अजीत अंजुम, मैनेजिंग एडिटर, न्यूज24 के यादों के झरोखे से (भाग-7)
जिंदगी के किसी मोड़ पर समझौतों के चक्रव्यूह में जब फंसता हूं तो मुनौव्वर राणा का एक शेर याद आता है –
समझौतों की भीड़-भाड़ में सबसे रिश्ता टूट गया
इतने घुटने टेके हमने आख़िर घुटना टूट गया..
फिर सोचता हूं कि अभी हमने इतने घुटने नहीं टेके कि घुटना टूट जाए . हां , समझौतों की सड़क पर इतना चले जरुर हैं कि कभी – कभी लंगड़ाने का अहसास जरुर होता है . नौकरी अपने आप में समझौते का दूसरा नाम है . कितने ऐसे खुशनसीब लोग हैं , जिन्हें नौकरी में वही सब करने का मौका मिलता है , जो वो करना चाहते हैं . कितने लोग हैं , जो नौकरी में अपने मन की करते हैं . इस देश में प्रधानमंत्री की नौकरी करने वाले मनमोहन सिंह को ही देखिए , कितने मजबूर नजर आते हैं . जिसके हाथ में देश की सर्वोच्च सत्ता है , जब वही इस कदर मजबूर है कि वजीए – ए – आजम होकर भी अपनी मर्जी से वजीर तय नहीं कर सकता तो हमारी – आपकी नौकरी का क्या …
हिंदू मान्यताओं के अनुसार जिस तरह मानव जीवन को चार आश्रमों (ब्रम्हचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, सन्यास आश्रम तथा वानप्रस्थ आश्रम) में बांटा गया है , वैसे ही मुझे तो लगता है नौकरीशुदा जीवन के भी चार आश्रम हैं . 25 साल तक लोग दिल से काम ( नौकरी ) करते हैं . 25 से 35 तक दिल और दिमाग के बीच सामंजस्य बिठाकर काम ( नौकरी ) करते हैं और उसके बाद सिर्फ दिमाग से काम करते हैं . दिल की सुनने पर बेरोजगारी का खतरा हमेशा बना रहता है . चौथी स्थिति 55-60 के बाद होती है जब आप खुद को काम करने लायक मानते हैं लेकिन जमाना माने ये जरुरी नहीं और जब तक जमाना नहीं मानता , आप किसी काम के नहीं होते . अभी मैं तीसरी स्थिति से गुजरते हुए चौथी स्थिति की तरफ बढ़ रहा हूं .
आज मैं जो भी हूं , उसके बारे में 25 साल पहले सोचा नहीं था , लेकिन आज सोचता हूं कि जो मैं कर सकता था , वो अब तक नहीं कर पाया हूं . वक्त कम है , काम ज्यादा . पता नहीं जो करना चाहता हूं वो कर पाऊंगा भी या नहीं . न तो तेजी से भागते वक्त का कोई सिरा मेरे हाथों में है , न ही ऐसे हालात , जो मुझे अपनी कसौटियों पर कसकर वो करने का मौका दे , जो मैं करना चाहता हूं . तो आग है दोनों तरफ बराबर लगी हुई . आप में से बहुतों को लगता होगा कि इनके तो मौज हैं …फ्लैट है ( बंगला नहीं ) , गाड़ी है , लखटकिया नौकरी है ..मजे ही मजे हैं …क्या किस्मत लिखवाकर लाए हैं …और मै आपमें से कईयों को देखकर सोचता हूं कि आपकी तो मौज है …क्योंकि आपके पास ये सब हो न हो , कुछ कर गुजरने का जबरदस्त जज्बा तो है …मन की काम तो कर पा रहे हैं …हम भी कम मौज में नहीं थे , जब हमारे पास ये सब नहीं था . तीन बार मैंने बात – बात में नौकरी छोड़ी लेकिन तब नौकरी छूटने पर भी इतनी चिंता नहीं हुई थी , जितनी आज नौकरी चलाने के लिए होती है …. कई बार लगता है कि किसी जगह पर टिके रहने का संघर्ष , वहां पहुंचने के संघर्ष से ज्यादा मुश्किल और तकलीफदेह होता है . ( इसकी कहानी फिर कभी )
