क्या पार्क होटल में मैच फिक्सिंग क़ी तरह लोकप्रियता फिक्सिंग का खेल हो रहा था ?
शीर्ष के पचास
लेखक: अजय एन झा
हम पत्रकार बिरादरी की बात ही अलग है. हमलोग पूरी दुनिया को हर वक़्त सच का आइना दिखाते रहते हैं. मगर जब अपनी शक्ल देखने की नौबत आती है तब या तो वहां से ही नौ दो ग्यारह हो जाते हैं या फिर आईने के किरदार और फितरत पर ही ऊँगली उठाने लगते हैं.
दुनिया की हर शय पर, हर मसले पर, हर खबर पर अपने दिव्य ज्ञान बांचना और राई का ताड़ बनाकर पेश करना तो हमारी फितरत सी हो ही गयी है. सुबह से शाम तक हर बात पर रंजे-से तंज़ और तप्सरा-तज्कारा किये बिना हम पेट नहीं भरता. मगर मजाल कि कोई गैर शख्स हमारी तरफ एक ऊँगली उठा दे ?
अभी कुछ दिनों पहले ऐसा ही एक अजीबो-गरीब तमाशा देखने को मिला दिल्ली के पार्क होटल में जहाँ एक्सचेंज फॉर मीडिया वालों ने एक जलसे में एक निर्णायक मण्डली द्वारा निर्धारित मीडिया के पचास महारथियों के नाम क़ी घोषणा की और उसके बाद वहां जो नज़ारा दर-पेश आया, वो काफी खौफनाक और हैरानी भरा भी था.
इस जलसे में कई नामचीन और नुक्ताचीन पत्रकारों का रोष और बदमिजाजी का भी मुजाहरा हुआ. कुछ एक साहब क़ी हरकत और अंदाज़ ने हिंदी पत्रकारिता के खुमार को बुखार में तब्दील कर दिया और चंद मिनटों में ही शुमार के खुमार में खयानत हो गयी. कुछ लोग निर्णायक मण्डली के निर्णय को वाहियात बताते हुए बाहर भी चले गए और आधे घंटे वे बाद वापस आकर दस्तरखान पर परोसे खाने-और पीने का मज़ा भी लिया.
इस जलसे में प्रसार भारती के सीईओ जवाहर सरकार के साथ गांधीवादी नेता अन्ना हजारे ने भी शिरकत क़ी. बहरहाल, ये शायद इस किस्म का पहला जलसा था लिहाज़ा पचास क़ी गिनती में कद्दू और कटहल से लेकर आम और अनार एक साथ एक ही टोकरी में रख दिए गए थे.
निर्णायक मंडली में, असगर वजाहत, वेद प्रताप वैदिक, प्रो.पुष्पेश पन्त, शायर निदा फाजली, प्रो. बी के कुठयाल, लोकसभा टीवी के राजीव मिश्र, वरिष्ठ पत्रकार राजेंद्र यादव और राम बहादुर राय, रवि एम्म खन्ना और वीरेंद्र मिश्र भी शामिल थे.
दरअसल इसमें हिंदी और अंग्रेजी प्रिंट पत्रकारिता के साथ टेलीविज़न पत्रकारों को नहीं जोड़ना चाहिए था. अगर इसको तीन या चार श्रेणी में विभाजित कर दिया जाता तो शायद पत्रकारों के साथ न्याय और उनकी क्षमता और लोकप्रियता पर निर्णय करने में आसानी हो जाती. मगर ऐसा हुआ नहीं.
यही कारण है कि राजस्थान पत्रिका के गुलाब कोठारी से लेकर, मृणाल पाण्डेय, श्रवण गर्ग, हरिवंश, ओम थानवी और राम बहादुर राय को अपने से एक दो पीढ़ी नीचे के पत्रकारों क़ी स्पर्धा में जाकर खड़ा होना पड़ा. साथ ही ,ऐसे पद्धति में बंधे होने के कारण कई पत्रकारों के साथ न्याय नहीं हुआ.
निर्णायकों ने दैनिक जागरण के सम्पादक संजय गुप्ता को पहला स्थान दिया जबकि दैनिक भास्कर के सम्पादकीय प्रमुख दूसरे नंबर पर रहे. प्रभात खबर के हरिवंश तीसरे और हिंदुस्तान के शशि शेखर को चौथा स्थान दिया गया और गुलाब कोठारी और उनके पुत्र निहार कोठारी पांचवे स्थान पर करार दिए गए.
