महेन्द्र श्रीवास्तव
पत्रकारों को चोर बना रही है नीतिश सरकार
बिहार के पत्रकार मित्र से बात हो रही थी, काफी दिन बाद उनसे मिलना हो रहा था, लिहाजा तय हुआ कि प्रेस क्लब में ही मिलते हैं। तय समय पर प्रेस क्लब में पहुंच कर कुछ पीने-खाने का आर्डर दिया गया और बात घर परिवार से शुरू होकर बिहार की पत्रकारिता पर पहुंच गई। पत्रकारिता पर बात शुरू होते ही मित्र की आंखे डबडबा गईं, मैं फक्क पड़ गया। ऐसा क्या है कि मित्र की आँख में आंसू आ गया। मैने पूछा.. हुआ क्या ? इतना गंभीर क्यों हो गए ? भाई जब मित्र ने बोलना शुरू किया तो फिर एक सांस में बिहार की राजनीति को दो सौ गाली दी । कहने लगे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बिहार की पत्रकारिता को पूरी तरह दफन कर दिया है। अखबारों के मालिक विज्ञापन के लिए नीतीश के सामने घुटने टेक चुके हैं। अब नीतीश सरकार पत्रकारों को चोर बना रही है और उन्हें नगर पालिका के होर्डिंग्स आवंटित किए जा रहे हैं। ये सब सुनकर मैं तो हैरान रह गया, फिर मुझे भारतीय प्रेस परिषद के चेयरमैने मारकंडेय काटजू की वो टिप्पणी याद आई जो उन्होंने बिहार के लिए ही कही थी कि “बिहार में निष्पक्ष पत्रकारिता करना संभव ही नहीं है” ।
मुझे याद है कि पांच छह महीने पहले भारतीय प्रेस परिषद के चेयरमैन मारकंडेय काटजू ने कहा था कि बिहार में निष्पक्ष पत्रकारिता संभव ही नहीं है, तो इस बात पर मुझे हैरानी हुई, मैने पूर्व जस्टिस काटजू के इस बयान की कड़े शब्दों में निंदा की थी। मैने कई जगह इस विषय पर लेख भी लिखा और काटजू साहब को कटघरे में खड़ा किया। लेकिन आज बिहार की पत्रकारिता की जो तस्वरी सामने आ रही है, वो वाकई बहुत चिंताजनक है। वहां हालत ये है कि किसी संपादक की औकात नहीं है बिहार में नीतीश कुमार के खिलाफ अखबार में एक भी शब्द लिख सकें। वहां एक बड़े अखबार समूह के संपादक ने बस थोड़ी कोशिश भर की थी कि उनको पटना से अखबार ने बेदखल कर दिया। हालांकि वहां संपादक को जब पता चला था कि मुख्यमंत्री नाराज हैं तो बेचारे उनसे मिलकर सफाई दे आए थे, लेकिन मुख्यमंत्री ने माफ नहीं किया। अब सभी अखबार के संपादकों को पता है कि अगर बिहार में संपादक बने रहना है तो मुख्यमंत्री और उनकी सरकार से पंगा नहीं लेना है।
पत्रकार मित्र ने बताया कि बीजेपी नेता नरेन्द्र मोदी ने पटना के गांधी मैदान में सभा को सबोधित करते हुए नीतीश कुमार को अहंकारी बताया था। एक अखबार के पत्रकार ने अपनी रिपोर्ट में ये शब्द इस्तेमाल कर दिया। बता रहे हैं कि संपादक ने उसे उल्टा टांग दिया। कहने लगे तुम्हें तो नौकरी करनी नहीं है, हमारी नौकरी के दुश्मन क्यों बन रहे हो ? आप समझ सकते हैं कि अगर किसी अखबार का संपादक ही इस कदर मुख्यमंत्री का पालतू बन चुका हो तो बाकी स्टाफ के बारे में आसानी से समझा जा सकता है। इतनी बात करते-करते मित्र बिल्कुल उदास हो गए, कहने लगे बस ईश्वर से प्रार्थना कर रहा हूं कि किसी तरह पटना से मुक्ति मिल जाए। बहरहाल मैने उन्हें मित्रवत सुझाव दिया कि भाई जब तक दूसरी जगह बात ना हो जाए, ऐसा वैसा कोई कदम मत उठाना।