खैर वापस लौटते हैं अतीत की तरफ ….इस दिल्ली शहर ने मुझे बहुत कुछ दिया . पहली , दूसरी , तीसरी , चौथी , पांचवी और छठी नौकरी दी …कई दोस्त दिए …. घात लगाए बैठे दुश्मन दिए ( सीमा पार वाले दुश्मन की तरह नहीं जो सर कलम कर ले जाएं , ये वो दुश्मन होते हैं जो आपके निपटने की दुआएं करते रहते हैं ). सामने से शुभचिंतक और पीछे से अशुभचिंतक दिखने वाले परिचित दिए . पत्रकारिता के करियर में कुछ करने का हौसला दिया और सबसे बड़ी बात मेरी जिंदगी की सबसे हसीन और अहम किरदार गीताश्री भी मुझे इसी शहर में मिली . करीब 22 सालों का हमारा साथ है और तमाम लड़ाईयों के बाद भी हम अब तक साथ हैं . 1992 में जब हमने शादी करने और साथ रहने का फैसला किया था. तब दो तीन दोस्तों ने हमें समझाने की कोशिश की थी कि ये रिश्ता चलेगा नहीं तुम्हारा . तुम दोनों का मिजाज मिलता नहीं . आईएनएस बिल्डिंग में जहां हम दोनों नौकरी करते थे , वहां के कुछ अशुभचिंतक पत्रकारों ने तो हमारे रिश्तों की मियाद भी तय कर दी थी . लेकिन सबका कैलकुलेशन और सबकी भविष्यवाणियां फेल हो गयी . एक अखबार के ब्यूरोचीफ जो हम दोनों के बारे में सबसे अधिक टीका टिप्पणी करते फिरते थे , उन्होंने तीन बार मुहब्बत किया . तीन शादियां की . तीनों में फेल हुए और इन दिनों दोपहर से लेकर रात तक प्रेस क्लब में अंगूर की बेटी से मुहब्बत फरमाते नजर आते हैं . हां , इस शहर ने मुझसे बहुत कुछ छीन भी लिया है …( इसकी चर्चा भी फिर कभी )
मुझे अक्सर याद आता है -पटना के भिखना पहाड़ी में पत्रकार मंजिल के नाम से मशहूर हमारा वो मकान , दिल्ली के देवनगर ( करोलबाग ) इलाके का वन रुम फ्लैट , पड़पड़गंज के आशीर्वाद अपार्टमेंट का वो डुप्लेक्स मकान …इन सब मकानों में अपने दोस्तों के साथ रहते हुए कभी हमारा हौसला नहीं टूटा था . अखबारों में नौकरी पाने और अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष जरुर कर रहे थे लेकिन कभी फांकाकशी की नौबत नहीं आयी थी . हममें से कोई दोस्त कभी बेरोजगार भी रहा तो दूसरे ने उसकी मदद की . एक दूसरे की माली हालत को देखते हुए हमने एक – दूसरे की जेब में बिना बताए रुपए भी रखे ताकि बस में सफर और चाय – नाश्ता में दिक्कत न हो .तब हम में नौकरी छूटने का इतना डर भी नहीं होता था कि समझौतों के सलीब पर टंगने से परहेज न करें .
