दीपक शर्मा, पत्रकार, आजतक
समरथ को नही दोष गोसाईं ….जी नही रामायण बदल गयी है
आजतक में मुझे तकरीबन १२ साल काम करते हो गये हैं. इन १२ सालों में मैंने आजतक में काम करने वाली किसी महिला सहयोगी के साथ कभी चाय तक नही पी है.ये इत्तेफाक नही अपनी मजबूरी का एक उसूल रहा है. इस उसूल का मतलब ये नही कि मै दफ्तर में महिलाओं से बात ही नही करता …बिलकुल करता हूँ पर पूरे सम्मान के साथ …शायद इसीलिए इन १२ सालों में किसी महिला सहियोगी के साथ झगडा तो दूर तल्ख़ लव्जों में भी बात नही हुई.
मैं कोई धीरेन्द्र ब्रह्मचारी नही हूँ. लेकिन टीवी इंडस्ट्री और दिल्ली के हाल देखकर मैंने दफ्तर में एक अनुशासन बनाने की कोशिश की. पर इस अनुशासन का एक कारण मुझे और भी लगता है. आजतक में मै कभी अपने एडिटोरियल बॉस के बेहद नजदीक नही रहा और हमेशा एक फिसलते हुए विकेट पर मैंने बैटिंग की. शायद इसी दबाव के चलते मेने दफ्तर में अपने काम से ज्यादा और न कुछ सोचा न देखा. शायद इसी वजह से मे दफ्तर में किसी महिला सहयोगी से न ज्यादा बात कर सका न lets have a cup of tea कह पाया.
मित्रों दफ्तर में जब आप सत्ता के करीब होते हैं या बेहद मज़बूत स्थिति में होते हैं तभी आपका मिजाज़ बदलता है और रंगत भी. कुछ लोग रगों में बहने वाले लहू से अय्याश होते है और कुछ लोग सत्ता के नशे में हो जाते हैं. तभी महिला सहयोगी आपको आकर्षित करती हैं. तभी आप फ़्लर्ट शुरू करते है. तभी आप लूज़ कमेन्ट करने का दुसाहस कर पाते है. और अगर आप दफ्तर के मालिक हैं तो कहना ही क्या. शायद तब ईमान के साथ आपकी नज़रें भी धोखा खा जाती है. तभी किसी तेजपाल की तरह आप ये भी भूल जाते है की कौन आपकी बेटी के बराबर है और कौन बेटी की उम्र से भी छोटी है.
मित्रों असाइनमेंट के दबाव में पिसे श्रमजीवी की आँखें कभी दफ्तर में नीली नही होती. काम करने वाले श्रमजीवी कभी कामशास्त्र में उलझे नही मिलेंगे. अय्याशी शुरू ही ऐशो आराम से होती है. बड़े संस्थानों में लड़कियां वही छेड़ते हैं जो प्रबंधन के ब्लू आइड बॉय होते हैं. पर मे सलाम करता हूँ उन बहनों को जो अब इस ब्लू आइड अय्याशी को बेनकाब कर रही हैं. मेरा सलाम मुंबई की तहेलका की पूर्व रिपोर्टर को…मेरा सलाम कोलकाता की ला इंटर्न को…आप भी इन्हें सलाम करिए …ये देश की नई निर्भया है. इन्होने तुलसीदास की कथनी को बदल दिया है. ……समरथ को ही दोष गोसाईं .
(स्रोत- एफबी)