दृश्यांतर बाकी सारी पत्रिकाओं से ऊपर है – प्रो० नामवर सिंह
दूरदर्शन की पत्रिका ‘दृश्यांतर’ का हाल ही में विमोचन हुआ. इसके संपादक अजीत राय हैं. जनसत्ता के संपादक ओम थानवी ने पत्रिका को लेकर कुछ कटु टिप्पणियाँ फेसबुक पर हैं जिसे यहाँ प्रकाशित कर रहे हैं. एक तरह से पत्रिका को लेकर यह उनका विश्लेषण भी है:
प्रसार भारती के सीइओ पैसों का रोना रोते हैं और दूरदर्शन पत्रिका के नाम पर लाखों रूपये फूंकता है : ओम थानवी
पिछले दिनों प्रसार भारती के सीइओ जवाहर सरकार एक परिचर्चा में साथ थे। दुखी थे कि दूरदर्शन-आकाशवाणी के उद्धार के लिए पैसे का बड़ा टोटा है।
इधर दूरदर्शन ने ‘दृश्यांतर’ नाम से एक पत्रिका पर लाखों रुपए फूंक दिए हैं। दिल्ली सरकार के एक स्कूल में नौकरी करते-न करते पत्रकारिता, रंगमंच, सिनेमा, साहित्य और पता नहीं किस-किस क्षेत्र में ‘विशेषज्ञ’ हो जाने वाले शख्स को अंततः सम्पादक (क्या विडम्बना है!) होकर दूरदर्शन का धन और सुविधाएं तो हासिल हो गईं, पर दूरदर्शन को क्या हासिल हुआ? एक अदद फूहड़ पत्रिका। योग्यता-निर्धारण यानी श्रेष्ठ चयन के बगैर दूरदर्शन को ऐसा ही संपादन उपलब्ध हो सकता था।
फिल्मकार दिवंगत के. बिक्रम सिंह ने आरटीआइ की एक के बाद एक अर्जियां लगाकर दिल्ली सरकार और जिस मुलाजिम ‘विशेषज्ञ’ की नाम में दम कर दिया था; अपने उच्च कार्यकलापों के चलते जो जनसत्ता, सहारा समय (राष्ट्रीय सहारा), हंस और रंगप्रसंग हर कहीं से चलता हुआ; ऐसे शख्स की इतनी कद्रदानी किसी सरकारी, अर्द्ध-सरकारी इदारे के अलावा और कौन कर सकता है?
इनको कौन बताए कि संपादन रचनाओं का संकलन मात्र नहीं होता है। किसी आलेख का चयन और फिर उसका संपादन-प्रस्तुतीकरण करने के लिए संपादकीय विवेक चाहिए, जो जोड़-तोड़ या हाजरी-चाकरी से हासिल नहीं होता, न वह बाजार में मिलता है। यह समझना भी मुश्किल है कि पैसे का रोना रोने वाले “प्रसारण” संस्थान का काम “प्रकाशन” कब से हो गया? वह भी तब जब हिंदी में पहले से इसी प्रारूप की अनेक पत्रिकाएं निकल रही हैं।
‘दृश्यांतर’ के प्रवेशांक (जो सीधे-सीधे ‘हंस’ की लचर नकल जान पड़ता है) को अब झूठी प्रशंसा दिलवाने का तिकड़म शुरू है। तिकड़मबाजी के दौर में आजकल ऐसे लोग ज्यादा सफल होते हैं। … पर इसमें हम क्या करें? बस, सच को कहे बगैर रहा नहीं जाता, सो कह दिया।
(स्रोत- एफबी)
विमोचन की तस्वीर
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