मीडिया में जातिवाद की दुर्गंध
डॉ.मुकेश कुमार
मीडिया में ऊँची जातियों के वर्चस्व और उसके दुष्प्रभावों को लेकर वर्षों से बहस चल रही है। पत्र-पत्रिकाओं और न्यूज़ चैनलों के न्यूज़रूम में दलित जातियों की लगभग पूर्ण अनुपस्थिति पर बाकायदा सर्वेक्षण हुए हैं और उनके नतीजों ने सिद्ध किया है कि असंतुलन ख़तरनाक़ स्तर तक ज़्यादा है। इतना ज़्यादा कि उसका एकपक्षीय चरित्र निर्मित कर सके, उसे भेदभावपूर्ण बना सके, निम्न कही जाने वाली जातियों को हाशियों तक महदूद रख सके। राष्ट्रीय ही नहीं अंतरराष्ट्रीय मीडिया का भी ध्यान इस विसंगति की ओर गया है और उसने पूरा महत्व देते हुए इस पर गंभीर सामग्री प्रकाशित-प्रसारित की है। ज़ाहिर है इस सबसे मीडिया के चरित्र को लेकर सवाल उठे हैं और संदेह भी बढ़े हैं। हालाँकि मीडिया में जातिवाद का मामला छिपी हुई बात नहीं है। फिर भी इसे ढाँपने की कोशिशें चलती रहती हैं, ताकि मीडिया के निष्पक्ष होने का भ्रम बना रहे और अगड़ों की दादागीरी बदस्तूर चलती रहे। यही हो भी रहा है। लेकिन जातिवाद की ये महाव्याधि इतनी ज़बर्दस्त है कि तमाम कोशिशों के बावजूद दिख जाती है, इसकी दुर्गंध हर कृत्रिम सुगंधियों को परे करके वातावरण में फैल जाती है। यही नहीं, कई बार तो वही लोग जो इसे छिपाने में लगे रहते हैं, कुछ ऐसा कर देते हैं कि नए सिरे से चर्चा छिड़ जाती है। जब पत्रकारिता का एक बड़ा नाम (लोकप्रियता के लिहाज़ से) सार्वजनिक रूप से अपनी जाति की उद्घोषणा करता है और ऐसा करते हुए शर्म की बजाय गर्व का अनुभव करता है, तब सबको पता चलता है कि मीडिया में जातिवाद की जड़ें कितनी गहरी हैं और उसका काला साया कितना स्याह तथा ख़ौफ़नाक़ है। सोचने की बात है कि राजदीप सरदेसाई जैसे संपन्न, बहुचर्चित एवं ऑक्सफोर्ड से शिक्षित पत्रकार को केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह पाने वाले अपनी जाति के दो नेताओं को सार्वजनिक रूप से बधाई देने की क्यों सूझी। ये बधाई भी इस जानकारी के साथ दी गई कि उन्हीं की तरह वे दोनों मंत्री भी गौड़ सारस्वत ब्राम्हण हैं। ये बताते हुए वे अपनी जातीय श्रेष्ठता का ढिंढोरा पीटना भी नहीं भूले और कुल, गोत्र तक चले गए।
इसमें संदेह नहीं कि बहुत सारे पत्रकार जातीय श्रेष्ठता के दर्प में चूर रहते हैं और अनौपचारिक बातचीत में उसका उल्लेख करना शान समझते हैं। लेकिन शायद पत्रकारिता के इतिहास में ये पहला मौक़ा होगा जब किसी नामी पत्रकार ने सार्वजनिक रूप से ये कुकर्म किया हो। अधिकांश पत्रकारों के नाम के साथ जाति नाम लगा होता है और कोई भी पता कर सकता है कि सरदेसाई दलित होते हैं या ब्राम्हण। लेकिन राजदीप को शायद ये नाकाफ़ी लगा या उन्होंने सोचा होगा कि पता नहीं लोग मेरी जाति के बारे में पक्की जानकारी रखते हैं या नहीं और अगर वे इस महत्वपूर्ण तथ्य से अनभिज्ञ हैं तो अपनी इस श्रेष्ठता के बारे में उन्हें बताया जाना चाहिए। इस स्तंभकार तक ने भी कभी ये नहीं सोचा था कि राजदीप किस जाति के हैं (हालाँकि अब लगता है कि सोचना चाहिए था, बल्कि और दूसरे पत्रकारों के बारे में राय बनाते वक़्त उनकी जाति का खयाल भी ज़रूर