आशुतोष, कार्यकर्ता, आम आदमी पार्टी
कभी सोचा भी नहीं था कि राजनीति में जाऊंगा। जो नहीं सोचा था, हो गया। हैरान हूं। बचपन में राजनीति में मेरी रुचि नहीं थी। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पहुंचते ही राजनीति से मेरा परिचय हुआ। मुद्दों, नेताओं और पार्टियों को समझने का वक्त मिला। जैसै-जैसे समझता गया, लगा कि राजनीति मेरे बस की चीज नहीं है। पर जब परिवार की मर्जी के खिलाफ पत्रकारिता में आया, तो राजनीति को काफी करीब से देखने का मौका मिला। बड़ी-बड़ी घटनाओं का गवाह बनने लगा। राजनेताओं से जान-पहचान होने लगी। मन में बात और पुष्ट हो गई कि जिस तरह की राजनीति चल रही है, इससे मेरी दोस्ती नहीं हो सकती। पत्रकारिता में 20 साल गुजर गए। 2011 के अप्रैल महीने में अन्ना हजारे के दिल्ली में अनशन की बात सुनी। तब मैं आईबीएन-7 में संपादक था। अनशन के एक दिन पहले प्राइम टाइम में अनशन और भ्रष्टाचार पर डिबेट तय हुई। अरविंद केजरीवाल हमारे गेस्ट थे। हम एक-दूसरे को जानते तो थे, लेकिन कोई गहरी जान-पहचान नहीं थी। मैंने उनसे कहा कि भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम में मेरा सहयोग पक्का है। अरविंद ने धन्यवाद कहा। डिबेट हो गई और अगले दिन अन्ना का अनशन शुरू भी हो गया। अचानक उमड़ी भीड़ देखकर माथा ठनका। लगा, कहीं कुछ हो रहा है।
मुझे याद नहीं है कि अरविंद से बातचीत का सिलसिला कैसे शुरू हुआ? कभी वह मुझे फोन करते और कभी मैं उन्हें। कई मसलों पर चर्चा होती। कई मसलों पर हमारे मतभेद भी होते। इस बीच अगस्त आ गया। जन-लोकपाल बिल पर सरकार के रुख से नाराज अन्ना ने आमरण अनशन का ऐलान कर दिया। 16 अगस्त को रामलीला मैदान में बैठना तय हुआ। इस बीच अरविंद से जान-पहचान करीबी में तब्दील होने लगी। मैं इस बात से ‘कनविंस’ हो गया कि अरविंद ही इस पूरे आंदोलन के रचयिता हैं। अन्ना सिर्फ चेहरा हैं। आंदोलन से प्रभावित होकर मैंने किताब भी लिख मारी। लेकिन दिसंबर 2011 तक आंदोलन का दम फूलने लगा। सरकार को जन-लोकपाल नहीं मानना था और वह नहीं मानी। अरविंद को भी लगने लगा था कि आंदोलन की उम्र पूरी हो गई। नया कुछ सोचना पड़ेगा। इस पर अरविंद से काफी लंबी-लंबी बातचीत हुई। उनके दूसरे साथियों से भी चर्चा हुई। अंत में आम आदमी पार्टी बनाने का फैसला हुआ। इधर मेरी पत्रकारिता भी चल रही थी। निजी विचारों और पेशेवर जिम्मेदारियों के बीच संतुलन न टूटे, यह प्रयास भी बना रहा। पहले सोचता था कि राजनीति सिर्फ गंदी होती है। लेकिन आम आदमी पार्टी के चाल-चलन से लगने लगा कि ईमानदार और अच्छे लोग भी राजनीति कर सकते हैं।
देखते-देखते दिल्ली का चुनाव आ गया। चुनाव के दौरान मैंने महसूस किया कि आंदोलन से अलग भी आम आदमी पार्टी और अरविंद में लोगों की खासी दिलचस्पी है। लोग विकल्प की तलाश में हैं। 