भाजपा खुद को राष्ट्रवादी कहता है,लेकिन इतिहास उससे सहमत नहीं

एड.संजय पांडे

लाला लाजपतराय को याद करते हुए…. स्वतंत्रता सेनानी लालालाजपत राय जी की ये १५१ वी जयंती थी. सत्ताधारी भाजपा सरकार स्वतंत्रता आंदोलन में कांग्रेस और कांग्रेस से मतभेदों के चलते अलग हुए कई स्वतंत्रता सेनानियों की जयंतियां पुण्यतिथियाँ बड़े उत्साह से सार्वजनिक माध्यमों में मना रहा है. धीरेधीरे इन इन प्रतीकों और नामों को विशेष महत्त्व देकर उनको इस तरह से स्थापित करना कि जैसे वर्तमान सरकार की विचारधारा उनकी ही विरासत आगे ले जा रही है और वो कमोबेश उसी परंपरा का हिस्सा हैं.

स्वतंत्रता आन्दोलन में गांधी नेहरु का योगदान भारतीय राष्ट्रिय कांग्रेस का सबसे मजबूत पक्ष रहा है जिसे उसने जितना हो सके हर तरह से भुनाया भी है. इसके उलट भाजपा जिस परिवार का हिस्सा है उस आरएसएस ने पुरे स्वतंत्रता आंदोलन के २२ वर्षों के दौरान जब उसकी सदस्यसंख्या लाखों तक पहुंच गयी थी तब भी रहस्यात्मक चुप्पी साध रखी थी. हिन्दुत्ववादी और राष्ट्रवादी नेताओं से अपनी नजदीकियों का प्रयास संघ की निष्क्रियता के आरोपों को कमजोर करने की दिशा में उसके नियोजित निति का भाग है. इस निति पर अमल सरदार पटेल की ‘एकता की मूर्ति’ बनाने और उसके बाद फ़ौरन ही पंडित मदनमोहन मालवीय को भारत रत्न से नवाजे जाने के साथ हो चुकी है. २८ जनवरी १८६५ को जन्में ‘पंजाब केसरी’ लालाजी की जयंती के कार्यक्रमों का अयोजन, प्रचार, प्रसार उसीकी एक कड़ी है.