नई दुनिया के श्रवण गर्ग छठे, वरिष्ठ पत्रकार आलोक मेहता सातवे मृणाल पाण्डेय आठवे, इंडिया टीवी के रजत शर्मा नौवे और न्यू इंडियन एक्सप्रेस के प्रभु चावला दसवे स्थान पर रहे. राम बहादुर राय को ग्यारहवां स्थान मिला और इसी क्रम में विनोद दुआ, राहुल देव, ओम थानवी, कमर वाहिद नकवी, पुण्य प्रसून बाजपयी, संजय पुगलिया, अभय छजलानी और दीपक चौरसिया रहे.
चौथी दुनिया के संतोष भारतीय को बीसवां स्थान मिला और उसके बाद रहे पंजाब केसरी समूह के अमित और अरुष चोपरा. आईबीएन के आशुतोष, के बाद जगह मिली अजय उपाध्याय, शाजी ज़मां और विनोद कापड़ी को. फिर आज तक के सुप्रिय प्रसाद का नाम शुमार हुआ और उसके बाद शुमार हुए रविश कुमार और मिलिंद खांडेकर.
चौकाने वाली बात ये थी कि दूरदर्शन के संजीव श्रीवास्तव , लाइव इंडिया के सतीश के सिंह, न्यूज़ २४ के अजीत अंजुम, अंशुमन तिवारी, उर्मिलेश, एनडीटीवी के अभिज्ञान प्रकाश से आगे रहे.
एन के सिंह और अरविन्द मोहन को ३३वां स्थान मिला वो अपनी जगह है. मगर दिबांग, निधि कुलपति, अभिसार शर्मा को ३५ वे जगह पर रखा गया. ये कुछ अटपटा सा था. अभिज्ञान, निधि, अभिसार और अलका सक्सेना को देखने और सराहने वाला आज भी दर्शकों का एक बड़ा समूह है और इन लोगों को सबसे पिछली कतार में खड़ा करना टेलीविजन के साथ अन्याय लगा.
इंडिया टुडे के दिलीप मंडल को ३६वे स्थान पर जगह मिली और उनके बाद रहे शैलेश और राजेश बादल. उसके बाद बारी थी यशवंत व्यास, राम के सिंह और एबीपी न्यूज़ के किशोर अजवाणी क़ी. किशोर के साथ भी शायद न्याय नहीं हुआ.
चालीसवे नंबर पर रहे निधीश त्यागी और विजय त्रिवेदी और उसके बाद थे प्रबल प्रताप सिंह और अजय कुमार. उसके बाद जगह मिली मधु एस आनंद, विष्णु नागर, प्रमोद जोशी,कुमार आनंद, जयंती रंगनाथन और ऋचा अनिरुद्ध को जो ४६वे स्थान पर हैं. उसके बाद शुमार हुआ डॉ कुलबीर छिकारा, प्रभात शुंगलू, मेहराज दुबे, अमिताभ अग्निहोत्री, नीलम शर्मा का और आज तक क़ी अंजना ओम कश्यप को आखिरी यानि ५०वे नंबर पर रखा गया.
कुल मिलाकर ये चूं-चूं का मुरब्बा ही लगा. मैं अनुराग बत्रा के प्रयास को सराहनीय मानता हूँ कि कम से कम उन्होंने ऐसी हिम्मत तो जुटाई. शायद अगली बार वो इसको बेहतर कर सकें. वैसे भी मैंने टेलीविज़न को बड़े ही नजदीक से पलते-बढ़ते देखा है और टेलीविजन में काम करने वाले सब साथियों
क़ी नब्जो-अदा से वाकिफ रहा हूँ. इसलिए मैं यहाँ भी वही लिख रहा हूँ जो सच है. मुझे वैसे लोग कड़वा करेला ही मानते रहे हैं क्योंकि कभी किसी-गोल या गिरोह का हमसफ़र या हमनवा नहीं रहा. अपनी तो यही आदत और फितरत रही है कि:-
हिम्मत से सच कहो तो बुरा मानते हैं लोग
रो रो के बात करने क़ी मेरी आदत नहीं रही.
बस तीन मिसालें देता हूँ, एक तो ये कि आज तक के सुप्रिय प्रसाद कभी परदे पर आये ही नहीं और फिर भी लोकप्रियता में अभिज्ञान, किशोर,निधि कुलपति और अभिसार शर्मा से भी बाज़ी मार ले गए.
वही बात एन के सिंह और अरविन्द मोहन जी के साथ है जिनकी लोकप्रियता क्या दिबांग, अलका सक्सेना, अजय कुमार, ऋचा अनिरुद्ध और अंजना ओम कश्यप से ज्यादा है और अगर है तो उसका आधार क्या है?
