा कि दहेज को प्रतिष्ठा से न जोड़े और न ही मांग करे।
अगर सिर्फ दहेज की मांग बंद हो जाए तो बोझ वाली मानसिकता बदल जाएगी।
याद रखिए दहेज कोई भारतीय परंपरा नहीं है। यह एक विकृति है जो अफगान के एक कबीले से इस्लाम के रास्ते भारत आई। अफगानिस्तान के कुछ कबीलों में लड़कियों को खरीदने के लिए “जहेज” दिया जाता था।
कुछ कुछ मेहर की तर्ज पर लेकिन व्यावहारिक स्तर पर लड़की की खरीद फरोख्त जैसा रिवाज है। वही रिवाज उत्तर भारत में दहेज का नासूर बनकर घुस गया और लड़कों को खरीदने का औजार बन गया क्योंकि जिस वक्त में यह रिवाज चलन में आया उस वक्त भारत में इस्लामिक आक्रमण का काल चल रहा था।
जाहिर है पुरुषों का अभाव रहा होगा वैसे ही जैसे आज सीरिया और इराक में हो गया है क्योंकि व्यापक स्तर पर हिन्दू पुरुषों की या तो हत्या हो रही थी या फिर वे युद्ध में मारे जा रहे थे।
अब जबकि हम किसी युद्ध में नहीं हैं, पुरुषों की तादात भी स्त्रियों के मुकाबले प्रति हजार साठ ज्यादा हो गयी है तब भी हम दहेज मांगे जा रहे हैं। क्यों भला?
कायदे से तो लड़कियों को दहेज मिलना चाहिए क्योंकि इस वक्त उनकी जरूरत लड़कों से ज्यादा है।