-संजय द्विवेदी
सुधीर भाई भिगो देने वाली आत्मीयता के धनी कवि-पत्रकार हैं। अपने फन के माहिर, एक बेहद जीवंत भाषा के धनी, कवि और कविह्दय दोनों। वे ज्यादा बड़े कवि हैं या ज्यादा बड़े पत्रकार, यह तय करने का अधिकारी मैं नहीं हूं, किंतु इतना तय है कि वे एक संवेदनशील मनुष्य हैं, अपने परिवेश से गहरे जुड़े हुए और उतनी ही गहराई से अपनों से जुड़े हुए। जाहिर तौर पर यही एक गुण (संवेदनशीलता) एक अच्छा कवि और पत्रकार दोनों गढ़ सकता है। मुझे याद है ‘माया’ के वे उजले दिन जब वह हिंदी इलाके की वह सबसे ज्यादा बिकने वाली पत्रिका हुआ करती थी। सुधीर जी की लिखी रिपोर्ट्स पढ़कर हमारी पूरी पीढ़ी ने राजनीतिक रिपोर्टिंग के मायने समझे। वे मध्यप्रदेश जैसे राजनीतिक रूप से कम रोमांचक और दो-ध्रुवीय राजनीति में रहने वाले राज्य से भी जो खबरें लिखते थे, उससे राज्य के राजनीतिक तापमान का पता चलता था। उनकी राजनीति को समझने की दृष्टि विरल है। वे अपनी भाषा से एक दृश्य रचते हैं जो सामान्य पत्रकारों के लिए असंभव ही है। उनका लेखन अपने समय से आगे का लेखन है। उनकी यायावरी, लगातार अध्ययन ने उनके लेखन को असाधारण बना दिया है। उनकी कविताएं मैंने बहुत नहीं पढ़ीं क्योंकि मैं साहित्य का सजग पाठक नहीं हूं किंतु मैं उनके गद्य का दीवाना हूं। आज वे कहीं छपे हों, उन्हें पढ़ने का लोभ छोड़ नहीं पाता।
यकीन से भरा कविः
एक अकेला आदमी कविता, पत्रकारिता, अनुवाद, संपादन और इतिहास-लेखन में एक साथ इतना सक्रिय कैसे हो सकता है। लेकिन वे हैं और हर जगह पूर्णांक के साथ। ऐसे आदमी के साथ जो दुविधा है उससे भी वे दो-चार होते हैं। एक बार सुधीर भाई ने अपने इस दर्द को व्यक्त करते हुए कहा था कि “संजय, पत्रकार मुझे पत्रकार नहीं मानते और साहित्यकार मुझे साहित्यकार नहीं मानते।” मैंने सुधीर जी से कहा था “सर आप पत्रकार या साहित्यकार नहीं है, जीनियस हैं।” उनके कविता संग्रहों के नाम देखें तो वे आपको चौंका देगें, वे कुछ इस प्रकार हैं- समरकंद में बाबर, बहुत दिनों के बाद, काल को नहीं पता, रात जब चंद्रमा बजाता है बांसुरी, किरच-किरच यकीन। कविताओं से मेरी दूरी को भांपकर भी वे मुझे अपनी कविता की किताब देते हैं। एक बार एक ऐसी ही किताब पर उन्होंने लिखकर दिया-
“यकीन मानो
एक दिन पढ़ेंगें
लोग
कविता की
नयी किताब ”
सच, मुझे लगा कि यह एक दिग्गज पत्रकार की हमारे जैसे अपढ़ पत्रकारों को सलाह थी कि भाई शब्दों से भी रिश्ता रखो। सुधीर जी की कविताएं सच में उम्मीद और प्रेम की कविताएं हैं। उनके मन में जो आद्रता है वही कविता में फैली है। उन्होंने समरकंद में बाबर में जिस तरह बाबर को याद किया है, वह पढऩा अद्भुत है। माटी और उसकी महक कैसे दूर तक और देर तक व्यक्ति की स्मृतियों का हिस्सा होती है, यह कविता संग्रह इसकी गवाही देता है। बाबर के सीने, होंठों, आंखों सबमें समरकंद था, पर बाबर समरकंद में नहीं था। यह कल्पना भी किसी साधारण कवि की हो नहीं सकती। वे समय से आगे और समय से पार संवाद करने वाले कवि हैं। उनकी कविताएं अपने परिवेश और दोस्तों तक भी जाती हैं। दोस्तों को वे अपनी कविताओं में याद करते हैं और सही मायने में अपने बीते हुए समय का पुर्नपाठ करते हैं। उनका कवि इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है कि वह सिर्फ कहने के लिए नहीं कहता। यहां कविता आत्म का विस्तार नहीं है बल्कि वह समय और उसकी चुनौतियों से एकात्म होकर पूर्णता प्राप्त कर रही है। उनकी कविता टुकड़ों में नहीं है, एक थीम को लेकर चलती है। चार पंक्तियों में कविता करके भी वे अपना पूरा पाठ रचते हैं। उनकी कविता में प्रेम की अतिरिक्त जगह है। यही प्रेम हमारे समय में सिकुड़ता दिखता है तो उनकी कविता में ज्यादा जगह घेर रहा है।
