नदीम अख्तर, पत्रकार
हां, तो पत्रकारों का राष्ट्रवाद क्या है. अगर भारतीय संदर्भ में इसे समझना हो तो पाकिस्तान से क्रिकेट मैच से लेकर किसी भी तरह की टक्कर में प्रिंट और टेलिविजन की कवरेज देखिए. और यही टक्कर जब चीन से ओलंपिक खेलों या बॉर्डर पर हो, तो उसकी भी कवरेज देखिए. आपको समझ आ जाएगा.
अगर संघ और बीजेपी के नजरिए (जिसमें संघ की घुट्टी पीकर पत्रकारिता का चोला ओढ़े पेशेवर भी शामिल हैं) से देखें, तो पाक प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की बात सुन रही बरखा दत्त को नरेंद्र मोदी से मिली नसीहत से समझिए. या यूं कहें कि धमकी से समझिए. राष्ट्रवाद का मतलब शायद और स्पष्ट हो जाए.
और अगर पूरे पॉलिटिकल सिस्टम तथा हर जगह हो रही बुरी चीजों के संदर्भ में समझें तो पत्रकारों के राष्ट्रवाद का एक अलग ही मतलब आपको दिखेगा.
दरअसल पत्रकारों का राष्ट्रवाद कोई भांग या ठंडई नहीं है कि बनाया, पिलाया और मजा आ गया. इसके कई स्तर हैं, जहां से गुजरता हुआ ये राष्ट्रवाद की सूली तक पहुंचता हैं, टंगने के लिए. उससे पहले भाई-भतीजावाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद, जातिवाद, प्रांतवाद, संस्थानवाद और नमकहलालवाद जैसे कई उपकरण हैं, जो एक पत्रकार को राष्ट्रवाद की परम अनुभूति कराने तक में शामिल रहते हैं. इसका सामान्यीकरण नहीं हो सकता.
मुझे सिर्फ एक बात का जवाब चाहिए. क्या भारत के किसी भी एक ऐसे पत्रकार का नाम आप बता सकते हैं, जो राष्ट्रवाद की सीमा से निकलकर अपने पेशे से इंसाफ करते हुए ग्लोबल सिटिजन बन सका है. जिसके लिए सही और सटीक सूचना पहुंचाना ही एकमात्र ‘वाद’ है और जो पूरी दुनिया को वसुधैव कुटंबकम की नजर से देखता हो. अपनी खबर पहुंचाने की कला से उसे दुनिया के कई देशों में निष्पक्ष पहचान मिली हो और वह सही मायनों में एक Global Journalist हो.
अगर ऐसा कोई नाम भारत जैसे विकासशील देश में आज आपको दिखे, तो मुझे भी बताइएगा. और अगर नहीं, तो पत्रकारिता का राष्ट्रवाद दरअसल एक भुलावा है, छलावा है. जहां ज्यादातर पत्रकार अपनी सेटिंग-गेटिंग में लगे हों, वहां राष्ट्र की फिक्र किसे है और ‘वाद’ पर विवाद क्या करना!!!!
(साभार- एफबी)