काठियावाड़, गुजरात के स्वामी दयानंद सरस्वती (मूल शंकर) ने हिन्दू धर्म के कर्मकांड के विरुद्ध वेदों की और ले जाने के उद्देश्य से ७ अप्रैल १८७५ को मुंबई में आर्य समाज का गठन किया. १८७७ तक पंजाब में काफी लोकप्रिय जमीन मिलने लगी. पंजाब और उत्तर भारत में सनातनी हिन्दुओं और आर्यसमाजियों में संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाती. पढ़े लिखे मध्यमवर्ग और व्यवसायियों को ’पुनः वेदों की और’, शुद्धि, खंडन, मंडन, संगठन और प्रचार जैसे आदर्श घोषित किये नये सुधारवादी वाक्यों ने आकर्षित किया और १८९३ तक यह आन्दोलन उदारवादी, राष्ट्रवादी महाविद्यालयों और गुरुकुलों के रूप में लाहौर लुधियाना आदि जगहों पर मजबूती से स्थापित हो गया. आर्यसमाज ने अंग्रेजों के खिलाफ आन्दोलन नहीं किया, लेकिन इस्लाम और इसाई धर्म की आलोचना किये जाने के कारण उसका टकराव हुआ. उनके सत्यार्थ प्रकाश जैसे साहित्यों ने धार्मिक विद्वेष तैयार किये. में आगे आर्यसमाजी फिरकों में भी हिन्दू चेतना का विकास हुआ. तब तक जड़ पकड़ रही मुस्लिम कट्टरपंथियों से सांप्रदायिक तनाव भी तेजी से उभरने लगा था. तब कॉलेज छात्र रहे लाला लाजपत राय आर्यसमाजी होने के कारण इस टकराव का असर उनपर भी था. लेखराज और अहमदिया मुस्लिमों के बीच हुए धार्मिक शास्त्रार्थ के झगडे में १८९७ लेखराज की हत्या हो गई जो उस समय काफी चर्चा में रही. तब लाला लाजपत राय ३२ वर्षों के थे. १९०९ में लाजपत राय के सहयोगी लाला लालचंद ने पंजाबी भाषा में ‘राजनीती में आत्मोत्सर्ग’ नाम का लेख लिख कर भारतीय चेतना के साथ हिन्दू चेतना की जागृति और कांग्रेस समितियों के स्थान पर हिन्दू सभाओं के स्थापना की मांग रखी. लाला लाजपत राय जिस आर्यसमाज के कार्यकर्ता थे उसमे और सनातनी हिन्दुत्ववादियों में शुरू में कितनी भी कटुता हो लेकिन बाद में वह रुढीवादी हिंदुत्व की मुद्रा में आता गया जो हरि सभाओं, सनातन धर्म संस्थाओं, कुम्भ मेलों के अवसर पर आयोजित सम्मेलनों और १९९० में स्थापित ‘भारत धर्म महामंडल’ के माध्यम से अपने आक्रामक स्वरूप को प्रतिष्ठापित करने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ था. इस्लाम के अनुयायियों में तब तक यही प्रवृत्ति मजबूत हो चली थी. रफीउद्दीन अहमद ने लिखा है कि तब मिलाद, उर्स, ताबीज गंडे को हिन्दुओं की नक़ल कहकर गैरइस्लामी कहना और वज्र महफ़िलों, वाहों, अंजुमनों के मार्फ़त मुसलमानों को सुमुदाय की तरह जमा करके नौकरी रोजगार व अन्य मामलों में हिंदूओं आगे निकलने की होड़ शुरू हो गयी. इन सभी हिन्दू मुलिम सिख संगठनो ने लोकप्रिय संस्कृति को बदलने, उसमे से लोक्तात्वों की सफाई करने, धर्म को अधिकाधिक मिलावटरहित या शुद्ध बनाकर समुदायगत एकजुटता की भावना जागने की कोशिश की जिसके तहत लोकमान्यताओं, रस्मो-रिवाजों और लोक्प्रतिकों निंदा करके साझी समन्वयवादी लोकसंस्कृति की आलोचना की जाने लगी. इसके मूल में तब के संभ्रांत तबको को शक्ति के केंद्र में स्थापित करने का आसन रास्ता भी इसके केंद्र में था.

१८८० से १८९० के बीच साम्प्रदायिकता इन धार्मिक संगठनो के झगडे का मुद्दा उर्दू और देवनागरी लिपि को मुस्लिम और हिन्दू धर्म का रंग देना और गो हत्या पर प्रतिबंध की मांग प्रमुखता से उठने लगी इसमें लालाजी भी शामिल थे. ८ अप्रैल १९९० को सरकार ने मांग स्वीकार करते हुए आदेश निकला कि उर्दू-हिंदी दोनों को सरकारी भाषा का दर्जा मिले और याचिकाएं- विज्ञप्तियां छपें. मुस्लिमो की और से इसका विरोध हुआ क्योंकि उनका मानना था कि इस आदेश से उर्दू का महत्त्व ख़त्म हो जायेगा. गो रक्षा समर्थकों ने १८८०-९० के बीच कई गौरक्षिणी सभाएं कीं और संत्युक्त प्रान्त के की नगरपालिकाओं में अस्वास्थ्यकर बताकर बूचडखानों पर प्रतिबन्ध और कबाब की दुकानों पर पाबंदियां लगाने के उपनियम भी पारित करा लिए. नागरिको के मताधिकार से इन शक्तियों को उनका स्वरूप विशिष्ट राजनीतिक लक्ष्यों की पूर्ति के सत्ता पर कब्जे के सांप्रदायिक राजनीती के इस्म्तेमाल के रूप में होने लगा. गोरक्षा द्वारा ग्रामीण भारत पशुधन की उपयुक्ता और शहरी वर्ग स्वास्थ्य व समृद्धि में वृद्धि से अभिभूत हो उठा. बकरीद पर बकरे की कुर्बानी भी विवाद का विषय बनी और दंगे फसाद की शुरुवात हो गई. १८९३ में आजमगढ़, मऊ, बलिया, गाजीपुर, गया, पटना, जूनागढ़, रंगून, और बम्बई (मुंबई) में साम्रदायिक भड़के. इतने सारे जगहों पर इसके पहले कभी सांप्रदायिक दंगे नहीं हुए थे, ये भारत के इतिहास में हुआ लगभग पहला अखिल भारतीय स्तर का दंगा था,

