अनियंत्रित निजी पूँजीकरण का पहला और निर्मम हमला
रमेश यादव
अगस्त 17,2013. CNN,IBN अौर IBN-7 ने क़रीब 300 मीडिया कर्मियों को निकाल बाहर किया है. इतने बड़े पैमाने पर छटनी हुई और कहीं चीख़ तक सुनाई नहीं दी. चारों तरफ़ मरघट सरीखा सन्नाटा पसरा हुआ है. अभिव्यक्ति की आज़ादी के लड़ाके कहाँ और किस मांद में अन्डरग्राउंड हैं,फ़िलहाल कोई ख़बर नहीं है. हमारे हिसाब से अनियंत्रित निजी पूँजीकरण का पहला और निर्मम हमला है… निरंकुश पूँजी,बेलगाम मालिकों अौर आत्मसमर्पण करने वाले मलाईदार मैनेजरों के ख़िलाफ़ सभी 300 पत्रकारों के पक्ष में हमारी अभिव्यक्ति…..!
आज वो 300 लोग ख़बर नहीं बन पाये जो कल तक ख़बर बनाते रहे … कहाँ हैं लोकतंत्र के रखवाले और लड़ाके कहाँ है सरकार और उसके नमाइंदे कहाँ हैं न्याय के पैरोकार कहाँ हैं मानवाधिकार के स्वघोषित फ़रिश्ते कहाँ अभिव्यक्ति की आज़ादी के सुकुमार लड़ाके कहाँ हैं चौथे खम्भे के शिल्पी कहाँ हैं वो जो जनसरोकारों का मशाल जलाये फिरे हैं कहाँ हैं वो जो सिद्धांतों का लबादा ओढ़े बैठे हैं कहाँ हैं वो जो लोकतंत्र की संजीवनी लिए टीवी स्क्रीन पर सुबह-शाम चमकते हैं कहाँ हैं मिशन,मूल्य,मानवीयता,मार्मिकता के महान मदाड़ी कहाँ हैं जनमंच के वो कलाकार कहाँ प्राइवेट पूँजी के ख़िलाफ़ शंखनाद करने वाले कहाँ हैं क़लम की मूठ तोड़ने वाले मालिकों और उनके प्यादगीरों ने छीन ली सैकड़ों का रोज़गार अौर परिवारों की ख़ुशियाँ कौन है हमलावर और कौंन हैं तमाशबीन कहाँ हैं पत्रकारिता-पत्रकारों और पवित्रता का पालक कहाँ हैं वो जिन्हें नाज़ है हिन्द पर …. ….आत्मबोध….
सबसे ख़तरनाक होता है/मुर्दा शांति से भर जाना न /होना तड़प का सब सहन कर जाना/
सबसे ख़तरनाक होता है /हमारे सपनों का मर जाना -पाश
पाश की यह पंक्ति निकाले गये 300 मीडिया कर्मियों पर सटीक बैठती है…
जिस लड़ाई को 300 लोग मिलकर नहीं लड़ सकते. एक दम ख़ामोश हो जाते हैं,इसका मतलब यह अपने समय का सबसे ख़ौफ़नाक मंज़र है…
(साभार – फेसबुक)
यह पत्रकारिता के पेशे की त्रासदी है साहब। कम से कम अपने देश के संदर्भ में यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि पत्रकार समाज का सबसे शोषित व दमित पेशेवर है। विंडबना यह है कि जो दूसरे पीडि़तों के हक की आवाज उठाता है, और लड़ाई लड़ता है, वह अपनी लड़ाई कभी नहीं लड़ पाता।
तारकेश कुमार ओझा, खड़गपुर(पश्चिम बंगाल)
पार्टीवादी प्रवृत्ति के कारण आम-आदमी के नजरों से गिर चुके मीडिया कर्मियों की हालत आज बेहद खराब है…अक्सर सबके लिए लड़ने वाले आज अपने साथ हुए अन्याय के लिए एक शब्द नहीं बोल पा रहे हैं…इसके पीछे क्या करण हो सकते हैं…?
पूँजीवादी व्यवस्था में व्यक्ति एक मशीन के अतिरिक्त कुछ नहीं रह गया है…
वैश्विक विस्तार की वजह से उनके अंदर जोश के स्थान पर एक आदेश ने लिया है जिसे अक्सर वह व्यक्ति देता है जो सत्ता के सबसे ऊँचे पद पर बैठा होता है…बहुतेरे अंगूठे छाप हैं, मगर हुक्म चलाने में माहिर..
उनके अँगुलियों पर नाचते-नाचते पत्रकार यह भूल बैठे हैं कि उनकी कलम की ताकत सबसे बड़ी ताकत है…अफ़सोस कुंद होती कलम में वो स्याही ही नहीं रही जिसमें जूनून की चिंगारी भरी होती थी…आज तो केवाल सोर्स/चापलूसी और पैरवी का रंग भरा पड़ा है…ऐसे में इन खबरों का मर जाना आश्चर्य पैदा नहीं करता बल्कि संवेदना के झूठे भाव ही भर पाता है…कुछ अपवादों को छोड़कर सबकी हालत यही है…