28 सीटें मिलते ही आम आदमी पार्टी चर्चा के केंद्र में आ गई और यह साबित हो गया कि आम जन में एक बार फिर आदर्शवाद की वापसी हो रही है। लोग स्थापित राजनीति से ऊब गए हैं। उन्हें नए नेता की तलाश है। नई पार्टी की तलाश है। दिल्ली चुनाव ने देश-विदेश में एक नई बहस को जन्म दे दिया। लोग यह भूल गए कि छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में बीजेपी भारी बहुमत से जीती है। बीजेपी और नरेंद्र मोदी, जो अब तक चर्चा के केंद्र में थे, वे छिटककर हाशिये पर आ गए। ये आम आदमी की सबसे बड़ी कामयाबी थी। राहुल गांधी को कहना पड़ा कि आप से सीखने की जरूरत है। इधर, मन में कुछ घट रहा था। टीवी से मन उचटने लगा था। प्रोफेशन ही छोड़ दूं, यह प्रश्न मन में काफी शिद्दत से उठने लगा था।
ऐसे में, मुख्यमंत्री बनने के बाद एक दिन अरविंद से मिलने गया। लंबी बातचीत के बाद अरविंद ने कहा, पार्टी क्यों नहीं ज्वॉइन कर लेते? मैं इस सवाल के लिए तैयार नहीं था। लेकिन मन में सवाल कहीं कौंध गया था। घर आया, किसी से चर्चा नहीं की। एक दिन अपने दो मित्रों के साथ बैठा गप्पें मार रहा था। उन दोनों ने एक सुर में कहा कि राजनीति में चले जाओ। सही मौका है। आम आदमी पार्टी में अच्छे लोग हैं। लीक से हटकर। यहां तुम्हारे लिए जगह बन सकती है। मैं सिर्फ हंसकर रह गया। यह फैसला काफी मुश्किल था। नौकरी छोड़ंगा, तो घर कैसे चलेगा? घर और कार की ईएमआई कैसे दी जाएगी? क्या सिर्फ मनीषा की बेहद मामूली तनख्वाह से घर चल पाएगा? बैंक में जमा पैसों से कुछ ही महीने घर चल सकता है। मैं एक मध्यम वर्गीय परिवार से हूं। पिताजी रिटायर हो चुके हैं। बिना सोचे-समझे राजनीति में कूदना, नौकरी छोड़ना एक बहुत ही कठिन फैसला है। पत्नी से चर्चा की। पिताजी और सास-ससुर से बात की। एकाध दोस्तों से भी पूछा। पत्नी ने जब कहा कि घर चल जाएगा, तुम चिंता मत करो, तो मन हल्का हुआ।
सवाल सिर्फ राजनीति का नहीं था। मैं काफी दिनों से लिख रहा था कि देश में बहुत सकारात्मक बदलाव हो रहे हैं। ये बदलाव देश को नई दिशा दे सकते हैं। राजनीति और समाज में जो कुछ गलत है, वह दूर हो सकता है। आम आदमी पार्टी इस बदलाव की वाहक बन रही है। जाने-अनजाने। संपादक के नाते मैं इस बात का कायल था कि इस बदलाव को ताकत देने की जरूरत है। उम्मीद की किरण को तेज करने की जरूरत है। मैं इस निष्कर्ष पर पहुंच चुका था कि दिल्ली में आम आदमी की जीत ने बदलाव को निर्णायक मोड़ पर पहुंचा दिया है। यहां से चीजें या तो बेहतरी की तरफ जाएंगी या फिर भटकाव की ओर।
मुझे लगा कि इस निर्णायक मोड़ पर, आम आदमी की इस नई क्रांति को अगर और मजबूत करना है, तो सड़क पर आना पड़ेगा, स्टूडियो में बैठने से काम नहीं चलेगा। अरविंद और उनकी टीम के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलना पड़ेगा। नौकरी तो और भी की जा सकती है, लेकिन इतिहास ऐसे मौके कभी-कभी देता है। इस सोच ने मुझे काफी संबल दिया। फैसला लेना आसान हो गया। अरविंद ने फिर बुलाया। मैंने हां कह दी। यह भी कहा कि सांसद और विधायक बनना मेरी प्राथमिकता नहीं होगी। सदस्य बनते ही अमेठी के दौरे पर गया। ऋषिकेश गया। कार्यकर्ताओं से रूबरू हुआ। लगा, राजनीति जितनी देखी और सुनी, उतनी गंदी भी नहीं है। राजनीति अच्छी भी हो सकती है और इसे बेहतर करने में मेरी छोटी-सी भूमिका भी हो सकती है, इस भरोसे ने मन हल्का किया है। पत्रकारिता पीछे छूट गई।
(हिन्दुस्तान से साभार)