प्रेमचंद और रेणु के साथ-साथ ओम प्रकाश वाल्मीकि भी हिंदी साहित्य के सुपरस्टार

दिलीप मंडल, प्रबंध संपादक, इंडिया टुडे

इक्कीसवी सदी में हिंदी साहित्य के सबसे सशक्त हस्ताक्षर और एक नया विमर्श खड़ा करने वाले ओम प्रकाश वाल्मीकि जी, आप हमेशा हम सबकी स्मृतियों में रहेंगे.

आपका शानदार और भव्य लेखन सदियों बाद भी लोगों को बताता रहेगा कि “एक थे ओम प्रकाश वाल्मीकि जिन्होंने दलित साहित्य को मुख्य धारा के साहित्य से भी ज्यादा बड़ा पाठक वर्ग और ठाट दिलाई.”

और हां, प्रेमचंद और रेणु के साथ वे हिंदी साहित्य के सुपरस्टार भी हैं. बेहद पॉपुलर, बेहद असरदार. तीनों अलग अलग धाराओं के हैं, पर जन-जन तक पहुंचने और लोगों पर असर छोड़ने के मामले में तीनों में समानता भी है.

ओम प्रकाश वाल्मीकि का साहित्य मुक्ति का आख्यान है. मृत्यु तथा प्रताड़ना के खिलाफ जीवन का उत्सव है.

ओम प्रकाश वाल्मीकि उस सामाजिक प्रक्रिया के शिखर हैं, जिनके और उन जैसे सैकड़ों साहित्यकारों के आने के बाद दलित साहित्य की किताबें तथाकथित मुख्यधारा के साहित्य से ज्यादा पढ़ी और खरीदी जाने लगी. यूनिवर्सिटीज के सिलेबस में भी उसे जगह देने को मजबूर होना पड़ा.

हाशिए यानी मार्जिन का मेनस्ट्रीम बन जाना इसे ही कहते हैं.

साहित्य अकादमी ने उन्हें सम्मानित न करके खुद पर ब्राह्मणादी और सवर्णपरस्त होने के आरोपों को साबित किया और अपने मुंह पर कालिख पोत ली है. लाज-शरम बेचकर खा गए हैं साहित्य अकादमी वाले. पता नहीं किन-किन दो कौड़ी वालों को बांट दिया. सरकार का पैसा बाप का माल नहीं होता…

(स्रोत-एफबी)

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प्रख्यात दलित चिंतक व लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि का रविवार सुबह निधन हो गया। वह पिछले काफी दिनों से बीमार चल रहे थे। उपचार के लिए उन्हें मैक्स अस्पताल में भर्ती करवाया गया था। वे अपने पीछे पत्नी चंदा को छोड़ गए हैं।

तीन नवंबर से मैक्स अस्पताल में भर्ती वाल्मीकि को पेट का कैंसर था। इससे पहले भी नईदिल्ली के सर गंगा राम चिकित्सालय में उनका लम्बा इलाज चला। उनके घनिष्ठ मित्र शिव बाबू मिश्र के अनुसार पिछले साल ही उन्हें अपने कैंसर का पता चला था। गंगाराम में उनके तीन ऑपरेशन हुए। ऑर्डिनेंस फैक्ट्री से सहायक कार्य प्रबंधक के पद से सेवानिवृत्त होने के बाद से ओमप्रकाश शिमला में भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान से मिली फैलोशिप से हिन्दी और मराठी दलित कविता के तुलनात्मक अध्ययन पर शोध कार्य में जुटे हुए थे। उनका अंतिम संस्कार नालापानी शमशान घाट में किया गया। उनके निधन की सूचना मिलते ही उनके प्रशंसक रायपुर रोड के ईश्वर विहार स्थित उनके आवास पर पहुंचे। अंतिम विदाई के मौके पर कथाकार सुभाष पंत, लीलधर जगूड़ी, जितेन ठाकुर, शशिभूषण बडोनी, गुरदीप खुराना, कृष्णा खुराना, दिनेश चंद्र जोशी, मदन शर्मा, जितेन्द्र शर्मा, राजेश सकलानी, राजेश पाल, जितेन भारती समेत बड़ी संख्या में लोग मौजूद रहे। पूर्व मुख्यमंत्री बीसी खंडूड़ी व रमेश पोखरियाल निशंक ने उनके निधन पर दुख जताया है।

जूठन से बनी थी पहचान
30 जून 1950 को उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर के बारला गांव में जन्मे वाल्मीकि अपनी चर्चित आत्मकथा ‘जूठन’ के लिए जाने जाते थे। 1997 में प्रकाशित इस आत्मकथा से हिन्दी दलित साहित्य में उनकी विशिष्ट पहचान बनी थी। इस आत्मकथा का अंग्रेजी, तमिल, तेलगू, मलयाली, पंजाबी, बांग्ला भाषा में अनुवाद हो चुका है। उनके कविता संग्रह सदियों का संताप(1989), बस बहुत हो चुका (1997) तथा अब और नहीं (2009) छप चुके है। इसके अलावा दो कथा संग्रह सलाम(2001) तथा घुसपेठिए (2004) भी छप चुके थे। उन्होंने ‘सफाई देवता’ नामक एक पुस्तक भी लिखी थी जो वाल्मीकि समुदाय का इतिहास है। इसके अलावा दलित ‘साहित्य का सौंदर्यशास्त्र’ (2001) भी उनकी चर्चित पुस्तक है। कई विश्वविद्यालयों में ओमप्रकाश की कहानी, कविता व आत्मकथा को पाठय़क्रम में शामिल किया गया है। (सौजन्य-हिंदुस्तान))

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