सुमित ठाकुर
दफ्तर में काम कर रहा हूं, और मेरे ठीक सामने चल रहे टीवी में एक न्यूज अपने एक कार्यक्रम की सालगिरह के आयोजन की तस्वीरें दिखा रहा है, पूरे आयोजन का टीवी के किसी कार्यक्रम का ‘सबसे बड़ा जश्न’ बताया जा रहा है, राष्ट्रपति, पीएम, कई राज्यों के सीएम,विपक्ष के नेता,बॉलीवुड के हीरो-हीरोइन, संगीतकार, गायक,शायर,पत्रकार, बिजनेसमैन सब उस 21 साल पुराने अद्भूत कार्यक्रम के गुणगान में लगे हैं,बतौर मेहमान, मेजबान की एंकरिंग का महिला मंडन किया जा रहा है..ऐसा लग रहा है जैसे पत्रकारिता जगत में अब तक के सबसे महान पत्रकार ( जो हो सकते हैं ) वो ही हैं।
सवाल यहां महिमामंडन से कुछ ज्यादा का है, क्या ये जश्न उस ‘सेल्फी फंक्शन’ का अपडेटेड वर्जन नहीं है, बिलकुल है, साथ ही इस जश्न के जरिए सत्ता-मीडिया के उस गठजोड़ का सार्वजनिक प्रदर्शन भी किया गया है,जिसे अब सामाजिक,व्यवसायिक स्वीकृति मिल चुकी है,क्या ये सही नहीं होता कि इस कथित महान टीवी शो सालगिरह में पुराने एपिसोड में किए दावों,वादों और बयानों पर जवाब मांगा जाता, क्या सही नहीं होता कि सालगिरह के मौके पर नेताओं से महान कार्यक्रम में किए गए वादों की जमीनी हकीकत दिखाई जाती, क्या ये बेहतर नहीं होता कि इस मौके पर सड़क पर चल रही जनता को एक ऑडिटोरिम में बुलाकर उनकी दिक्कतें फिर से जानी जाती..
पर ये नहीं हो पाया, हो सकता भी नहीं है, क्योंकि अब पत्रकारिता और पीआर कॉकटेल पीना मजबूरी है, क्रोनी जनर्लिज्म को ही पत्रकारिता मान लिया गया है, ये भी ठीक है, लेकिन एक एंकर को आत्महत्या पर मजबूर होना पड़ा था, और एक महान पत्रकार का गुणगान करते नेता उस वक्त खामोश थे, क्योंकि मसला पत्रकारिता और अभिव्यक्ति का नहीं, बल्कि एक पीत गठजोड़ का था, क्या टीवी पर जश्न की तस्वीरें देख रही जनता ये समझ रही है,उसे समझना चाहिए