अजीत अंजुम (मैनेजिंग एडिटर, न्यूज24) के यादों के झरोखे से : दूसरी किस्त
दिल्ली में रिपोर्टिंग का जिम्मा मिला और लगा कि जिंदगी का एक सपना साकार हो गया : अजीत अंजुम
करोलबाग के उस कमरे में रहते हुए ही मुझे पहले चौथी दुनिया फिर अमर उजाला में नौकरी मिली . उसी कमरे में रहते हुए दिल्ली में टिकने और कुछ बनने का हौसला पैदा हुआ …और ये सब उन दोस्तों की वजह से हुआ जो उसी कमरे में साथ रहते थे …वन बेडरुम फ्लैट में कोई बेड तो था ही नहीं …हम सबके पास बेड रोल था …चारो दीवारों से सटाकर चार लोग रोज रात को अपना बेड रोल बिछाकर सो जाते और सुबह उसे लपेट कर किनारे लगा देते .. पटना , गुवाहाटी , भोपाल या किसी और शहर से कोई संघर्षशील साथी नौकरी खोजने के लिए जब भी दिल्ली आते तो सीधे हमारे ठिकाने पर टपकते …इस अधिकार के साथ यहां सब अपने हैं …..ऐसे आगंतुकों के लिए हमारे कमरे में जगह भले ही कम होती लेकिन दिल में जगह की कमी नहीं थी …एक सुबह हमारे कमरे पर छोटा सा सूटकेस लिए गुवाहाटी से एक सज्जन आए …उनके पास गुवाहाटी में रहने वाले अपने मित्र रत्नेश कुमार की एक पर्ची थी , जिस पर लिखा था – ये अपना ……है . इसे दिल्ली में आपकी मदद की जरुरत है ….दो लाइनों की ये पर्ची ही उस शख्स के लिए हमारे ठिकाने को अपना समझने का ऑथरिटी लेटर था …वो हमारे साथ कई दिन तक रहे …नौकरी खोजते रहे और आज दिल्ली में जमे हैं …हमारे साथ उसी कमरे में हैदराबाद के रहने वाले के ए बद्रीनाथ भी रहते थे …जो उन दिनों एक तेलगू दैनिक में काम करते थे . हिन्दी उन्हें ऐसी आती थी कि हम भी उनके लिए स्त्रीलिंग की तरह ही थे…उनके व्याकरण में पुल्लिंग वर्जित था …लेकिन हम जैसों के साथ रहते हुए उन्होंने इतनी हिन्दी सीख ली थी कि अपनी बात कह सकें …हम सब में एक बात कॉमन थी कि हम एक दूसरे के काम आएंगे …और किसी को जानने वाला अगर काम की तलाश में दिल्ली आएगा तो उसे रहने का ठिकाना देंगे …बद्रीनाथ बाद में एक्प्रेस और हिन्दुस्तान टाइम्स के नामचीन रिपोर्टर बने …सालों बाद आज ही उनकी तलाश करके बात करुंगा …रात को खाना बनाने के लिए रोस्टर डियूटी लगती थी …बद्रीनाथ को सांबर बनाने आता था तो अक्सर सांबर चावल बनाते थे . हमारी बारी आती थी तो सब्जी – चावल और रवि प्रकाश दही का रायता और चावल …रोटी बनाना किसी को आता नहीं था इसलिए डिनर में रोटी तभी मिलती थी , जब हम सभी कभी पास के ढाबे में खाने जाते थे …उन दिनों में दिल्ली में बहुतों से मिला …बहुतों से नौकरी के लिए मिला …बहुतों से छपने – छापने की अर्जी लिए हुए मिला …कभी इस अनुभव पर लिखूंगा …अक्तूबर 90 में हम सबने मिलकर तय किया अब कोई बड़ा घर लिया जाए …क्योंकि सब ठीक ठाक नौकरी कर रहे थे और हमारे यहां आने वाले आगुंतकों की तादाद हर महीने बढ़ रही थी …तब हमने पटपड़गंज में आशीर्वाद अपार्टमेंट में एक डुप्लेक्स फ्लैट किराए पर ले लिया …बद्री ने साथ छोड़ दिया .