लाजपत राय जैसे राष्ट्रवादी उस समय अनेक धार्मिक इकाइयों से जुड़े थे. प्रतापनारायण मिश्र नामक लेखक ने ‘हिंदी, हिन्दू, हिन्दुस्तान’ का नारा देकर मुस्लिमो के मन में और भी शंका जगा दी. उन्होंने ये भी खोज कर दी की हिन्दू स्त्रियाँ मुसलमानों के बुरे इरादे से अपने सतीत्व की रक्षा के लिए आग में जल जाती थीं. ऐसे साहित्य लिखे गए जिसमे मुसलमानों जैसे भारत पर प्रथम आक्रमणकारियों से लेकर अंग्रेजो तक भारत पर ‘बाहरवाले’ हमले करके उसे गुलाम बनाते रहे. बंकिम की रचनाओं में इस्लाम को विवेकरहित, कट्टरपंथी, धर्मांध, कामी बताकर उनको आध्यात्मिक और नीतिक गुणरहित चित्रित किया गया. कांग्रेस का गरमपंथी हिस्सा जिसका नेतृत्व बाल गंगाधर तिलक करते थे वो कहा करते की सभी भारतियों को रामायण, महाभारत, भागवतगीता के प्रति सत्यनिष्ठ होना चाहीये. और देशभर में सक्रीय आन्दोलनों का स्वरूप हिन्दू पुनुरुत्थान्वादी था. तिलक द्वारा आयोजित गणेश उत्सव, बंगाल के क्रन्तिकारियों की दुर्गापूजा और कालीपूजा, केरल का अय्यप्पा सेवा संघ इसी के तहत विकसित हुआ. आंदोलनों का सम्बंध अब लोगो के मन में हिन्दू राजनितिक व्यवस्था और मुस्लिम राजनीतिक व्यवस्था जैसे शब्द घर करने लगे. बंकिम चटर्जी, तिलक, लाजपत राय, अरविंदो घोष बिपिनचंद्र पाल जैसे गरमपंथी नेताओं के भाषणों में हिन्दू दृष्टिकोण हुआ करता था. लाजपत राय ने अलग हिन्दू संगठन बनाने का विचार रखा था. इसके जवाब में मुसलमानों में भी औरंगजेब जैसे बादशाह का गुणगान शुरू हो गया. दुनिया में इस्लाम का परचम किस तरह लहराया और अब के मुस्लिमो की हालत पर उकसाव जैसे विषय मुस्लिम साहित्य का केंद्र बन गए. हिन्दुओं को लगता था कि अंग्रेजों से आजादी का मतलब हिन्दू प्रभुत्व वाले हिन्दू राष्ट्र की स्थापना और मुसलमानों के हिसाब से मुस्लिम साम्राज्य स्थापित करना था. दोनों समुदायों के नेताओं ने इस तरह की भावना विकसित करने में योगदान दिया.