मुझे याद कि 93 में मुझे अमर उजाला की नौकरी सिर्फ इसलिए छोड़नी पड़ी थी क्योंकि मैं गीताश्री के प्रेम में इतना पागल हो गया था कि काम – वाम में मुझे मन लगता नहीं था . …
हीर रांझा और लैला मजनू जैसी फिल्में तो हमने स्कूल के दिनों में ही देख ली थी लेकिन गीता को लेकर मेरी दीवानगी इतनी मौलिक थी कि ये हीर और मजनू मुझे अपने सामने फीके ही नजर आते थे . मेरे पिताजी बिहार में मेरे लिए ऊंचे घरों की लड़कियां देख रहे थे . हर हप्ते एक न एक तस्वीर भेजकर मुझसे रजामंदी लेने के लिए फोन किया करते थे और मैं यहां गीता के साथ भविष्य के घरौंदे बनाने में जुटा था. दिल्ली में गीताश्री के साथ घूमना ,दफ्तर से रिपोर्टिंग के बहाने निकलना और दिल्ली की सड़के नापना …मेरी दिनचर्या का अनिवार्य हिस्सा था.
गीताश्री से मेरी पहली मुलाकात एक मुठभेड़ की तरह हुई थी . मैं स्वभात : लड़कियों से कम मिलता जुलता था . गीता के बारे में कुछ सुनता रहता था . उसका लिखा अखबारों पढ़ता ( देखता कहना ज्यादा ठीक होगा ) रहता था . लेकिन बिना मिले एक नापंसदगी जैसी बात मन में बैठ गयी थी , पता नहीं क्यों . एक दिन आईएनएस बिल्डिंग के गेट से अपनी मोटरसाइकिल पर निकल रहा था . तभी संजय झा ( अब बिहार के किसी अखबार में हैं शायद ) के साथ एक लडकी चली आ रही थी . मस्तमौला की तरह बेफिक्र अंदाज में …. संजय मेरे मित्र थे . उन्हें दुआ सलाम करने के लिए मैं रुका . उन्होंने तुरंत उस लडकी से मेरा परिचय कराते हुए कहा – अजीत भाई , ये गीताश्री हैं और गीता दी ये अजीत भाई हैं ….मैं कुछ बोलता – सोचता , उसके पहले ही गीता बोली – अच्छा तो आप ही अजीत अंजुम है , जो मेरे बारे में कुछ बोलते रहते हैं ….अभी आपकी क्लास लेती हूं ..पता नहीं वो मेरी क्लास कैसे लेने वाली थी लेकिन उसके चेहरे पर शरारती मुस्कान देखकर ही मेरी हवा खराब हो गयी थी . मैंने फटाक से एक्सीलेटर पर पांव दबाया और इतनी तेजी से भागा कि पूछिए मत .पीछे से गीता की आवाज मेरे कानों में आती रही – अरे आप कहां भाग रहे हैं …रुकिए ..रुकिए …लेकिन मैं कहां रुकने वाला था … जिंदगी में अब तक किसी मौके पर भागा हूं तो वो पहला और आखिरी मौका था . वो मौका क्या था , किसी मोर्चे से कम नहीं था मेरे लिए . मैं काफी देर बाद आईएऩएस बिल्डिंग के पास लौटा था और इस बात की तस्कीद के बाद कि गेट के पास वो खड़ी तो नहीं है , मैं गेट में दाखिल हुआ था … संजय झा से अगले दिन खूब लड़ा कि आपने मुझे क्यों गीता से मिलवाया और वो अपने आपको समझती क्या है …उसने मुझसे ऐसे बात क्यों की …मेरा क्या बिगाड़ लेगी वो ….सामने पड़ने पर हवा इतनी खराब हुई थी कि नौ दो ग्यारह होने में मिनट भी नहीं लगाए थे लेकिन संजय झा के सामने कुछ यूं बातें कर रहा था कि लड़की है इसलिए छोड़ दिया वरना मैं मजा चखा देता ….गीता से मेरी दूसरी मुलाकात तो और दिलचस्प ढंग से हुई . पटपड़गंज के आशीर्वाद अपार्टमेंट वाले फ्लैट पर मेरे एक दोस्त के साथ एक दिन अचानक आ धमकी . नवर्स तब भी मैं हुआ था उसकी बेबाकी के सामने…बाद में उसी गीताश्री के हम दोस्त बने और जीवनसाथी भी. ( बीच की कहानी फिर कभी )
