बड़़ा अजीब समय है ये कि जब आप अपनी वाजिब मजदूरी के मोहताज हों, उस वक्त आपके पास मालिकाने के प्रस्ताव आते हैं। मसलन, ‘शुक्रवार’ पत्रिका बंद हो गई। सब जानते थे कि चुनाव के बाद कभी भी बंद हो सकती है। मार्च से मई के बीच तीन महीनों के दौरान की गई आठ स्टोरी और साक्षात्कार का मेरा पैसा उस पर बकाया है। और लोगों का भी होगा। संपादकीय कर्मियों का वेतन भी बकाया है। कुछ हज़ार रुपयों के लिए मई से लेकर आज सुबह तक मैं अनगिनत मेल, फोन, रिमाइंडर और एसएमएस अधिकारियों को भेज चुका। इस पर तो सिर्फ आश्वासन मिला, लेकिन मजाक देखिए कि पर्ल ग्रुप की तीनों पत्रिकाओं के टाइटिल खरीदने का प्रस्ताव किसी और माध्यम से मेरे पास आ गया। अब बैठ कर बाल नोच रहा हूं।
ऐसे ही महात्मा गांधी हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के महिला अध्ययन विभाग ने 2012 के मार्च में कुछ अनुवाद करवाया था। यह भी मामूली रकम है, लेकिन आज तक नहीं मिली। पांच फ्रीलांसरों का पैसा फंसा है इस मामले में। वहां का निज़ाम बदल गया, अब मजदूरी मांगने पर कहा जा रहा है कि नेट निकाल लो तो वहां नौकरी लगवा देंगे। एक और सज्जन हैं। लगातार मुझसे अनुवाद करवाते रहे अपनी पत्रिका के लिए। एक दिन मैंने पैसा मांगा, तो बोले- क्या दो-चार हज़ार रुपये के लिए अपना वज़न कम करते हो, रुको, मैं तुम्हारे लिए यहां अच्छे पद की बात करता हूं। मेरे लिए पिछले एक साल से बहुत लोग बहुत जगह बात कर रहे हैं। उनकी सदिच्छा पर मुझे कोई शक़ नहीं, लेकिन बात से बात आगे नहीं बढ़ पा रही। इस नाम पर मेरी मजदूरी अलग से डकारे जा रहे हैं।
इनसे तो बहुत बेहतर ‘जनसत्ता’ है जो एक पन्ने का 1000 रुपया ही सही, मानदेय देता तो है। मई की आवरण कथा का चेक कल ही आया। दिल खुश हो गया। दूसरी ओर अपने वे मित्र हैं जो प्रोफेशनल सहयोग के नाम पर मेरा खून चूस लिए, एक पैसा अंटी से ढीला नहीं किए और आज भी बेशर्मी से अपने आधिकारिक कामों में मदद मांग लेते हैं। सबसे मज़ेदार बात यह है कि सब के सब कथित प्रगतिशील हैं और शोषण के घोर विरोधी हैं। क्या इलाज किया जाए इन लोगों का? मूड बहुत खराब है।
(स्रोत-एफबी)