आलोक तोमर अपनी शोहरत और अपनी भाषा के जादू और जाल में खुद फंस गए:प्रियदर्शन

प्रियदर्शन,वरिष्ठ पत्रकार,एनडीटीवी इंडिया

आलोक तोमर की स्मृति में आज हुए कार्यक्रम ने याद दिलाया कि उनके देहावसान के कुछ दिन बाद एक टिप्पणी मैंने भी उन पर लिखी थी। कुछ संकोच के साथ यह पुरानी टिप्पणी साझा कर रहा हूं।

टुकड़ा-टुकड़ा वह आलोक

ashok vajpaeyआलोक तोमर की बीमारी की ख़बर मुझे थी। फिर भी मैं उनसे मिलने से कतराता रहा। जितना हौसला उनके पास था, शायद उतना मेरे पास नहीं था। लेकिन उन्हें दूर से, खामोश, देखता रहा। वे बिल्कुल आख़िरी लम्हों तक वैसे ही रहे जैसे शुरू से थे- ठसक से भरे ऐसे पत्रकार, जिन्हें अपनी कलम की ताकत पर बेहद भरोसा रहा। उन्होंने जब भी कुछ लिखा, इसी भरोसे और ठसक से लिखा। वे हमेशा कोई न कोई मोर्चा खोले रखते। हमेशा किसी न किसी के ख़िलाफ़ ख़बर लिखते मिलते।

आख़िरी दिनों में उन्होंने अपनी मौत के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल रखा था। जैसे उसे डरा रहे हों कि उसके ख़िलाफ़ भी लिख देंगे। लगातार लिखते भी रहे। जिन लोगों ने हमदर्दी भरे ख़त लिखे, उन्हें भी यही जवाब दिया कि उनपर दया दिखाने की कोशिश न करें। उन्होंने एलान कर रखा था कि उन्हें कैंसर भले हो, लेकिन वे कैंसर से नहीं मरेंगे। उनके मुताबिक कैंसर से मरना बेतुका है। इस खयाल में भी एक बेतुकापन था जिसे आलोक तोमर जैसा शख्स ही इस बेलौस अंदाज़ में कह और सह सकता था। क्या इत्तिफाक है कि कैंसर की शरशय्या पर सोए इस युवा भीष्म ने वाकई कैंसर को छकाते हुए मृत्यु के लिए दिल के दौरे का चुनाव किया। हालांकि इस दिल को भी कैंसर ने ही इतना तार-तार किया होगा कि वह आलोक तोमर के हौसले और उनकी ज़िद का बोझ बहुत देर तक संभाल नहीं सका।

बहरहाल, अपने इन आख़िरी दिनों में भी, लगातार केमोथेरेपी झेलते आलोक तोमर अपने दुश्मन चुनते रहे और उन पर हमला बोलते रहे। इस दौर में कभी बिल्कुल अपने रहे दोस्तों को भी उन्होंने युद्ध भूमि के दूसरी तरफ ला खड़ा किया। प्रभाष परंपरा की नुमाइंदगी के सवाल पर उन्होंने उन लोगों से लोहा लिया, कभी जिनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर नहीं, कंधे से कंधा छीलकर काम किया होगा।

आख़िर वह इतने युद्ध क्यों करते थे? क्या उनके भीतर कोई धधकता हुआ असंतोष था? क्या कोई गुस्सा इतना तीखा और गहरा, जिसे ठीक से न समझ पाते हुए वे लोगों से उलझते रहे? उनसे मेरी मुलाकातें बहुत कम और बहुत संक्षिप्त रही थीं। अक्सर किन्हीं कार्यक्रमों में वे मिलते, जिस दौरान कभी कायदे से बैठने का आत्मीय वादा होता, लेकिन वह नौबत कभी नहीं आई।

अब मैं उन तक पहुंचने की कोशिश कर रहा हूं तो पता चल रहा है कि यह वाकई मुश्किल काम है। आलोक तोमर ने अच्छी-बुरी दोनों तरह की शोहरत बटोरी। उनके प्रशंसक उन्हें 1984 की सिख विरोधी हिंसा के दौर मे की गई बेहद साहसी और मार्मिक रिपोर्टिंग के लिए याद करते हैं। जबकि उनके आलोचक कहीं ज़्यादा महीनी से याद दिलाते हैं कि उनमें से कई ख़बरें आलोक की रोमानी और गुलाबी भाषा की रंगत लिए चमकीली और भड़कीली भले हो गई हों, वे विश्वसनीय नहीं हो पाईं। कुछ लोग मानते हैं कि यह जनसत्ता और आलोक तोमर ही थे जिन्होंने सबसे पहले इस बात की तरफ ध्यान खींचा कि इन दंगों के पीछे कांग्रेसी नेता भी हैं। जबकि कुछ लोग यह भी बताते हैं कि 84 की कई त्रासदियों को आलोक ने सनसनी की तरह बनाया और बेचा। कई लोग उन्हें उनकी बहुआयामी रिपोर्टिंग के लिए याद करते हैं तो कई लोग मानते हैं कि उसमें काफी कुछ मनगढ़ंत भी था।