गीता से मेरी दोस्ती दो विपरीत ध्रुवों के मिलने की तरह था . लेकिन जब मिले तो ऐसे मिले कि दुनिया अलग करने की कोशिशें करती रह गयी , हम अलग न हुए . जब हमारी दोस्ती हुई तब गीता राजस्थान पत्रिका में ट्रेनी थी और मैं अमर उजाला में …अमर उजाला में नौकरी करते हुए गीता के साथ एक बार दो दिन के लिए बिना बताए दिल्ली से गायब हुआ और अपनी हीरो होंडा मोटरसाइकिल नैनीताल हो आया . आशीर्वाद अपार्टमेंट में साथ रहने वाले दोस्तों को भी नहीं पता था कि मैं कहां हूं और किसके साथ हूं . रात को मैं अपने दोस्तों को ये कहकर निकला कि मैं किसी के घर जा रहा हूं , कल तक लौटूंगा . पास ही अपार्टमेंट में रहने वाली गीता को साथ लिया और अपने अपने घरों से निकल पड़े नैनीताल के लिए . अब रात को नैनीताल कैसे जाते सो हमने तय किया कि दिल्ली में घूमते – घामते रात गुजारेंगे. सबसे पहले हम इंडिया गेट पहुंचे . देर रात तक वहां घास पर बैठे गप्पें मारते रहे . आधी रात होते होते आस पास का पूरा इलाका खाली हो गया लेकिन हमें तो सुबह का इंतजार था. सोचा किसी तरह यहां रात कटे , अँधेरा खत्म हो तो यहां से चलें नैनीताल की तरफ. लेकिन सीटी बजा – बजाकर प्रेमी जोड़ों को वहां से जाने की ताकीद करते पुलिस वाले ने हमें भी वहां से दफा होने का फरमान सुनाया …हम करते तो क्या करते…तय किया कि अभी इसी वक्त चलते हैं नैनीताल. तो इस तरह करीब ढाई बजे हम नैनीताल के लिए चल पड़े . उस वक्त सड़कें पर इतनी सुरक्षित नहीं होती थी फिर भी हम चले और सुबह दस बजे तक पहुंच गए.
नैनीताल में दो दिन बिताने के बाद हम दिल्ली पहुंचे . गीता को उसके घर छोड़ा और मैं सीधा पहुंचा अमर उजाला के दफ्तर . अपने ब्यूरो चीफ प्रबाल मैत्र का गुस्सा किसी तरह झेलकर फिर काम पर लग गया लेकिन प्रबाल जी को अहसास हो चुका था कि मैं मजनू बनता जा रहा हूं और काम –वाम में मेरा मन लग नहीं रहा है . ब्यूरो चीफ होकर भी प्रबाल मैत्र मेरे गार्जियन की तरह थे . डांटते भी थे . समझाते भी थे. काम में मन लगाने की नसीहतें भी देते थे लेकिन उस उम्र में मुहब्बत के राही कहां किसी के समझाने के समझते हैं . मैंने भी कब समझा…मैंने क्या नहीं किया …तनाव में नींद को गोलियां खाई ….दोस्तों की सलाहों और नसीहतों को ताक पर रखकर जो मर्जी हुआ , वही किया ….एक दोस्त ने मेरे पिताजी को फोन कर दिया और घर वाले भागकर दिल्ली आए …मुझे जबरदस्ती घर ले गए . फिर गीता भी पटना पहुंची . हम साथ होटल में रहे और एक होकर दिल्ली आ गए . ( ये लंबी कहानी है इस पर बात फिर कभी ) .