माटी की महकः
सुधीर सक्सेना कहां के हैं, कहां से आए, तो आपको साफ उत्तर शायद न मिलें। हम उन्हें भोपाल और दिल्ली में एक साथ रहता हुआ देखते हैं। रायपुर-बिलासपुर उनकी सांसों में बसता है तो लखनऊ से उन्होंने पढ़ाई लिखाई कर अपनी यात्रा प्रारंभ की। लखनऊ में जन्मे और पले-बढ़े इस आदमी ने कैसे छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश को अपना बना लिया इसे जानना भी रोचक है। उनके दोस्त तो पूरे ग्लोब पर बसते हैं पर उनका दिल मुझसे कोई पूछे तो छत्तीसगढ़ में बसता और रमता है। यह सिर्फ संयोग है कि मैं भी लखनऊ से अपनी पढ़ाई कर भोपाल आया और रायपुर और बिलासपुर में मुझे भी रमने का अवसर मिला। जब मैं बिलासपुर-रायपुर पहुंचा तो सुधीर जी छत्तीसगढ़ छोड़ चुके थे। लेकिन हवाओं में उनकी महक बाकी थी। उनके दोस्तों में मप्र सरकार में मंत्री रहे स्व.बीआर यादव से लेकर पत्रकार रमेश नैयर, साहित्यकार तेजिंदर तक शामिल थे। साहित्य, राजनीति और पत्रकारिता तीनों के शिखर पुरूषों तक सुधीर की अंतरंगता जाहिर है। वे यारों के यार तो हैं कई मायने में खानाबदोश भी हैं। मुझे लगता है कि उन्होंने भाभी-बच्चों के लिए तो घर बनाया और सुविधाएं जुटायीं पर खुद वे यायावर और फकीर ही हैं। जिन्हें कोई जगह बांध नहीं सकती। अपने परिवार पर जान छिड़कने वाली यह शख्सियत घर में होकर भी एक सार्वजनिक निधि है। इसलिए मैंने कहा कि उन्हें आपको हर जगह पूर्णांक देना होगा। उनकी सदाशयता इतनी कि आप उन्हें काम का आदमी मानें न मानें अगर आप उनके कवरेज एरिया में एक बार आ गए तो उनके फोन आपका पीछा करते हैं। जिंदगी की रोजाना की जरूरतों को पूरा करने की जद्दोजेहद के बाद भी उनमें एक स्वाभिमानी मनुष्य है जो निरंतर चलता है और रोज नई मंजिलें छूता है। अथक परिश्रम, अथक यात्राएं और अथक अध्ययन। आखिर सुधीर भाई चाहते क्या हैं? उनके दोस्त उनसे मुंह मोड़ लें पर वे हर दिन नए दोस्त बनाने की यात्रा पर हैं। बिना थके, बिना रूके। सही मायने में उनमें कोलंबस की आत्मा प्रवेश कर गयी है। कई देशों को नापते, कई शहरों को नापते, तमाम गांवों को नापते वे थकते नहीं है। वे आज भी एक पाक्षिक पत्रिका ‘दुनिया इन दिनों’ के नियमित संपादन-प्रकाशन के बीच भी अपनी यायावरी के लिए समय निकाल ही लेते हैं। उनकी यही जिजीविषा तमाम लोगों को हतप्रभ करती है।
स्मृतियों का व्यापक संसारः
आजकल वे भोपाल में कम होते हैं। होंगे तो मुझे बुलाकर मिलेंगें जरूर। आत्मीयता से भीगा उनका संवाद और निरंतर लिखने के लिए कहना वे नहीं भूलते। वे ही हैं जो कहते हैं लिखो, लिखो और लिखो। उनका सामना करने से संकोच होता है। उनकी सक्रियता मन में अपराधबोध भरती है। उनका बहुपठित होना, एक आईने की तरह सामने आता है। अपने दोस्तों,परिवेश और सूखते रिश्तों के बीच वे एक जीवंत उपस्थिति हैं। वे इस निरंतर नकली हो रही दुनिया में खड़े एक असली आदमी की तरह हैं। वे अपने अनुभव साझा करते हैं, सावधानियां भी बताते हैं पर खुद सब कुछ मन की करते हैं। उनके पास बैठना एक ऐसे वृक्ष की छांव में बैठना है जहां सुरक्षा है, ढेर सी आक्सीजन है, ढेर सा प्यार है और स्मृतियों का व्यापक संसार है। सुधीर जी ने एक लंबी और सार्थक पारी खेली है। उनका पहला दौर बहुतों के जेहन में है। उम्मीद है कि वे अभी एक बार और अपने ‘जीनियस’ होने का यकीन कराएंगें। उनसे कुछ खास रचने का यकीन हमें है, वे तो कभी नाउम्मीद होते ही नहीं। उनके सफल,सार्थक और दीर्घजीवन की कामनाएं।
लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष तथा त्रैमासिक पत्रिका ‘मीडिया विमर्श’ के कार्यकारी संपादक हैं।