वेद उनियाल
किसी भी व्यक्ति की अपनी भावना तो होती ही है। पत्रकार को निष्पक्ष होना चाहिए पर वह भी आखिर इंसान है। किसी खास राजनीतिक पार्टी की ओर झुकाव होता ही है। बस दिक्कत तब होती है जब वह भाव , उन्माद में बदल जाए। और पत्रकार पत्रकार के बजाय राजनीतिक कार्यकर्ता की तरह नजर आए या किसी राजनीतिक दल का विरोध बायस्ड होकर करे। इन चुनाव में कुछ पत्रकारों को सुनते दिखते उनके मन की थाह हम टीवी दर्शकों तक पहुंची। हो सकता है कि कहीं हम गलत हों।
विनोद दुआ – इनके खानपान के जायके वाली स्टोरी का जवाब नहीं। पर राजनीति की टिप्पणी करते हुए इनका तुड़का भाजपा पर ही लगता है। सारे कटाक्ष व्यंग बाण केवल भाजपा के लिए है। जायका काग्रेस के लिए ।
जयशंकर गुप्त- एक सरकारी चैनल पर पूरी तरह ताल ठोक रहे थे कि लालू मोदी को रोक देगा। क्या मजाल कोई तर्क इनके सामने टिक पाता। लालू कांग्रेस बढ़िया बैटिंग कर रही है , इसके लिए पूरी तैयारी करके बैठे थे। दांव तक दे दिया कि लालू के सामने मोदी टिकेगा नहीं।
अभय दुबे- जब भी बोले तो आप बोले। यानी आप पार्टी के खासे मुरीद। पर टीवी का पर्दा है कि हर हाव भाव सामने रख देता है। कई बार लगा कि जो बात योगेंद्र यादव नहीं कह पा रहे हैं उसकी भरपाई ये कर रहे हैं।
मधु किश्वर- नमो नमो। भाजपा बल्कि नरेंद्र मोदी के पक्ष में खुलकर बहस करती हुई दिखी। फिर तो तीखी बहस भी होने लगी। संभव है कि आने वाले समय में पत्रकारिता से राजनीति में आ जाएं।
ओम थानवी- एक लक्ष्य। टीवी ही नहीं फेसबुक में भी इनका अभियान चलता रहा। समाजवादी आंदोलन खूब शानदार चला। पता नहीं इस आंदोलन में केजरीवाल और नरेंद्र मोदी में किसको कितना फायदा या नुकसान हुआ।
मनोरंजन भारती- रायबरेली और अमेठी के लिए एकदम द्रवित। भव्य तस्वीर दिखाने बताने में संकोच नहीं। रायबरेली ही भारत , अमेठी ही भारत।
अरविंद मोहन – समाजवादियों की प्रतिष्ठा बनी रहे इसके लिए पूरी तरह सजग। बिहार से ज्यादा बिहार के समाजवादियों के परिणामों को लेकर सजग और चिंता।
प्रेम शुक्ला- सामना का एडिटर बनने के बाद तो यह परंपरा है कि आप शिवसेना के अच्छे खासे नेता हो जाते हैं। देश के नामी टीवी चैनलों में बहस में जम कर भाग लिया। संजय निरूपम के बाद , शिवसेना को एक अच्छा वक्ता मिल गया। —– हम है टीवी के दर्शक
(स्रोत-एफबी)
ALSO tell some about Urmilesh, Shahid siddiqi, farooq kamal,