कई महीने बाद घर वालों ने गीता को बहु मान लिया और उसे कुछ दिनों के लिए बेगूसराय भी बुला लिया . ये बात भी उन दिनों की है जब गीता बेगूसराय में थी और मैं दिल्ली में . गीता के साथ ज्यादा से ज्यादा रहने के चक्कर में बहुत छुट्टियां ले रहा था और भाग भागकर बेगूसराय पहुंच जा रहा था . एक बार मैं अपनी बीट की खबर जुटाने के लिए अमर उजाला दफ्तर से निकला और सीधा स्टेशऩ पहुंचा .जुगाड़ से वेटिंग लिस्ट वाला टिकट हासिल किया और बेगूसराय चला गया . करीब दो हफ्ते बाद लौटा था .ये मानकर लौटा था कि हमेशा की तरह प्रबाल जी डाटेंगे , समझाएंगे और फिर काम पर जुट जाने को कहेंगे लेकिन जब आईएऩएस बिल्डिंग में अमर उजाला के दफ्तर पहुंचा तो प्रबाल जी का चेहरा देखकर ही समझ गया कि इस बार बकरे की अम्मा खैर नहीं मना पाएगी .उन्होंने एक लाइन में फरमान सुनाया – ‘ अपना सामान उठाइए और मेरठ चले जाइए . आपका ट्रांसफर मेरठ कर दिया है मैंने ‘ . मैं प्रबाल जी की मंशा समझ नहीं पाया . मुझे लगा कि प्रबाल जी हमेशा की तरह अभी तो गुस्सा कर रहे हैं लेकिन कल तक पिघल जाएंगे. अगर नहीं भी पिघलेंगे तो इस बार जिस तरह से उन्होंने सबके सामने सामान उठाकर जाने को कहा है तो अब मैं रुक कैसे सकता हूं . सो मैंने भी अपना सामान अपने टेबल की दराज से निकाला और बिना कुछ कहे सुने सीधा घर चला गया . रास्ते भर इस बात की टेंशन जरुर थी कि अगर प्रबाल जी नहीं माने तो क्या होगा …मेरठ अमर उजाला का हेडक्वाटर था . मैं काम से आता – जाता रहता था . लेकिन इस बार सजा ए कालापानी की तरह हमें मेरठ भेजे जाने का फैसला किया जा चुका था .
आईएनएस बिल्डिंग से आशीर्वाद अपार्टमेंट वाले अपने घर पहुंचते – पहुंचते मैंने तय कर लिया था कि नौकरी रहे या न रहे , मेरठ तो नहीं ही जाऊंगा ( मेरठ में नौकरी करने) . अगले दिन अतुल सिन्हा ने बताया कि प्रबाल जी बहुत गुस्से में आपसे कह तो गए लेकिन रात में जाते वक्त कह रहे थे कि अजीत ने एक बार भी कहा नहीं कि आप मुझे क्यों भेज रहे हैं , सीधा सामान उठाया और हेंकड़ी के साथ चला गया. उनकी बातों से लगा कि अगर उस दिन मैं प्रबाल जी से अगर माफी – वाफी मांगकर उन्हें मना लेता तो वो मान जाते . लेकिन आज लगता है कि अच्छा किया कि सामान उठाकर चला गया .
मेरठ में अमर उजाला के मालिक अतुल महेश्वरी से मिलकर दिल्ली से तबादला नहीं करने का आग्रह किया लेकिन वो नहीं माने . कहते रहे कि तुमने बहुत लापरवाही की है इसलिए कुछ दिन के लिए यहां आ जाओ फिर दिल्ली भेज देंगे और मैं था कि तय कर चुका था कि एक दिन के लिए भी मेरठ में ज्वाइन नहीं करुंगा . उस दिन हरि जोशी , योगेन्द्र दुबे , दयाशंकर राय और नरेन्द्र निर्मल जैसे कई साथी और वरिष्ठ सहयोगी मेरठ आफिस में मिले . मेरी हालत पर सबने तरस खायी और समझाने की कोशिश की कि कुछ दिन के लिए मेरठ ज्वाइन कर लेने में कोई हर्ज नहीं है . मैंने किसी की नहीं सुनी . मुझे लगा कि प्रबाल जी ने जिस टोन में सामान