यहां दो नए साथी हमारे साथ रहने लगे. आशीर्वाद में हम लोग एक साथ करीब दो साल रहे …चार कमरे के फ्लैट में सबके हिस्से एक एक रुम था …उसका नाम हमने दिया था – अस्तबल …तब तक कई शहरो में हमसे जुड़े पत्रकारों को ये पता चल गया था कि दिल्ली में बैचलर पत्रकारों का ये एक ऐसा अड्डा है , जहां कभी भी आकर गिरा और टिका जा सकता है …कई बार तो ऐसा होता कि हमारे बाहर वाले कमरे में तीन चार आदमी और हर कमरे में एक एक सहवासी एडजस्ट हो जाते …क्योंकि एक एक करके हफ्ते भर में सात – आठ लोग दिल्ली आ जाते और नौकरी की तलाश में या फिर अपने काम के चक्कर में कई दिन तक यहीं जम जाते …कई लोगों को ये सहूलियत भी उन्हें संबल देती थी कि हमारे अस्तबल में लॉजिंग – फूटिंग का बेहतर इंतजाम था …सूरज नाम का एक लड़का था , जो हम सबके के खाने का ख्याल रखता था …एक बार मैं दफ्तर देर रात को घर पहुंचा . कॉल बेल बजाया और दरवाजा खुला तो सामने नींद से भकुआए हुए चार – पांच लोग थे ….उनमे से एक ने मुंह बनाते हुए पूछा – किससे मिलना है …अपने ही घर में ऐसे सवाल का जवाब देने से पहले मुझे हंसी आई . मैंने उनसे कहा – जी , मेरा नाम अजीत अंजुम है और मैं भी इसी घर में रहता हूं …तब मुझे अंदर दाखिल होने का रास्ता मिला ….ऐसे मौके कई बार आए ,जब बाहर के कमरे में एक साथ पांच – पांच लोग कई हफ्तों तक रहे …ये लोग अलग अलग शहरों से किसी की चिट्ठी या किसी का नाम लेकर दिल्ली आते थे ….उस घर में का खाना – खर्चा कॉमन था . हम चार स्थाई सदस्य ( जिसमें कुमार गिरीश और कुमार भवेश भी रहे ) उस खर्चे को आपस में बांट लेते थे . एक बार पता नहीं मुझे क्या सूझा . हमने घी के एक डब्बे को गुल्लक बनाया . उस पर कागज चिपका कर अस्तबल लिख दिया . साथ में ये भी लिखा कि इस अस्तबल में रहने वाले घोड़े – गधे के चारा -पानी के इंतजाम के लिए आप अपना योगदान कर सकते हैं …हर रोज आने वाले साथियों को मजाक में ही सही वो डब्बा दिखाते …कभी मजाक में ही कोई आने – जाने वाले एकाध सिक्का उसमें डाल जाता लेकिन हम रोज उसमें कुछ – कुछ डाला करते …कई बार ऐसा होता कि नौकरी खोजने के लिए दिल्ली आने वाले साथी उसी डब्बे से दिल्ली में डीटीसी बस का खर्चा निकाल लेते …तो डब्बा में आगुंतकों की तरफ से आता कम था , निकलता ज्यादा था . बाद में घरेलू राजस्व में घाटे को कम करने के लिए डब्बे की व्यवस्था खत्म कर दी गयी …हम ये तो नहीं ही चाहते थे कि इस डब्बे को कोई गंभीरता से चंदा मांगने वाला समझ ले लेकिन ये भी नहीं चाहते थे कि इस डब्बे की वजह से हमारी अर्थ व्यवस्था खराब हो जाए ….उन दिनों हमारे सामने वाले फ्लैट में Ambrish Kumar और Amitaabh Srivastava रहते थे . पास ही के फ्लैट में संजय कुमार सिंह, संजय सिन्हा और कुमार रंजन रहते थे ….आज भी कई ऐसे साथी पत्रकार दिल्ली और कई शहरों में हैं , जिन्हें पैर जमाने के लिए पहली जमीन हमारे फ्लैट में रहते हुए मिली थी ….( जारी )