पंजाब में जब उपनिवेश बिल के जरिये जमीं सम्बंधी अधार बदलने की ठानी तो भगतसिंह के चाचा अजित सिंह, सूफी अम्बाप्रसाद (जिनपर भगतसिंह का लेख भी है) और लाजपत राय (जिनके विरोध में भगतसिंह ने परचा निकला) के नेतृत्व में आन्दोलन शुरू हो गया. लालालाजपत राय का जयंती मनानेवाली सरकार अपने विरोधयों पर जिन कानूनों का इस्तेमाल कभी कभी कर रही है उनमे से समाचार प्रतिबंधक (अपराधप्रेरक) अधिनियम, राजद्रोहात्मक सभा निवारण अधिनयम, भारतीय प्रेस धिनियम आदि उस १९०८ के एक साल में हि पारित कर दिए गए. सरकार ने इन नेताओं को गिरफ्तार करके जून १९०८ में लाजपत राय, अजित सिंह आदि नेताओं को गिरफ्तार करके मांडले (बर्मा) भेज दिया. उस समय लालालाजपत राय तिलक के साथ कांग्रेस के गरम दल के नेता थे. कांग्रेस के अंदरूनी संघर्षों के चलते उन्होंने लाला लाजपतराय का नाम अध्यक्ष पद के लिए प्रस्तावित किया लेकिन उसे गोपालकृष्ण गोखले जैसे नरमपंथियों का समर्थन इस डर से नहीं मिला की सरकार ज्यादा चिढ कर दमन कर देगी.

१९०९ में आर्यसमाज के नेता लाला लाजपतराय, लालचंद, और शादीलाल ने पंजाब हिन्दू महासभा की स्थापना की जिसकी अध्यक्षता पंडित मदन मोहन मालवीय ने लाहौर में की. बाद के तिन वर्षों में बिहार, बंगाल, संयुक्त प्रान्त, केन्द्रीय प्रान्त, बेरार, और मुंबई प्रेसिडेंसी में इसकी स्थापना हुई और १९१० में इलाहाबाद में पहला अखिलभारतीय हिन्दू महासभा अधिवेशन हुआ.

मांडले से छूटने पर लाजपत राय, बिपिनचंद्र पाल, लाला हरदयाल आदि लोग लन्दन जाकर श्यामजी कृष्ण वर्मा के नेतृत्व में होमरूल आन्दोलन से कुछ समय जुड़े और वहां रहने वाले भारतियों से समर्थन जमा करने लगे. लाला लाजपत राय के नेतृत्व में एक प्रतिनिधि मंडल अमेरिका भेजा गया जिसने ८३ स्थानों पर समर्थन के लिए सभाएं की. उसके बाद प्रथम विश्वयुद्ध में सरकार कांग्रेस, मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा और रियासतों के राजाओं ने हर तरह की मदद दी लेकिन ग़दर आन्दोलन, रुसी साम्यवादी क्रांति से प्रभावित युवा उसके खिलाफ ही रहे. तिलक, लाजपतराय तहत अन्य लोगों के नेतृत्व में गरमंथी राजनीति ने गरीब वर्ग में अपने प्रचार प्रसार का कार्यक्रम तैयार किया जो नरम पंथियों के बीच एक बुनियादी फर्क था. १९१९ में प्रथम विश्वयुद्ध के बाद रौलेट कानूनों के विरुद्ध सत्याग्रह के लिए गांधीजी ने सभी धर्मियों को एकतापुर्वक शामिल करने में सफलता पाई. गंधीजी द्वारा छेड़े गए असहयोग अन्दोलन को हिन्दू महासभा से जुड़े डॉ. मुंजे ने विरोध किये जाने के बावजूद अकोला, अमरावती, छिंदवाडा, नागपुर और चांदा (यवतमाल) में सभाओं, प्रदर्शनों से आंशिक सफलता मिली. १९२०-२२ तक चले असहयोग अन्दोलन के वापस लेने के बाद १९२४ में थोड़े ठहराव के अवकाश में स हिन्दू मुस्लिम एकता फिर टूटने लगी. आगा खान और मुहम्मद शफी जैसे वे मुस्लिम नेता जो खिलाफत और असहयोग आन्दोलन से अलग थे वे अब खिलाफत का समर्थन करने लगे और अंग्रेज मुसलमानों की एकता की वकालत करने लगे. हिदू संगठनों को मौका मिलते ही मुकाबले में शुद्धि आन्दोलन छेड़ दिया, हिन्दू शुद्धि आन्दोलन और संगठन आन्दोलन के प्रतिपादक हिन्दू महासभा वाले कर रहे थे और उनके मुख्य संचालक भाई श्रद्धानंद मलकाना राजपूतों के धर्म परिवर्तन को ‘पुनर्जागरण की उषःवेला’ कहते थे. उन्होंने अलग से हिन्दू रिलीफ कमिटी, हिन्दू रक्षा मंडल जैसी मंडलियाँ शुरू कर दी. जवाहरलाल नेहरु ने आत्मकथा में लिखा है: विभिन्न सांप्रदायवादी, जिनमे अधिकांशतः राजनीतिक प्रतिक्रियावादी हैं, असहयोग और सविनय अवज्ञा अन्दोलन को मिलने वाले अत्यधिक जनसमर्थन के कारण दुबकने के लिए बाध्य हो गए थे, वो अब बाहर आ गए हैं.”

