आलोक श्रीवास्तव,चैनल एडवाइजर,दूरदर्शन
ज़िंदगी की ज़ुबान
‘बालाजी टेलीफ़िल्म’ प्रेमी क्षमा करें ! लेकिन गुज़रे सालों में भारतीय टीवी धारावाहिकों की तहज़ीब, ज़ुबान और कंटेंट को जितना एकता कपूर एंड पार्टी ने नष्ट-भ्रष्ट किया है, उतना और किसी ने नहीं ! इसमें हमारी घरेलू और फ़ुर्सतिया मांतोओं-बहनों और भाभियों का भी पर्याप्त योदगान है, जिनके ज़रिए हमारी ज़ुबान और कल्चर आने वाली नस्लों तक पहुंचता है. वर्ना ये वही देश है जहां तमस, बुनियाद, डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया, चाणक्य और मिर्ज़ा ग़ालिब जैसे अनगिनत टीवी धारावाहिकों को हमने सर-आंखों पर बैठाया. इनके प्रसारण के समय गलियों में सन्नाटा पसरा देखा. ये बताते हुए ख़ुशी हो रही कि दूरदर्शन अपने उन दिनों को दोबारा वापस लाने के लिए इन दिनों, रात-दिन एक किए है. जिसकी उजली तस्वीर बहुत जल्द सामने होगी.
इधर, बहुत दिनों से नए चैनल ‘ज़िंदगी’ का ज़िर्क यहां-वहां है. और उस पर भी सीरियल ‘हमसफ़र’ का कुछ ज़्यादा ही. कल कुछ वक़्त मिला तो देखा. एक बात जो गुज़रे तीस बरस से मानता और बरतने की कोशिश करता आ रहा हूं, फिर एक बार सही साबित हुई. और वो ये कि – ”आप जब भी इंसानी ज़िंदगी की सच्चाइयों को आम-फ़हम ज़ुबान, और सादा-अंदाज़ में पेश करने की कोशिश करेंगे, वो दिल से निकलेगी और सीधे दिल तक जाएगी.” मेरा नज़रिया है कि यही कमाल, इस चैनल पर भी कमाल दिखा रहा है. रोज़मर्रा की ज़िंदगी. हमारे-आपके जैसे सीधे-सादे लोग. उनकी आम-फ़हम ज़ुबान. कहीं-कहीं – मुसल्सल, अक़ीदत, अदा, अना, ज़िक्र, अज़ीज़,मुश्किलात, मशहूर जैसे मीठे-मीठे लफ़्ज़ ! और उनका बयान – एक दम सादा ! ज़ुबान सुनिए भी और सीखिए भी. और हां अगर कोई एकता कपूर को भी यह चैनल दिखा सके या इंसानी ज़िंदगी की ज़ुबान सिखा सके तो भला हो.
Nadeem Khan
आलोक भाई, मुंबई में एक अजीब टाइप का तर्क अकसर सुनता हूँ की जो आज का दर्शक देखता है,वही एकता कपूर और दुसरे प्रोडूसर दिखाते हैं मगर ये तर्क न केवल बकवास है बल्कि गुमराह करने वाला भी है क्योंकि अगर ऐसा होता तो आज की भागती-दौड़ती ज़िन्दगी में ‘ज़िन्दगी’ जैसा चैनल इतना पसंद न किया जाता, दरअसल कंटेंट, स्क्रीन प्ले और डायलॉग अच्छे हों तो ‘सच’ के करीब दिखने वाला हर सीरियल पसंद किया जायेगा ! अब दूरदर्शन को भी एकता कपूरी षड्यंत्र,चालबाजियां और रिश्तों में घुले हुए ज़हर से दूर होकर ‘आमफहम’ सीरियल को तवज्जु देनी चाहिए जिससे दर्शक रोमांच के साथ अपनेपन का मज़ा ले सके…
Pramod Kumar Pandey
नीम का पेड़, नुक्कड़ और न जाने ऐसे ही कितने धारावाहिक प्रसारित होते थे.!. फिल्म या धारावाहिकों का निर्माण यदि सामजिक हितों और मेल-जोल को बढाने, अपने अतीत की विरासतों को सबके सम्मुख रखने, भाषाओँ-बोलियों को मजबूत करने, और ऐसे ही अन्य सन्देश जो कि समाज और देश को मजबूत करते हैं, के लिए नहीं होगा तो उसके परिणाम यही होंगे जो एकता कपूर जी परोसती हैं। कमर्सिअलाईजेशन यदि ज़िम्मेदारी के बिना होगा तो उसका परिणाम ऐसा ही होगा। कुछ हद तक हम भी उत्तरदाई हैं क्यों कि “पेरेस्त्रोइका” और “ग्लास्नोस्त” के नाम पर ऐसे लोगों को उलूल-झुलूल बेचने का बाज़ार हमीं ने दिया है।
स्वागत है दूरदर्शन का यदि वे अपनी पुरानी विलक्षणता, गुणवत्ता और विविधता को वापस ला रहे हैं तो।
(स्रोत-एफबी)