मुजफ्फरपुर में पढ़ाई करते हुए पता नहीं पत्रकारिता का कीड़ा लग गया …. अखबारों में संपादक के नाम पत्र लिखने से शुरुआत हुई और शहर में पत्रकारों का सानिध्य खोजने निकल पड़ा . पहले प्रमोद नारायण मिश्र से मुलाकात हुई फिर रमेश पोद्दार से …रमेश जी उन दिनों मुंबई से निकलने वाले अंग्रेजी साप्ताहिक करंट और जनसत्ता के लिए लिखते थे …पहली पाठशाला रमेश पोद्दार का घर बना …वहीं Vikas Mishra विकास मिश्रा ( जो लोकमत के संपादक हैं ) और रवि प्रकाश समेत शहर में संघर्षशील कई नए और कई घुंटे हुए पत्रकारों से मुलाकात हुई ….पिता जी उन दिनों मुजफ्फरपुर में सब जज हुआ करते थे …उन्हें कई हफ्तों तक पता ही नहीं चला कि बेटा कॉलेज छोड़कर पत्रकारों के चक्कर लगा रहा है …..रमेश पोद्दार की संगति ने मेरे भीतर ऐसी ख्वाहिशें भर दी कि मैंने तय कर लिया कि मुझे तो अब पत्रकार ही बनना है …..मां को जब पहली बार पता चला तो बहुत दुखी हुई क्योंकि उन्होंने बेगूसराय में पत्रकारों का हाल देखा था …मां के मन में न तो पत्रकारों के लिए राय अच्छी थी , न ही वो चाहती थी कि उसका बेटा अफसर न बनकर पत्रकार बन जाए …पिता से मिलने घर पर अक्सर सरकारी अफसर आया करते और मुझे देखकर पूछते – पढ़ाई कैसी चल रही है …कंपीटीशन की तैयारी – वैयारी कर रहे हो या नहीं …और मैं बगलें झांकता हुआ वहां से कट लेता …पिता जी कहते – अरे अब इसको पत्रकार बनने का भूत सवार हो गया है …कई बार उनके अफसर साथी उन्हें समझाते – अपने बेटे को टाइट कीजिए रामसागर बाबू , बर्बाद हो रहा है …जिंदगी भर झोला लेकर घूमता रहेगा और सिमेंट – चीनी और कोयले का परमिट बनवाने के लिए डीएम ऑफिस के चक्कर काटेगा …..( उन दिनों छोटे शहरों में कुछ पत्रकारों के लिए ये भी पार्ट टाइम काम था ) …मैं कोशिश करता कि पिता जी का कोई अफसर साथी घर आए तो मैं सामने न पड़ूं …नसीहत सुनते सुनते चट चुका था ….जिसे देखो , वही मुझे पीओ बनने या फिर कंपीटीशन की तैयारी करने की घुट्टी पिलाने लगता ….और मैं था कि छोटी – बड़ी पत्रिकाओं और अखबारों में छपे लेखों और रिपोर्टस की कतरनें जमा करता रहता …..
(फेसबुक से साभार)
अजीत जी मीडिया की सबसे कमाल की शख्सियतों में से एक हैं। उन्होंने जितने पत्रकार बनाए सब के सब आज एक खास मुकाम पर हैं। उनके बड़प्पन की जितनी तारीफें की जाए कम हैं।
अजीत की कहानी प्रेरणादायक है। फर्श से अर्श पर पहुंचने की संघर्षभरी दास्तान…अजीत जी आपकी कहानी हम पत्रकारों का जोश बढ़ाने का टॉनिक है। आप ऐसे ही लिखते रहें।