रखना चाहिए)। वह उसे एक धर्मनिर्पेक्ष, लोकतांत्रिक, अत्य़धिक सक्रिय पत्रकार के रूप में जानता था और उनकी कुछेक खूबियों का कायल भी था। ख़ास तौर पर गुजरात में हुए दंगों और उनमें मोदी तथा उनकी सरकार की भूमिका को उजागर करने के मामले में उन्होंने एक प्रतिबद्ध पत्रकार की भूमिका निभाई थी। इसके लिए उसने उनसे मिलकर उन्हें शाबाशी भी दी थी। लेकिन अब उनका नया रूप देखकर अत्यधिक गुस्सा भी आया और तरस भी। ये लगभग वैसा ही था जैसे भरोसे का आदमी दगा दे जाए और ऐसा बहुतों ने महसूस किया होगा।
राजदीप प्रकरण ने उन बहुत सारे लोगों को सोचने के लिए विवश कर दिया होगा जो नहीं जानते कि पत्रकारों और पत्रकारिता में जातिभेद की खाई उससे कहीं गहरी है जितनी कि दिखाई देती है। बल्कि राजदीप ही क्यों इसके पहले स्वर्गीय प्रभाष जोशी तक ये कह चुके हैं। कुछ वर्ष पहले उन्होंने भी ब्राम्हणों की महिमा बताई थी, जिस पर काफी बावेला मचा था। ये ब्रम्ह राक्षस मीडिया में कई रूपों में मौजूद है। दो-तीन साल पहले किन्हीं ब्राम्हण के स्वामित्व वाला एक न्यूज़ चैनल शुरू हुआ था, उसमें घोषित तौर पर ब्राम्हणों की नियुक्तियाँ की गई थीं। ये बात और है कि वे उसे चला नहीं पाए। मीडिया की जाँत न पूछने की बात करने वाले पत्रकार अकसर जातीय आधारों पर काम करते देखे गए हैं। सचाई तो ये है कि अधिकांश पत्रकारों के कपड़ों के नीचे वही सवर्ण बैठा है। ऊपर से दिखे या न दिखे मगर माथे पर तिलक और पीछे चुटिया विराजमान रहती ही है। उनका अवचेतन उन्हें जातीय आधारों पर निर्णय लेने के लिए प्रेरित करता रहता है। इसमें संदेह की कोई गुंज़ाइश नहीं है कि पत्रकार भले ही प्रोफेशनल होने का दावा करते रहें मगर उनके निर्णय जातीय विचार एवं भावनाओं से प्रभावित होते हैं। टीम के गठन से लेकर ख़बरों के चयन और प्रसारण तक उनके जातीय-मानस की छाप पड़ती है। ख़बर किसी सवर्ण नेता की होगी तो उसे दूसरे ढंग से पेश किया जाएगा और अगर दलित या पिछड़े की हुई तो उसके साथ अलग सलूक किया जाएगा। हालाँकि ये भी सच है कि इसकी प्रतिक्रियास्वरूप दूसरी जातियों के लोग भी जातीय आधार पर फैसले लेते हैं। यादव का यादवों के पक्ष में झुक जाना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं होता।
ये सही है कि मोदी ज्यों-ज्यों मजबूत हुए हैं, वे पत्रकार भी उनके निशाने पर आते चले गए जो किसी एक्टिविस्ट की तरह उनकी सांप्रदायिक राजनीति को उधेड़ते रहे हैं। ख़ास तौर पर उनके सत्तारोहण के बाद तो ऐसे पत्रकार और मीडिया संस्थान उनकी आँखों की किरकिरी बन गए हैं। ज़ाहिर है कि राजदीप उनकी हिट लिस्ट में सबसे ऊपर रहे होंगे। सीएनएन-आईबीएन से उनकी विदाई की ये सबसे बड़ी वजह मानी जाती है। ऐसे में मुमकिन है कि राजदीप अपनी जाति का पासपोर्ट लेकर खुद को सुरक्षित करने का रास्ता तलाश रहे हों। अगर ऐसा है तो ये उनका पतन है और अभी वे और गिरेंगे। उनकी धर्मनिरपेक्षता भी इस पैतरेबाजी के बाद संदिग्ध हो गई है, क्योंकि उनके लिए ये अब सिद्धांत का नहीं, सुविधा का मामला बन गया है। आख़िरकार मनोहर पर्रीकर और सुरेश प्रभु उसी परिवार के हिस्से हैं जो इस देश में