उठाकर मेरठ जाने को कहा है , उस टोन के सामने सरेंडर तो नहीं करुंगा . मेरठ ज्वाइन करना मेरी हार होगी तो मैंने उसी दिन अमर उजाला छोड़ने का फैसला किया और दिल्ली लौट आया . दिल्ली में अतुल सिन्हा और अरविंद कुमार सिंह ने भी बहुत समझाया लेकिन मेरी जिद थी कि मैं मेरठ तो नहीं जाऊंगा . गीता बेगूसराय में मेरे घर पर थी . उससे फोन पर कई बार बात हुई. वो थोड़ी चिंतित जरुर हुई लेकिन उसने हौसला दिया कि चिंता मत करो . छोड़ दो नौकरी , देखा जाएगा . हम दोनों मिलकर कुछ न कुछ कर लेंगे…
मेरी किस्मत में कहीं और जाना लिखा था , सो अमर उजाला से मेरा रिश्ता टूट गया . मुझे याद है कि बेरोजगारी के उन दिनों में हमने इस उम्मीद में कई शाम मटन – चिकन की पार्टियां की कि जो होगा अच्छा ही होगा…हम आशीर्वाद अपार्टमेंट के डुप्लेक्स फ्लैट में रहते थे . नीचे वाले हिस्से में मैं और ऊपर वाले हिस्से में कुमार भवेश चंद्र ( इन दिनों अमर उजाला लखनऊ में हैं ) . भवेश उन दिनों दैनिक जागरण में डेस्क पर शायद सीनियर सब एडिटर थे . उस दौरान हमारे पास कुछ और हो न हो , हौसला बहुत था . न मकान के किश्त की चिंता थी , न कार के किश्त की , न ऊंचे ओहदे के खोने की , न ये लखटकिया नौकरी छूटेगी तो कहां गिरेंगे , इसकी चिंता थी …तभी तो बेधड़क होकर जीते थे …बिना बेड के बेडरुम में पंखे या कूलर की हवा में इतनी अच्छी नींद आती थी , पूछिए मत ……………
1990-94 के दौर में मैं दिल्ली के सबसे खाड़कू पत्रकार संगठन दिल्ली यूनियन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट का सक्रिय सदस्य हुआ करता था . आनंद स्वरुप वर्मा उसके अध्यक्ष थे और अनिल शुक्ल महासचिव ( एक बार शायद प्रदीप सौरभ भी महासचिव बने थे ) . कोई महीना ऐसा नही बीतता था जब हम किसी न किसी अखबार – पत्रिका के मैनेजमेंट के खिलाफ या फिर किसी राज्य में पत्रकारों पर हुई ज्यादती के खिलाफ धरना प्रदर्शन न करते हों . इन्कलाब जिंदावाद और फलां मैनेजमेंट हाय हाय के नारों वाले प्ले कार्ड हम आईएनएन बिल्डिंग के बाहर बैठकर लिखा और बनाया करते फिर तय समय पर आनंद स्वरूप वर्मा , अनिल शुक्ल , प्रदीप सौरभ , अरविंद गौड़ और अन्य वरिष्ठ साथियों के साथ आंदोलनकारी बनकर निकल पड़ते. हमने इन तीन सालों में कम से तीस चालीस बार धरने – प्रदर्शन किए होंगे . कई बार लाठियों से टुटते – टुटते बचे . नवभारत टाइम्स में एक बार एसपी सिंह पर आंच आय़ी थी , तब हमने मैनेजमेंट के खिलाफ जबरदस्त प्रदर्शऩ किया था .मित्र प्रकाशन की प्रमुख पत्रिका माया से जब उस जमाने के मशहूर रिपोर्टर पुनीत टंडन को निकाला गया था , तब हम लोगों ने गुरिल्लों की तरह माया के दफ्तर पर धावा बोला था और कई घंटे तक दफ्तर पर कब्जा करके मैनेजमेंट को मुआवजा देने को मजबूर कर दिया था . ये वो दौर था , जब पत्रकार संगठन की ताकत हुआ करती थी . लड़ाई, जीतते थे , हारते थे लेकिन लड़ते थे …. ( इस पर कभी बात होगी आगे विस्तार से )
(स्रोत – फेसबुक)