अब पहले की तुलना में ज्यादा दंगे होने लगे और जल्दी जल्दी होने लगे. लाला लाजपत राय के हिन्दू महासभा जैसे संगठनो ने बकरीद और गो हत्या मस्जिद के सामने बजाना की बात फिर तूल देनी शुरू कर दी. इनके रवैये पर गांधीजी ने टिप्पणी करते हुए कहा था, ‘इस बात को लेकर मुसलमानों से जो बैर है उसे मैं कभी समझ नहीं पाया. अंग्रेजों के लिए जो रोज गोहत्या होती उसबारे में तो हम कुछ नहीं कहते.” आदि कारणों से १९२३-२८ के बीच ११२ दंगे दर्ज हुए. १७ सितमबर १९२४ को मुहम्मद अली के घर गांधीजी २१ दिन के उपवास पर बैठ गए. जिससे कुछ समय के लिए हिन्दुओं के शुद्धि और संगठन आन्दोलन स्थगित कर दिए गए. ६ से १३ अप्रैल राष्ट्रीय सप्ताह मनाया गया. गंध्जी ने कहा” हिन्दू मुस्लिम एकता, खादी, और अछूतोद्धार मेरे लिए स्वराज की नींव है.” लेकिन फिरभी झगडा रुका नहीं. उस समय हिन्दू महासभा के अधिवेशन में गांधीजी की अध्यक्षता में होनेवाले कांग्रेस अधिवेशन से ज्यादा भीड़ हुई. लाजपतराय और जफर आली खान के बीच सितम्बर १९२४ के कोहाट के नृशंस दंगों पर गर्म बहसी से साम्प्रदायिक तनाव कांग्रेस की एकता को तोड़ देने जैसी हालत बन गयी. वहां खिलाफत की विशेस सभा में कहा गया कि किसी मुसलमान के मन में काफ़िर के लिए कोई सम्मान नहीं होना चाहिए, मुस्लिमो के हित का सवाल उठा और हिन्दुओं को भाई कहने पर ऐतराज जताए गए. १९२६ के आम चुनावों में मध्यप्रान्त और पंजाब में स्वराज पार्टी बुरी तरह हारी. केवल प. मोतीलाल नेहरु को छोड़ कर क्योकि उनके खिलाफ को इ खड़ा नहीं हुआ था. संयुक्तप्रान्त में सभी हिन्दू सीटों पर वे पराजित हुए. तब मोतीलाल नेहरु ने जवाहर को लिखा था कि, “मालवीय वाला दल बिडला के धन की सहायता से कांग्रेस पर कब्ज़ा करने की जी तोड़ कोशिश कर रहा है.” राष्ट्रवादी मुस्लिम ज्यादा परेशान थे क्योंकि मुस्लिम जनमत भी साम्प्रदायिकता की तरफ बढ़ रहा था.

ऐसे हालात में भारत की राजनितिक प्रगति का आकलन करने के लिए सायमन कमीशन की नियुक्ति की गयी जिसके सभी सदस्य ब्रिटिश संसद से थे. देश के सभी वर्ग उसके खिलाफ थे. इसके खिलाफ केन्द्रीय विधानमंडल में लाजपत राय ने एक प्रस्ताव पेश किया जिसमे सायमन कमीशन को के साथ सहयोग करने के लिए समिति गठित करने के प्रस्ताव का विरोध था. इसे बहुमत का समर्थन मिला.३ फरवरी १९२८ को साइमन कमीशन मुंबई पहुंचा और पुरे दिन देश में हडताल रही. वामपंथी मजदूर, युवक संगठनों ने हडताल को सफल बनाने में बहुमूल्य योगदान दिया. लाला लाजपत राय, चित्तरंजन दास और तिलक जैसे वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं की भी मजदूर आन्दोलन के विकास में भूमिका थी.

