विभांशु दिव्याल
हिंदी और हिंदी पत्रकारिता के गढ़ बनारस में पत्रकारिता घुटनों के बल बैठ चुकी है। बंगाल में ‘हिक्की गजट’ के बाद बनारस में संस्कृत भाषा में समाचार पत्र छपने शुरू हुए। बंगाल और बनारस की पत्रकारिता ने आज़ादी की लड़ाई में बंदूक से ज्यादा गोलियां कलम से चलाई थीं। समाचार पत्रों की आवाज़ को दबाने के लिए अंग्रेजों ने ‘वर्नाकुलर एक्ट’ बनाया।
लेकिन अब बनारस की पत्रकारिता महज ‘चंपूगिरी’ और ‘मुखबिरी’ तक सीमित हो गई है। आज़ादी की लड़ाई में अंग्रेजों की लाठी और गोली खाने वाले ‘स्वर्गीय’ पत्रकारों के ‘वंशज’ पुलिस की एक नोटिस पर दंडवत हो जा रहे हैं। नई नई बनी ‘इलेक्ट्रॉनिक मीडिया एसोसिएशन’ ने बीएचयू की खबरों का कवरेज नहीं करना का फैसला किया है लेकिन एक प्रेस कांफ्रेंस के दौरान एसएसपी के यहां से ‘दुत्कार’ कर भगाए जाने के बाद भी कप्तान के ‘सत्कार’ में लगी हुई है। इस एसोसिएशन के कुछ पुलिसिया ‘मुखबीर’ गाहे बगाहे ‘बाईट’ लेने के बहाने कप्तान साहब के ‘हमराही’ की भूमिका बदस्तूर निभा रहे हैं। ‘लिपलिपास्तव’ मिजाज वाले ये पत्रकार, पत्रकारिता के ऊपर ‘बोझा’ बन चुके हैं जिन्होंने अपने ‘पित्तरों’ के श्राद्ध के लिए पत्रकारिता की ‘दुकान’ खोल रखी है।
साल भर कुएं के मेढक की तरह पत्रकारिता के ‘भौकाल’ से बनाए गए अपने ‘महलों’ में रहने वाले ये पत्रकार फाइव स्टार होटलों में होने वाली प्रेस कांफ्रेंस में खूब फुदकते हैं। सबसे आगे वाली सीटों को सुशोभित कर ‘गंभीर’ पत्रकार की छवि को अपनी ‘जेब’ और ‘शरीर’ की तरह कायमचूर्ण खा खाकर ‘भारी’ बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। दलाली के माध्यम से ‘बिजनेस टाइकून’ बन चुके ये पत्रकार ‘व्यवसायिक’ सरोकारों वाली पत्रकारिता के पुरोधा बन चुके हैं जिनके बिजनेस में मंदी का दौर कभी नहीं आता।
‘दिवंगत’ होने की कगार पर खड़े कुछ पत्रकारों की ‘पगार’ पराड़कर भवन से ही मिलती है। हिंदी पत्रकारिता के जनक माने जाने वाले पराड़कर जी के नाम पर बनाए गए ‘पराड़कर कांफ्रेंस हाल’ में कुछ पत्रकार अल सुबह ही आ बैठते हैं। ‘गैर सरकारी’ आंकड़ों पर भरोसा किया जाय तो पत्रकारिता के अपने बिजनेस के दौरान एक एक पत्रकार पराड़कर भवन में बैठ कई ‘ट्रक’ समोसों का रसास्वादन कर चुका है।
खड़ी बोली साहित्य के जनक भारतेंदु जी की जन्मभूमि में हिंदी का हाल भी बेहाल है। हालिया दिनों में ‘पोर्न’ पत्रकारिता के लिए कुख्यात हुए समाचार पत्र के न्यूज़ पोर्टल के लिए बनारस में कार्यरत संवाददाता की हिंदी में काबिलियत ऑनलाइन देखी जा सकती है। कहने को तो मीडिया में कार्यरत हैं लेकिन इनके लिए मीडिया का तत्सम रूप ‘मिडिया’ होता है( पोर्टल पर लगी राजा भैया वाली खबर के अनुसार), बंगाल से इम्पोर्ट होकर आये ये ‘बाबू मोशाय’ अक्सर भारतेंदु जी की हिंदी पर सवालिया निशान लगाते रहते हैं।
उत्तर प्रदेश में तीसरे नंबर पर पहुंच चुके क्षेत्रीय न्यूज़ चैनल के संवाददाता हिंदी के साथ साथ अंग्रेजी की भी टांग तोड़ते रहते हैं। इन्हें हिंदी लिखने नहीं आई तो ‘वरुणा’ की कसम खाकर इन्होने ‘ताउम्र’ अंग्रेजी को ‘प्लस माइनस’ करते रहने की कसम खा ली।
यारों मुझे मुआफ़ रखो, मैं नशे में हूं
(एफबी से साभार)