दिल्ली बुक फेयर :
चैनल नंबर वन और किताब दूकान मोकामा घाट..
चैनल तो लंद-फंद-देवानंद करके किसी तरह नंबर वन हो गया लेकिन मीडिया नाम से चलाये जा रहे बुकशॉप का बुरा हॉल है. मेट्रो स्टेशनों पर खुली दर्जन भर स्टोरों पर तो मैंने ग्राहकों की कोई खास भीड़ नहीं ही देखी, दिल्ली पुस्तक मेले में देखा ही दूकान पर ग्राहक क्या एक मक्खी भी नहीं है. और वो भी तब जबकि किताबों की ढेर पर 70 फीसद, पचास फीसद, आधे दाम के बड़े-बड़े बोर्ड लगे थे. थोड़ी देर ठिठककर देखने पर सेल्समैन का मन बढ़ गया और मजे लेने के अंदाज में हांक लगाने लगा- ये ले जाओ सर, मात्र 70 रुपये में, दो सौ पेज की किताब है. मुझे उसकी इस भाषा पर तरस आ रही थी और थोड़ा गुस्सा भी जिस तरह बोलने के बाद आपस में खीसें निपोर रहा था. मुझसे भी रहा नहीं गया. मुंह से निकल ही गया- सही है, मूली-गाजर की तरह हांक लगाओ किताबों की और इसे भी कबाड़ की तरह ही बेचो, मालिक ने खबर के नाम पर चैनल को तो कबाड़ बेचकर अट्टालिका खड़ी कर ही ली है..क्यों जी, चैनल नंबर वन और किताब दूकान मोकामा घाट..
हम किताबों के मेले में नहीं, उसके मरते जाने के शोक सभा में आए हैं.
एफआईबी( फेडरेशन ऑफ इंडियन पब्लिशर्स) की रहमो-करम पर पुस्तकालय शब्द का पुस्तकालाएं तो जरुर हो गया. हालांकि मैंने अपने पूरे जीवन में सार्वजनिक जगहों पर पुस्तकालाएं कभी नहीं देखा,गोशालाएं ही सिर्फ लिखा देखा लेकिन इस पुस्तकालाएं लिखे पहाड़भर के बोर्ड के नीचे मुझे पांच पाठक भी नहीं दिखे. बेहतरीन कालीन, चारों तरफ छोटे-छोटे गमले में सजे पौधे, फर्स्ट क्लास की नियोन दूधिया रोशनी और इस सड़ी उमस भरी दिल्ली में एसी की सुकून देनेवाली आसमानी ठंडक. पढ़ने के लिए, किताबों की सूची देखने के लिए और क्या चाहिए ? लेकिन नहीं, स्क्वैश खेले जानेवाले कॉरीडोर से भी बड़े इस स्पेस में मुझे एक जगह एक लड़का और एक जगह एक कपल बैठे दिखाई दिए. लड़का मोबाइल की स्क्रीन पर उंगलियां फिरा रहा था और कपल एक-दूसरे के हाथ और कंधे पर..किताबें कहीं नहीं थी.
दिल्ली बुकफेयर के नाम पर हॉल नं 8 से लेकर 12 तक के करीब ढाई घंटे तक चक्कर लगाने के बाद लगा कि हम किताबों के मेले में नहीं, उसके मरते जाने के शोक सभा में आए हैं. आखिर दिल्ली किताबों और पढ़े जाने की संस्कृति के मामले में ऐसा कैसे दरिद्र हो सकता है ? एक तो बच्चों की किताबें और स्टेशनरी के नाम पर सबके सब क्रेच और मदर केयर की आउटलेट लेकर बैठ जाते हैं. मैमी पोको पैंट्स( ड्रायपर) छोड़कर सब बेचते हैं जिससे कहीं से नहीं लगता कि हम पुस्तक मेले में घूम रहे हों, उपर से किताबों से ज्यादा बर्गर, सैंडविच, अल्ल-बल्ल के आउटलेट.
ये संगठन और उनके सहयोगी अगर करोड़ों रुपये खर्च करके बुकफेयर कराती है तो उसे पाठक,रीडरशिप, पब्लिकेशन पर सिर्फ पैनल डिस्कशन नहीं, इस सिरे से भी सोचना चाहिए कि जो इतने पैसे पानी की तरह इसमे बहाए जा रहे हैं, उसका क्या मतलब है और इससे किस तरह से किताबों की संस्कृति को बढ़ावा मिलेगा..इससे तो कहीं बेहतर है कि वो प्रगति मैंदान के ग्लैमर का मोह छोड़कर, सीलमपुर, नांग्लोई, बदरपुर जैसे इलाके में एक नहीं एकमुश्त पांच गाड़ियां लगा दे, बाकी प्रकाशकों भी गाड़ी लगाने के लिए प्रेरित करे. इतने तामझाम की क्या जरुरत है ? माफ कीजिएगा, आज दिल्ली बुक फेयर के मातमी माहौल और सन्नाटे को देखकर भारी निराशा हुई..यही मेला कोलकाता जैसे बड़े शहर और रांची, पटना जैसे इसके मुकाबले छोटे शहर में लगते हैं तो मार होती है..दिल्ली में सबकुछ के पीछे मार होती है, अगर आप बुकफेयर का एक चक्कर लगाएंगे तो ये भ्रम टूटेगा और अफसोस होगा कि ये शहर किताबों को लेकर आखिर इतना उदासीन क्यों होता जा रहा है ? क्या प्रोफेशनल कोर्स और सिलेबस तक की पढ़ाई ने अतिरिक्त पढ़ने की संस्कृति को ध्वस्त करने का काम किया है ?