भगतसिंह शुरुवाती दिनो में लाजपत राय का काफी आदर करते थे. लेकिन लाजपत राय के हिन्दू महासभा की सक्रियता को देखकर वो उनपर टीका भी करते थे. उन्होंने लाजपतराय से अपने तीव्र मतभेदों के कारण उनको ‘खो चुके नेता’ नाम का परचा भी जारी किया था. जिसमे ब्राउनिंग की कविता ‘थोड़ी चांदी के लिए वो हमको छोड़ गए’ का उल्ल्लेख था. उसमें लिखा था की ‘पंजाब केसरी का दिल चूजे का है’ अंत में ‘ये कोई और नहीं उनका अपना नालायक बेटे हैं’ लिखा था. लालाजी ने उसके उत्तर में लिखा ‘ हाँ उन्होंने नेता खोया लेकिन सिपाही पा लिया है’ भगतसिंह और क्रांतिकारियों के नौजवान भारत सभा के पर्चे, कार्यक्रमअधिवेशन में धार्मिक, सांप्रदायिक विचारों का विरोध किया था. इस तरह उस समय राष्ट्रवादियों से क्रांतिकारियों के सम्बन्ध काफी पेचिदगी भरे थे.

अक्तूबर १९२८ में सायमन कमीशन लाहौर पहुंचा तो लाला लाजपत राय के नेतृत्व में हजारों लोगो ने उसका विरोध किया. नौजवान भारत सभा, लाहौर छात्र संघ जो पंजाब स्टूडेंट यूनियन का नग थम उस प्रतिरोध में शामिल था. ३० अक्तूबर १९२८ को हुए लाठीचार्ज से घायल लाजपत राय का १९ नवम्बर १९२८ को देहांत हो गया. पुरे देश में इसकी जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई. भगतसिंह और उनके साथियों के लाला लाजपत राय से तीखे मतभेद थे, विशेषतः उनके हिंदूवादी रुझान से. किन्तु इस हत्या को उन्होंने ‘राष्ट्रिय अपमान’ मानते हुए बदला लेने का निर्णय लिया. इस हत्या के ठीक एक महीने बाद एक महीने बाद १७ दिसंबर १९२८ की सुबह पुलिस मुख्यालय के सामने भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, राजगुरु और जयगोपाल ने स्कॉट को मारने के लिए गए लेकिन गलती से दिसंबर १९२८ को सौन्डर्स और उसके रीडर चन्ननसिंह की गोली से हत्या हो गयी. १८ दिसंबर को हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातान्त्रिक सेना के पर्चे शहर में लग गए जिसमे लिखा था- “भारत के महँ बुजुर्ग लाला लाजपतराय पर किये गए अत्यंत घृणित हमले से उनकी मृत्यु हुई. यह देश की राष्ट्रियता का सबसे बड़ा अपमान था और इसका बदला ले लिया गया है.”