संपादकों की बात करते-करते उन्होंने वहां के पत्रकारों के बारे में बताना शुरू किया। कहने लगे कि बिहार में जब पत्रकारों ने देखा कि उनके मालिक और संपादक ही सरकार के सामने दुम हिला रहे हैं, तो वो भला शेर क्यों बनें ? पत्रकारों ने भी सूकून से नौकरी का रास्ता अपना लिया। बता रहे हैं कि पटना में नगर पालिका ने सारे होर्डिंग्स का ठेका पत्रकारों को दे दिया है। पत्रकारों ने उनकी औकात के हिसाब से होर्डिंग्स दिए गए हैं। बड़े ग्रुप के अखबार या चैनल में हैं तो ऐसे पत्रकार को 20 से 25 होर्डिंग्स दिए गए हैं। उसके बाद 15, 10 और कुछ को पाच- सात से ही संतोष करना पड़ा है। पहले पत्रकारों को एक होर्डिंग्स के लिए सालाना 50 रुपये देने पड़ते थे। पत्रकार मित्र इस होर्डिंग्स को 15 से 25 हजार रुपये महीने में दूसरों को बेच दिया करते थे। आपको ये जानकर हैरानी होगी कि पिछले दिनों नगर पालिका ने होर्डिंग्स के किराए को रिवाइज किया और इसका किराया 50 रुपये सालाना से बढ़ाकर 200 रुपये सालाना कर दिया। पत्रकार लोगों ने इसे लोकतंत्र पर खतरा बताया और इस मामले को लड़ने के लिए “सुप्रीम कोर्ट” चले आए। ये अलग बात है कि कोर्ट को पता चल गया कि ये धंधेबाज पत्रकार हैं, लिहाजा कोर्ट ने राहत नहीं दी।
अच्छा पत्रकारों का ये गोरखधंधा जानकर आपको लग रहा है कि इसमें वही गली मोहल्ले छाप पत्रकार शामिल होंगे। माफ कीजिएगा ऐसा नहीं है। चलिए आप से ही एक सवाल पूछते हैं आप इलेक्ट्रानिक मीडिया में किस-किस चैनल का नाम जानते हैं ? मैं समझ गया कि आप किस – किस चैनल का नाम ले रहे हैं। राष्ट्रीय चैनल हो या फिर क्षेत्रीय, हिंदी में हो या अंग्रेजी में, या फिर भोजपुरी में ही क्यों ना हो.. ज्यादातर चैनल के पत्रकार इस गोरखधंधे में बराबर के हिस्सेदार हैं। चैनल का नाम इसलिए पहले लिया कि आप सब जानते हैं कि टीवी चैनल के पत्रकारों का वेतन ठीक ठाक है, लेकिन बेईमानी के माल की बात ही कुछ और होती है । चैनल का जब ये हाल है तो अखबारों के पत्रकार किस स्तर पर होर्डिंग्स के लिए मारा मारी कर रहे होंग, ये आसानी से समझा जा सकता है। वैसे वहां से छपने वाले अखबारों के पत्रकारों की ज्यादा मौज है, बाहर से आने वाले अखबार की कुछ कम है, लेकिन चोरी में वो भी शामिल हैं।
ऐसी ही शिकायत मिलने पर भारतीय प्रेस परिषद के चेयरमैने मारकंडेय काटजू ने बिहार की पत्रकारिता पर तीखा बयान देने के साथ ही तीन पत्रकारों की एक कमेटी बनाई और पूरे मामले की जांच कर रिपोर्ट देने को कहा। बताते हैं कि पत्रकारों की ही कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में साफ कर दिया है कि बिहार में निष्पक्ष पत्रकारिता करना असंभव है। इस टीम ने नीतीश सरकार की तुलना आपातकाल से की है। कहा जा रहा है कि इमरजेंसी के दौरान स्वतंत्र और निष्पक्ष पत्रकारिता पर जिस तरह सेंसरशिप लगी हुई थी, वही स्थिति इस समय नीतीश सरकार के कार्यकाल में भी है। आज बिहार में ज्यादातर पत्रकार घुटन महसूस कर रहे हैं। विज्ञापन के लालच में मीडिया संस्थानों को राज्य सरकार ने बुरी तरह अपने चंगुल में जकड़ रखा है। हालत ये है कि पत्रकार स्वतंत्र और निषपक्ष खबर लिख नहीं पा रहे हैं। बहरहाल प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया ने सुझाव दिया है कि विज्ञापन देने के लिए एक स्वतंत्र एजेंसी का गठन किया जाना चाहिए जो विज्ञापन जारी करने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र हो, पर नीतीश इस सुझाव को भला क्यों मानेंगे ? अब समझ गए ना यही है नीतीश के सुशासन का असली और बदबूदार चेहरा !
(लेखक पत्रकार हैं और फिलहाल दिल्ली के एक न्यूज़ चैनल में कार्यरत हैं. यह लेख उनके ब्लॉग से साभार लिया गया है)