ओम थानवी,संपादक,जनसत्ता
संपादकों को दुनिया देखने का सुनहरा और निरंतर अवसर प्रधानमंत्रियों के साथ विदेश दौरों में मिलता है। मैं किसी प्रधानमंत्री के साथ कभी नहीं गया, हालांकि दर्जनों मुल्कों में हो आया हूँ। प्रधानमंत्रियों में अटलबिहारी वाजपेयी के वक्त भी आमंत्रण मिला; मनमोहन सिंह एक साथ अनेक देशों के दौरों पर गए तो उनके सलाहकार संजय बारू ने खुद फोन कर इसरार किया था कि इस दफा जरूर चलो।
मैं किसी प्रधानमंत्री के साथ क्यों नहीं गया? इसलिए कि यह संपादक का नहीं, प्रधानमंत्री कार्यालय या विदेश मंत्रालय कवर करने वाले संवाददाता का काम होता है। उसका हक मार कर संपादक क्यों प्रधानमंत्री के साथ टंग जाय? पर असलियत यह है कि प्रधानमंत्री (या उनके सहयोगी) भी चाहते हैं कि संपादकों की फौज प्रधानमंत्री के रुतबे को बढ़ाने के लिए उनके गिर्द मंडराती दिखाई दे! विडंबना यह है कि बहुत-से संपादक भी ऐसी यात्राओं में शिरकत और रिपोर्टिंग करने में ‘गौरव’ अनुभव करते हैं। जो हो, मैंने यथासंभव अपने सहयोगियों को प्रधानमंत्री के साथ भेजने का यत्न किया। संवाददाता सुदूर अपना काम करे, उसका सम्मान बढ़ता है। संपादक प्रधानमंत्री के जुलूस की ‘शोभा’ बन जाए, उसका कद घटता है। क्या आपने कभी सुना कि ब्रिटेन के प्रधानमंत्री या अमेरिका के राष्ट्रपति के साथ कोई संपादक रिपोर्टिंग करने हमारे यहाँ आया?
बहरहाल, नरेंद्र मोदी ने निश्चय किया है कि वे अपनी विदेश यात्राओं में संपादकों का क्या, पत्रकारों का लम्बा-चौड़ा दस्ता (आम तौर पर तीस-चालीस जाते हैं) भी साथ नहीं ले जाएंगे। सिर्फ सरकारी मीडिया और एजेंसी (जो सरकारी मीडिया से कौन दूर होती है?) के रिपोर्टर ही साथ रहेंगे। ऐसा क्यों? क्या वे टीवी-अखबारों के स्वतंत्र (?) पत्रकारों की नजर और विमान पर होने वाले सवाल-जवाब से बचना चाहते हैं? यह तो अच्छा ही होता कि विदेश यात्राओं में वे संपादकों की परेड का रिवाज बंद करते, मगर संवाददाताओं को तो अपना दायित्व निभाने देते। उनकी तादाद जरूर घटाई जा सकती है। पर विशेष विमान में बैठने की जगह जरूरत से ज्यादा होती है, जिसका उचित किराया भी लिया जा सकता है (जैसे होटल का भाड़ा लेते हैं) — टीवी-अखबार खुशी-खुशी देंगे। … या ऐसा है कि मोदी को पत्रकारों का निकट से सामना सुहाता नहीं?