भारत के स्वतंत्रता संग्राम में लाजपतराय की हिन्दू महासभा कभी सक्रीय नहीं रही. सविनय अवज्ञा आन्दोलन का भी उसने विरोध किया. लाजपतराय जी मृत्यु के कई सालो बाद कांग्रेस को १९३७ के चुनावों में भरी बहुमत मिला था लेकिन वाइसराय लॉर्ड लिनलिथगो द्वारा द्वितीय विश्वयुद्ध में भारत की भागीदारी किये जाने की घोषणा किये जाने के बाद उसके मंत्रियों ने अपने पदों से इस्तीफा डे दिया था. उस समय मौके का फायदा उठाते हुए विनायक दामोदर सावरकर और मालवीय के नेतृत्व में हिन्दू महासभा ने उसकी धुर विरोधी मुस्लिम लीग से हाथ मिला कर सरकार बनाई. सिंध, उत्तर पश्चिमी फ्रंटियर और बंगाल में ये हिन्दुमुस्लिम कट्टरवादी संगठनो की मौकापरस्त सर्कार बनी. सिंध में गुलाम हुसैन हिदायतुल्ला, उत्तर पश्चिम फ्रंटियर प्रान्त में सरदार औरंगजेब खान के नेतृत्व में हिन्दू महासभा के सदस्यों ने मुस्लिम लीग की सरकार में शामिल हुए. आगे १९४३ में यही पुरे भारत में सिंध सरकार वो पहली प्रांतीय असेम्बली थी जिसने पकिस्तान निर्मिती का प्रस्ताव पारित किया. ये दोनों पार्टियाँ हिन्दू मुस्लिम कौमों को भड़का कर कईयों दंगे फसाद कर चुकी थीं और सत्ता के लिए उनकी ये एकता आश्चर्यजनक थी. आगे भारत छोडो आन्दोलन में भी सावरकर ने नगरपालिका, स्थानिक निकायों, विधायिकाओं के हिन्दू सभा कार्यकर्ताओं समर्थको को अपने पदों से चिपके रहने, पदों से इस्तीफा न देने और भारत छोडो आन्दोलन में शामिल न होने का आदेश दिया था. बंगाल में फजलुल हक के कृषक प्रजा पार्टी और हिन्दुय महासभा की गठबंधन सरकार थी. उस सरकार के नेता श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने सरकार को पत्र लिखा की सरकार को इसका हर तरह प्रतिरोध करना चाहिए’. उन्होंने ब्रिटिश सरकार को बंगाल की गठबंधन सरकार द्वारा भारत छोडो अन्दोलन को असफल करने के लिए हर संभव सहायता का वचन दिया. उन्होंने लिखा, ‘भारतीयों को ब्रिटिशों पर विश्वास करना चाहिए ताकि प्रान्त की सुरक्षा और स्वतन्त्रता बनी रहे.’ ब्राम्हण नताओं से भरी महासभा हिन्दू कानूनों में प्रगतिशील बदलावों की भी विरोधी थी. गाँधी हत्या में शामिल नाथूराम गोडसे के साथ के सहआरोपी दिगंबर बडगे, गोपाल गोडसे, नारायण आपटे, विष्णु करकरे, मदनलाल पाहवा हिन्दू सभा के सक्रीय सदस्य थे और सवारकर को भी उसी शक में गिरफ्तार किया गया लेकिन तकनीकी कारणों से वो छूट गए. गाँधी हत्या से बुरी तरह आलोचना का शिकार हुई हिन्दू महासभा को छोड़के श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भारतीय जन संघ की नींव रखी.

आखिर में सबसे जरुरी बात भाजपा के पितृ संगठन आरएसएस की स्थापना १९२५ में डॉ. हेडगेवार और हिन्दू महासभा के डॉ.बालकृष्ण शिवराम मुंजे, डॉ.एलबी परांजपे, डॉ.बी बी ठाकुर और बाबुराव सावरकर द्वारा की गई. इनके प्रशिक्षण शिविरों में लाठी, भालों, छुरे के प्रयोग का अभ्यास कराया जाता. हिन्दू महासभा के मदन मोहन मालवीय ने उन्हें बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में क्रीडा मंडप का निर्माण भी करा दिया. इन दोनों संगठनो के लोंग दंगों में शामिल रहते थे. लेकिन लाला लाजपत राय जिस हिन्दू महासभा को इतना लोकप्रिय बनाये हुए थे उसके सर्वोच्च नेता लालालाजपतराय के हत्या का बदला लेने की इन दोनों हिंसा को वर्ज्य न मानानेवाले संगठनो में से किसी को कभी नहीं सूझी. लेकिन आज लाजपत राय का राजनितिक लाभ उठाने की पूरी कोशिश यही दोनों कर रहे हैं. हिन्दू महासभा और जनसंघ का पार्ट २ भाजपा खुद को राष्ट्रवादी बताते हैं तो इतिहास उनसे असहमत नजर आता है.

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