सांप्रदायिकता फैलाने के मामले में सबसे आगे रहता है। क्या जीएसबी (गौड़ सारस्वत ब्राम्हण) होने से उनकी सांप्रदायिकता का दंश कम हो जाता है। वैसे इस जातिवादी कमेंट के पहले राजदीप एक ऐसी टिप्पणी कर चुके थे, जिसे मर्दवादी माना गया था, स्त्री विरोधी माना गया था। उनके इस् ट्वीट पर खुद उनकी पत्नी ने ऐतराज़ किया था और अंतत: उन्हें सफ़ाई भी देनी पड़ गई थी। यानी राजदीप ब्राम्हणवादी ही नहीं मर्दवादी भी हैं, हालाँकि मर्दवाद ब्राम्हणवाद का ही हिस्सा है। बहरहाल, इन दो घटनाओं ने समझदार पत्रकार की उनकी छवि को संदिग्ध बना दिया है। वैसे इस प्रकरण का दूसरा पक्ष ये भी है कि इसने उनका असली चरित्र उजागर कर दिया। अब लोग उनके काम को उनके जातिवादी-मर्दवादी दृष्टिकोण के साथ देख सकेंगे और सही ढंग से उसका आकलन भी कर सकेंगे।
ये अच्छी बात रही कि सोशल मीडिया पर राजदीप को उनकी इस कुत्सित टिप्पणी के लिए जमकर धिक्कारा गया। वे एक क्षण में हीरो से खलनायक बन गए। उन्हें भी बहाना मिल गया जो उनसे दूसरी वजहों से नाराज़ हैं और लगे हाथ उन्होंने अपना हिसाब बराबर कर लिया। लेकिन अफसोस की बात ये है कि पत्रकार बिरादरी ने उन्हें उस तरह से नहीं फटकारा जैसा कि फटकारा जाना चाहिए था। शायद सवर्णवाद-ब्राम्हणवाद यहाँ भी काम कर रहा था। अँग्रेज़ी पत्रकारों की बिरादरी भी खामोश रही, बल्कि इससे आँखें मूँदकर उनकी हल्की-फुल्की किताब की महिमा बखानती रही। अगर किसी हिंदी के पत्रकार ने इस तरह की ज़ुर्रत की होती तो पूरा अँग्रेज़ी मीडिया उस पर थू-थू कर रहा होता। हिंदी के पत्रकारों को वह सांप्रदायिक, जातिवादी और अकुशल तो मानता ही है। लेकिन राजदीप अँग्रेज़ींदाँ हैं, बड़े खानदान से ताल्लुक रखते हैं, उनकी पहुँच और संबंध बहुत ऊपर तक है, वे बहुत तरह से लाभकारी हो सकते हैं इसलिए उन्हें नरम दास्तानों (सॉफ्ट ग्लव्ज़) से सहलाया गया। उनसे माफ़ी माँगने या खेद प्रकट करने के लिए भी नहीं कहा गया और न ही उन्होंने अपनी तरफ से इतनी समझदारी दिखाने की कोशिश की।
माना कि पत्रकार भी उसी समाज से आते हैं जो जातिवाद से त्रस्त है। उनकी कंडीशनिंग जातिवादी वातावरण में हुई है और वे जाने-अनजाने इस तरह का व्यवहार करते रहते हैं। लेकिन अगर मीडिया या दूसरे बौद्धिक कर्मों के मामले में हम इस आधार पर इसे क्षम्य मानते हुए अनदेखा करते रहे तो वह समाज को अतीत की आदिम खाईयों में गिराकर मानेगा। इस पर कड़ी प्रतिक्रिया होनी ही चाहिए और विरोध के ज़रिए इन प्रवृत्तियों को रोकने की कोशिश भी। वास्तव में अगर संभव हो तो पत्रकारों के जातिवादी चरित्र को परखने के लिए उनके परीक्षण होने चाहिए। कोई ऐसी प्रश्नावली तैयार की जानी चाहिए जिनसे पता चले कि उनकी जाति के संदर्भ में मानसिक बनावट कैसी है। मनोचिकित्सा में निश्चय ही इसके उपाय होंगे भी। सोचिए यदि शीर्ष पदों पर बैठे पत्रकारों का ही परीक्षण हो जाए और उसे सार्वजनिक कर दिया जाए तो मीडिया का उपयोग करने वालों का कितना भला होगा। वे निर्णय कर सकेंगे कि किस पत्र-पत्रिका या चैनल से उन्हें क्या मिलेगा और उन्हें उन पर कितना भरोसा करना चाहिए।
(मूलतः पाखी में प्रकाशित)