क्या ऐसा तो नहीं कि जनाब, शायर, प्रोफेसर, खाना पकाने के एक्पर्ट और कुछ और लोग प्रिंट मीडिया और टेलीविजन के बीच क़ी रग और रान का सही मुआयना नहीं कर पाए?
क्या ऐसा तो नहीं कि और जगह में हो रहे मैच फिक्सिंग क़ी तरह यहाँ भी लोकप्रियता फिक्सिंग हो गयी?
या फिर ऐसा तो नहीं हुआ कि:-
ये नहीं थी बात कि मेरा कद घाट गया.
थी चादरें छोटी और मैं सिमट गया.
उसपर से तुर्रा ये कि इतनी बड़ी बात को किसी अखबार ने नहीं छापा और न ही किसी न्यूज़ चैनल पर जगह मिली. क्या दुनिया को सच दिखाने वालो को अपने ही सच से अब डर लगने लगा है?
क्या आइनादारों के आईने में भी बाल उगने लगे हैं? इसका जवाब इसको पढने के बाद आप तलाशिये!
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
इस दौरान मुझे उन मीडियाकर्मियों का ध्यान आ रहा था जो संदेश भेज-भेजकर ध्यान देने और वोटिंग करने की बात कर रहे थे ताकि इस पचास में उन्हें भी जगह मिल जाए. दरअसल अनुराग बत्रा के इस तरह दुस्साहस करने की हिम्मत इन्हीं मीडियाकर्मियों ने बढ़ाई है. क्यों जब तंबू गाड़े जाते हैं, तभी पता नहीं चल जाता कि यहां माता जागरण होना है, डीजे डांस के पड़ोस के बच्चे का मुंडन है. पहले तो सबों ने इसे गर्व और सम्मान का बड़ा मौका माना और फिर देखा कि ये तो आलू-प्याज की तरह सबको मिलने लगा तो विरोध करने लगे. माफ कीजिएगा क्या किसी ने आयोजक से पहले पूछा कि ये काउनडाउन बनाने का आधार आपने क्या निर्धारित किया है और जो निर्णायक मंडल के लोग हैं, वो टेलीविजन देखते भी है या नहीं ? आप रैंक उपर नीचे की बात कर रहे हैं, कई नाम तो ऐसे हैं( आपके लिखे के आधार पर) जो उपर-नीचे होने से पहले ही सूची से बेदखल हैं लेकिन हम पाठकों-दर्शकों के बीच खासा लोकप्रिय है..और हां राजेन्द्र यादव के लिए पत्रकार शब्द का प्रयोग नया लगा, पहले कभी पढ़ा नहीं था..जब राम बहादुर राय निर्णायक मंडली में ही थे तो फिर वोटिंग वाले में भी क्यों डाल दिए गए ? अनुराग बत्रा मीडिया पीआर के हैं, आपको-हमको दुआ ही दे रहे होंगे कि जिस कार्यक्रम को अखबार-चैनल ने कब्र मान लिया, ये हैं कि उन्हें चाय के लिए जगा रहे हैं.:) आप तो आखिर तक आते-आते नरम भी हुए उनके प्रति, क्या पता आपकी शायरी उन्हें अलग से पसंद आयी होगी.
लो नोट करो…
जो अब तक हम बच्चों को याद कराते आये थे…पत्रकार बनने तलक,
वो सब मुहावरे अब हमें खुद पर ही लागू करने में शर्मिंदगी महसूस नहीं होनी चाहिए….
क्योंकि हमसे बड़ा दूसरा बे-शर्म नहीं हो सकता….
1- हमाम में सब नंगे
2- अंधा बांधे रेवड़ी बार-बार अपने को दे
3- नाच न आवै आंगन टेढ़ा
4- अंधों में काने राजा
5- अंधेर नगरी चौपट राजा
6- गूंगे का बीन- बहरी अम्मा सुने
7- गुदड़ी के लाल
8- दाल-भात में मूसलचंद
9- बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद
10-लंगड़े के सहारे-अंधे की मंजिल कोई न जाने
अजय झा जी अगर साफगोई से लिखते नहीं, तो मैं कमेंट करता नहीं….
और वैसे भी यह कोई कमेंट नहीं….कहावतें हैं जो, हमें कभी बचपन में ही भली लगती थीं….
अब शायद यह कहावतें इसलिए हमें फूटी आंख न सुहायें…क्योंकि सब की सब कहावतें
हम पर ही खरी उतर रही हैं…..
मीडिया मठाधीशों की…..!