सच जानने का कोई तरीका मेरे पास नहीं है। मेरे पास लोगों की सुनी-सुनाई कहानियां हैं जो सही या गलत होंगी। एक कहानी मुझे अरविंद मोहन ने सुनाई जो उन दिनों जनसत्ता में हुआ करते थे। वे बताते हैं कि 84 की हिंसा के उन दिनों में आलोक तोमर तीन-चार दिन एक ही कपड़े पहने घूमते रहे। अरविंद मोहन ने सोचा कि शायद रिपोर्टिंग की व्यस्तता में उन्हें कपड़े बदलने का मौका नहीं मिला होगा। फिर एक दिन अचानक वे नए कुर्ते-पाजामे में दिखे। आलोक ने बताया कि दरअसल वे जब दंगा पीड़ित इलाके में रिपोर्टिंग के लिए गए तो उन्हें एक परिवार मिला जिसका सबकुछ लुट चुका था। आलोक तोमर ने पहले जाकर उस परिवार को अपने सारे कपड़े-बर्तन पहुंचाए और उसके बाद ख़बर लिखी।

यह उधार लिया संस्मरण यह साबित करने के लिए नहीं लिखा है कि आलोक तोमर कोई संत पत्रकार थे। खुद को संत बताने की ख्वाहिश तो शायद उनके भीतर भी नहीं रही होगी। लेकिन यह संस्मरण बताता है कि एक दौर में आलोक तोमर नाम का युवा पत्रकार अपने फक्कड़ अंदाज़ में, अपनी युवा दीवानगी और रोमानियत में, कभी-कभी अपना सबकुछ निसार करने की हद तक जाकर लोगों से और अपने विषय से जुड़ता था।

यह शख्स अगर आने वाले दिनों में बदल गया या सत्ता और ग्लैमर की दुनिया में जाकर कुछ और हो गया तो उसमें कुछ दोष जरूर आलोक तोमर का रहा हो, लेकिन कुछ हाथ हमारी उस व्यवस्था का भी है जो बड़ी बारीकी और बेरहमी से अपने समय के प्रतिभाशाली लोगों का इस्तेमाल करके उन्हें ख़त्म कर डालती है।

बहरहाल, शायद दीवानगी, साहस और प्रतिभा का यही मेल रहा होगा जिसकी वजह से प्रभाष जोशी जैसे पारखी संपादक ने आलोक तोमर की पीठ पर अपना हाथ रखा। दरअसल आलोक तोमर बन ही इसलिए पाए कि जनसत्ता था और प्रभाष जोशी थे- यानी एक ऐसा अख़बार और ऐसा संपादक, जो अपने संवाददाता को खुलकर लिखने और कई बार सीमाओं का अतिक्रमण करने और विधाओं में तोड़फोड़ करने की पूरी छूट दे और साथ खड़े होने का भरोसा दिलाए।

इस आज़ादी का आलोक तोमर ने पूरा इस्तेमाल किया। उनके पास बहुत अच्छी भाषा रही, यह कहना पर्याप्त नहीं है। दरअसल अपने मूल गठन में शायद वे कवि थे। गीतों या नवगीतों की रेशमी छुअन का खेल उन्हें मालूम था और इसे उन्होंने कुशलतापूर्वक पत्रकारिता में उतारा। जो लोग बताते हैं कि वे अपराध कथाएं भी रोमानी भाषा में लिऱखते थे, वे भूल जाते हैं कि सिर्फ रोमानी भाषा अंततः उकता देती है। अक्सर ऐसी रोमानी भाषा से भरी क़ापियां संपादित करने की इच्छा होती है।

लेकिन आलोक तोमर बड़ी कसी हुई कॉपी लिखते थे। कम से कम जब भी मैंने उन्हें पढ़ा, तबीयत से पढ़ा और पूरा पढ़ा। वे रिपोर्ट लिखें, बचाव करें, हमला करें- एक नाटकीय किस्म की साफगोई और तनाव के बीच वे भाषा की रस्सी तानते और एक पठनीय सामग्री तैयार करते। ख़ास बात यह है कि यह काम वे बड़ी तेजी से करते। दूसरी खास बात यह है कि लिखना उन्हें थकाता नहीं था। वे खूब लिखते थे, लिख सकते थे और विभिन्न विधाओं में काम कर सकते थे। यही वजह थी कि उन्होंने अख़बार, टीवी, ब्लॉग हर जगह लिखा और कामयाबी के साथ लिखा। अपने करिअर के शुरुआती दौर में ही उन्हें जो शोहरत मिली, वह उनकी इस खूबी का भी नतीजा रही। वे अपने दौर के स्टार रिपोर्टर रहे। उनकी मौत के बाद हिंदी के ब्लॉग संसार में युवा पत्रकार मित्रों की जैसी शिद्दत भरी प्रतिक्रियाएं देखने को मिली हैं, उनसे समझ में आता है कि उनका असर आने वाली पीढ़ियों पर भी रहा।

