आनंद प्रधान
महातूफान के बाद जब भारी तबाही नहीं दिखी तो चैनलों का उत्साह ठंडा पड़ गया
ऐसा लगता है कि ‘चैन से सोना है तो जाग जाओ’ मार्का न्यूज चैनल डर के सबसे बड़े सौदागर बन गए हैं. उन्हें मालूम है कि डर बिकता है और चैनलों के बहुतेरे संपादक मानते हैं कि जो बिकता है वह चलता है. वे न सिर्फ लोगों की असुरक्षाओं और उनमें बैठे ‘अज्ञात के भय’ को भुनाने में माहिर हो चुके हैं बल्कि उन्होंने टीवी पत्रकारिता को ‘खबर’ को डर और डर को ‘खबर’ बनाकर बेचने की ‘कला’ का पर्याय बना दिया है.
यह और बात है कि ‘खबर’ का मकसद लोगों को ‘अज्ञात के भय’ से मुक्त करना, उन्हें संभावित खतरों, चुनौतियों और संभावनाओं से सतर्क व उससे निपटने के लिए तैयार करना और इस तरह उन्हें आश्वस्त करना है. लेकिन अपने न्यूज चैनल इसके ठीक उलट लोगों को डराने और उनकी घबराहट का फायदा उठाने के लिए संतुलन और अनुपातबोध को ताक पर रखकर खबरों को ज्यादा से ज्यादा सनसनीखेज और बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने को टीआरपी की कुंजी मानते हैं.
अफसोस की बात यह है कि चैनलों के लिए प्राकृतिक आपदाएं भी इस नियम का अपवाद नहीं हैं. उलटे आपदाओं की भयावहता को वे अपने डर के कारोबार के लिए मौके की तरह इस्तेमाल करते हैं. इसका ताजा उदाहरण चक्रवाती तूफान- पायलिन की रिपोर्टिंग में दिखाई पड़ा. एक बार फिर अधिकांश चैनलों ने इस चक्रवाती तूफान की संतुलित, वस्तुनिष्ठ और तथ्यपूर्ण रिपोर्टिंग के बजाय उसकी भयावहता और खतरे को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया और उसे सनसनीखेज बनाने की पूरी कोशिश की.
मजे की बात यह है कि एक ओर चैनलों ने लोगों को डराने में कोई कोर-कसर नहीं उठा रखी, वहीं दूसरी ओर वे गाहे-बगाहे यह भी कहते रहे कि घबराने की जरूरत नहीं है. लेकिन चक्रवाती तूफान से जुड़ी खबरों की हेडलाइन से लेकर स्टूडियो में बैठे एंकर, दिल्ली में मौसम भवन में तैनात रिपोर्टरों और ओडिशा व आंध्र प्रदेश में तटीय शहरों में खड़े रिपोर्टरों तक की भाषाई उत्तेजना से साफ था कि चैनलों का असली मकसद क्या है. ‘महातूफान’, ‘शैतानी तूफान’ जैसे शीर्षक उनकी मंशा जाहिर कर रहे थे.
यही कारण है कि जब उनके पूर्वानुमान के मुताबिक यह ‘महातूफान’ उनके कैमरों और टीवी स्क्रीन पर उतनी तेजी से तोड़ता-फोड़ता, ध्वंस करता नहीं दिखा रिपोर्टरों और एंकरों के चेहरे मुरझा से गए. ऐसा लगा जैसे वे जिन उम्मीदों के साथ ‘आपदा पर्यटन’ पर गए थे, वे पूरी नहीं हुईं. ऐसा नहीं है कि इस चक्रवात से नुकसान नहीं हुआ लेकिन पहले से तैयारी होने और सतर्कता के कारण उतनी जानें नहीं गईं जिसकी आशंका थी.
नतीजा, जल्दी ही अधिकांश चैनलों का उत्साह ठंडा पड़ गया, अगली सुबह तक ‘महातूफान’ की खबर कई सुर्खियों से एक सुर्खी रह गई और शाम तक सुर्खियों से भी बाहर हो गई. हालांकि तूफान के गुजर जाने के बाद उससे हुए नुकसान और राहत-बचाव की खबर महत्वपूर्ण थी क्योंकि चैनलों का ध्यान उस पर रहता तो प्रशासन पर राहत-बचाव को तेज करने का दबाव बना रहता लेकिन ‘महातूफान’ की उत्तेजना से खेलने गए चैनलों की उसमें कोई दिलचस्पी नहीं रह गई थी.
इसमें कोई संदेह नहीं है कि चक्रवात जैसी प्राकृतिक आपदा की खबरों को व्यापक कवरेज मिलनी चाहिए. इससे न सिर्फ लोग सचेत और सतर्क होते हैं बल्कि प्रशासन पर भी बचाव की तैयारी करने का दबाव रहता है. लेकिन इसके लिए आपदाओं की संतुलित और तथ्यपूर्ण रिपोर्टिंग जरूरी है. यह तभी संभव है जब चैनलों में खुद प्राकृतिक आपदाओं को कवर करने की पर्याप्त तैयारी और विशेषज्ञता हो. लेकिन कितने चैनलों में ऐसे विशेषज्ञ रिपोर्टर और एंकर हैं? आश्चर्य नहीं कि चक्रवात पायलिन को भी वही रिपोर्टर कवर कर रहे थे जो किसी भी रूटीन स्टोरी को कवर करते दिखते हैं. वे डर नहीं तो और क्या बेचेंगे?
(तहलका से साभार)