ऋतुराज
“आप” का उदय और तीसरे मोर्चे का …… ?
आप ही आप। इधर भी आप, उधर भी आप। यहाँ भी आप, वहाँ भी आप। जहाँ देखो वहाँ आप। कुछ इसी से मिलता जुलता स्वर कभी मैंने किसी सर्कस में, कभी सड़क किनारे तमाशा दिखाते मदारी से तो कभी किसी कवि गोष्ठी में सुना था। आजकर इसी किस्म की भाषा दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र मीडिया भी बोल रहा है। आईये पर्दा उठाते हैं और सीधे स्टेज पर नजर टिकाते हैं।
अगर आप देश कि मीडिया कि भाषा पर गौर करे तो 8 दिसंबर के पहले और बाद की भाषा में एक गजब का बदलाव है। यह जमीनी है या हवाई यह तो वक़्त तय करेगा। जो लड़ाई कभी मोदी बनाम राहुल हुआ करती थी आज वह अचानक केजरीवाल बनाम मोदी हो गयी है। राहुल तो फ्रेम से ही गायब हैं। अबतक देश सिमट कर चुनावीं फैसले के बाद दिल्ली मार्च करता था। पहली बार दिल्ली देश को परिभाषित कर रहा है। या फिर यूँ कहें कि शहर के चौराहे से गाँव के चौपाल की नब्ज मीडिया टटोलने में लगा है।
देश आज भले मंगहाई से त्रस्त है, अर्थवयवस्था बैशाखी पर टिकी है, भ्रष्टाचार से लोग आग बबूला हैं। जो आग कांग्रेस और यूपीए सरकार ने लगाई है क्या उसे सिर्फ “आप” और भाजपा बुझायेगी? या कुछ पानी सपा, बसपा, जदयू, बीजेड़ी, एआईडीएमके जैसे क्षेत्रीय दलों के ‘बाल्टी’ में भी बचा है। यह तो मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि ये दल अगर “आप” से ज्यादा नहीं तो कम भी नहीं”, वाले भूमिका में नजर आयंगें। देश का इतिहास भी कुछ इसी ओर इशारा करता है। 1990 के बाद न तो कोई सरकार बिना गठबंधन के बनी है और न ही निकट भविष्य़ मैं इसकी कोई संभावना दिखती है।
तो क्या मीडिया बेगानी शादी में “अब्दुल्ला” का किरदार जी रहा है। या सारा खेल टीआरपी का है। इसमे कोई दो राय नहीं कि केजरीवाल शहरी लोगों के बीच उम्मीद बनकर उभरे हैं और वो उन्हे देखना और सुनना चाहते हैं। तो क्या देश का मीडिया इसी को “जी” रहा है और अपनी रोटी सेक रहा है। या फिर पूरी कवायत राहुल गांधी की गिरती हुई लोकप्रियता को स्थिर करने के लिए की जा रही है। क्योकि जो दिखता है वही बिकता है। न दिखोगे न बिकोगे। जहाँ तक रही ‘भाव’ की बात तो वह वक़्त पर जनता तय करेगी।