लेकिन कई बार मुझे लगता है, आलोक तोमर अपनी शोहरत और अपनी भाषा के जादू और जाल में खुद फंस गए। एक दौर में जिस भाषा ने उन्हें आगे बढ़ाया, वह बाद में उनकी फांस भी बनती लगी। उनसे जिस वैचारिक और बौद्धिक विस्तार की अपेक्षा थी, वह शायद उनके ठहरावों और भटकावों की वजह से संभव नहीं हुआ। वे कामयाब हुए, लेकिन जो चमकती हुई लकीर उन्होंने शुरू में खींची थी, वह अधूरी रह गई, शायद कुछ धुंधली भी प़ड़ गई।

लेकिन आलोक तोमर के लेखन और व्यक्तित्व में कुछ ऐसा है जो मेरे लिए पहेली बना रहा। हम सबका व्यक्तित्व जीवन की राहों के अलग-अलग अनुभवों से बनता है, हम पर उन पहाड़ों और नदियों के निशान होते है जो हम अपने पीछे छोड़ आए हैं या जिनके पार जाना चाहते हैं। जहां तक आलोक तोमर का सवाल था, उनके भीतर चंबल के बीहड़ बोलते थे। कई बार वे अतिरेक के ऐसे ही ऊबड़-खाबड़ पठारों पर खड़े दिखाई पड़ते थे जहां उनके साथ होना और चलना मुश्किल लगता था। लेकिन जीने और लिखने की अपनी शर्तें उन्होंने हमेशा खुद तय कीं। कई किताबें भी लिखीं। कभी जनसत्ता में उनके सहकर्मी रहे प्रताप सिंह ने मुझे बताया कि प्रभाष जोशी पर अपनी आख़िरी किताबों याद, संवाद, और प्रतिवाद से पहले उन्होंने नवगीतों की परंपरा पर भी एक किताब लिखी थी।

आलोक तोमर से मेरी पहली मुलाकात उनकी जीवनसंगिनी सुप्रिया ने कराई थी। वे तब नवभारत टाइम्स में हुआ करती थीं और मैं बहैसियत स्वतंत्र पत्रकार वहां कला और संस्कृति से जुड़े मुद्दों पर लिखा करता था। अचानक एक दिन उन्होंने बड़ी आत्मीयता से रोक कर मेरे लिखे हुए की तारीफ़ की और तब तक दिल्ली नाम के एक अनजान शहर में एक अनजान से फ्रीलांसर को अचानक एक सहृदय सी मित्र मिल गई। उस बिल्कुल प्रारंभिक दौर की आत्मीयता के बाद हमारी मुलाकातें नहीं के बराबर रहीं, लेकिन कहीं मेरे भीतर आलोक और सुप्रिया आत्मीय जनों की तरह बसे रहे।

आख़िरी बार आलोक तोमर से मेरी बातचीत तब हुई जब वे एक पत्रिका में डेनिश कार्टून के प्रकाशन के विवाद से घिरे थे। उन्हीं दिनों किसी छोटी सी पत्रिका से मेरे पास फोन आया- उन लोगों को इस मुद्दे पर मेरी राय चाहिए थी। मैंने साफ कहा कि मैं संपादक होता तो वे कार्टून नहीं छापता, लेकिन मेरा मानना है कि कार्टून छापना आलोक तोमर का संपादकीय अधिकार है और उनकी गिरफ़्तारी की मैं भर्त्सना करता हूं।

जब आलोक तोमर छूटे तो उन्होंने मुझे फोन कर धन्यवाद दिया। मैं कुछ अचरज में पड़ा क्योंकि शायद यह इतना बड़ा सहयोग नहीं था जिसके लिए वे धन्यवाद देते। मुझे अच्छा लगा।

लेकिन आलोक तोमर के साथ इतने कम संवाद के बावजूद उन पर मैंने क्यों लिखा? इसलिए कि शायद प्रभाष जोशी की साझा विरासत हम सबको जोड़ती रही। अगर वे जीवित होते तो क्या आलोक तोमर पर नहीं लिखते? यह तकलीफदेह दिन उनके जीवन में नहीं आया, यह अच्छा ही हुआ, लेकिन यह उनके हिस्से का काम था जो मैंने पूरा किया। आखिर प्रभाष परंपरा भी तो वह पुल है जिसके जरिए बहुत कम मुलाकातों के बावजूद हम जुड़ते रहे।

(स्रोत-एफबी)

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