प्रकाशचंद बिशनोई
पत्रकारिता का भविष्य क्या होगा
आज के पत्रकार सब के बारे में लिखने लगे है.
जहाँ सच्चाई दिखी, भगने लगे है
अब कलम का काम तो कम हो गया है.
मोबाईल, कमरा का जमाना हो गया है.
हर किसी से इंटरव्यू लेने के लिए समय हो गया है
जो समय न दे वह दुश्मन हो गया है.
पत्रकार समाज सेवा व कर्तब्य से पिछ्लने लगे है.
दिनभर चाय क़ि तलाश करते है. शाम को महफिल में गिलास का जम पकड़ने लगे है.
आज के पत्रकार सब के बारे में लिखने लगे है.
जो देते नही नगद या विज्ञापन उसको, भ्रष्ट बेईमान कामचोर कहने लगे है.
पत्रकारिता एक मिशन था, पत्रकार कानून का रक्षक था ..
अब होटल, रिक्शा, हाथ ठेला व पेपर बाटने बाला पत्रकार लिखने लगे है.
गांधी की पत्रकारिता के उस काल से लेकर आज की पत्रकारिता के बीच बदलावों का एक बड़ा दौर रहा है. सुविधाओं व संसाधनों के दृष्टि से आज की पत्रकारिता काफी हद तक सहज एवं सुलभ हो गयी है. आज बेशक पत्रकारिता तकनीक संपन्न हो गयी है लेकिन वर्तमान पत्रकारिता के स्वरूप पर सवाल भी कुछ कम नहीं उठ रहे हैं. सबसे बड़ा सवाल तो यही उठता है कि आज की तेज रफ्तार जिंदगी में पत्रकारिता ने कहीं गांधीवादी पत्रकारिता के उन आदर्श मूल्यों को तो हाशिए पर नहीं ला दिया है जिसके बिना ‘पत्रकारिता’ शब्द ही अर्थहीन नजर आता है. आज पत्रकारिता को लेकर जिस तरह के सवाल आये दिन उठते रहते हैं, ऐसे में क्या यहां भी गांधी प्रासंगिक नहीं हो जाते हैं?
राष्ट्रीय होने निकली हिन्दी की अखबारीपत्रकारिता के लिए अगर कोई आदिपुरुष है. सत्य और अहिंसा के प्रतिमान बन चुके गांधी और उनके दर्शन की प्रासंगिकता न सिर्फ भारत बल्कि अफ्रीका सहित दुनिया के तमाम देशों में आज भी कायम है. गांधी के सत्य-अहिंसा के नैतिक मूल्यों पर तो न जाने कितनी बहसें होती रही हैं, न जाने कितना कुछ लिखा जा चुका है मगर सामयिक संदभरे में उनके व्यक्तित्व का एक अन्य महत्वपूर्ण पक्ष भी बहुत विचारणीय है. वह पक्ष है पत्रकारिता संबधी उनके सरोकार. अहिंसा के पथ-प्रदर्शक, सत्यनिष्ठ समाज सुधारक और महात्मा के रूप में विश्व विख्यात गांधी सबसे पहले कुशल पत्रकार थे. उनकी पत्रकारिता की बारीकियों को समझने का प्रयास किया जाए तो वह व्यावहारिक पत्रकारिता के स्तंभों में अग्रणी नजर आते हैं.
पत्रकारिता में गांधी के योगदान की ऐतिहासिकता पर नजर डालें तो उनकी पत्रकारिता की शुरु आत ही विरोध की निडर अभिव्यक्ति के तौर पर हुई थी. जब गांधी अफ्रीका में वकालत कर रहे थे, उसी दौरान वहां की एक अदालत ने उन्हें कोर्ट परिसर में पगड़ी पहनने से मना कर दिया था.अपने साथ हुए इस दोहरेपन का विरोध करते हुए गांधी ने डरबन के एक स्थानीय संपादक को चिट्ठी लिखकर अपना विरोध जाहिर किया, जिसको उस अखबार द्वारा बाकायदा प्रकाशित भी किया गया. अखबार को लिखे उस पत्र को गांधी की पत्रकारिता का पहला कदम माना जा सकता है हालाकि तत्कालीन दौर में गांधी को भारत में भी कोई नहीं जानता था
गांधी की पत्रकारिता भी उनके गांधीवादी सिद्धांतों के मानकों पर ही आधारित है. उनकी पत्रकारिता में उनके संघर्ष का बड़ा व्याहारिक दृष्टिकोण नजर आता है. जिस आमजन, हरिजन एवं सामाजिक समानता के प्रति गांधी का रुझान उनके जीवन संघर्ष में दिखता है, बिल्कुल वैसा ही रुझान उनकी पत्रकारिता में भी देखा जा सकता है. गांधी का मानना था कि पत्रकारिता की बुनियाद सत्यवादिता के मूल चरित्र में निहित होती है. असत्य की तरफ उन्मुख होकर विशुद्ध व वास्तविक पत्रकारिता के उद्देश्यों को कभी प्राप्त नहीं किया जा सकता है. गांधी का यह दृष्टिकोण इस बात की पुष्टि करता है कि उनकी पत्रकारिता और व्यावहारिक जीवन के सिद्धांतों में किसी भी तरह का दोहरापन नहीं है. निश्चित तौर पर अपने सिद्धांतों एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में किये गए कार्यों के बीच का सामंजस्य ही गांधी को पत्रकारिता के महान मार्गदशर्क के रूप में स्थापित करता है.
कहीं यह सच तो नहीं कि हमने अपनी सहूलियत और निजी हितों को ऊपर रखकर गांधी की पत्रकारिता के उन मूल्यों को सामने ही नहीं आने दिया, जिनका सामने आना वर्तमान पत्रकारिता के बिगड़ते स्वरूप के लिए सबसे जरूरी जान पड़ता है. गांधी द्वारा पत्रकारिता के क्षेत्र में जो आदर्श स्थापित किये गए, वह अपने आप में पत्रकारिता के स्थापित और प्रामाणिक सिद्धांत कहे जा सकते हैं. भारतीय ही नही, विश्व के पत्रकारिता जगत को चाहिए कि वह गांधी को महज महात्मा तक सीमिति न कर ‘पत्रकार गांधी’ के मूल्यों, आदर्शों व सिद्धांतों को भी पढ़ें-समझें और आत्मसात करें. यह लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का कल्याणकारी पक्ष है.
यह लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का कल्याणकारी पक्ष है….