लग रहा है अब लाश दाना मांझी नहीं, मेरे कंधे पर है
बातचीत से लौटने के बाद दोपहर के बचे-खुचे खाने को डिनर की शक्ल देने लगा..लेकिन ब्रेड का टुकड़ा अभी ठीक से मुंह में जाता कि उबकाई आने लग गई. पेट की भूख बदहजमी में जाकर विलीन हो गई. लगा दानी मांझी की पत्नी की लाश उसके सिर से उतरकर मेरे सिर पर आ गई है.
दस किलोमीटर तक दाना मांझी अपनी अपनी बिलखती बेटी के साथ पत्नी की जिस लाश को लेकर चलते रहे वो हमारे समाज, हमारे भीतर के काफी कुछ मर जाने का संकेत बनकर हमें धिक्कारते रहेंगे. हम सब सांकेतिक हत्यारे हैं. मैं कई बार अपनी आलोचना सुन-पढ़कर हताश होने लग जाता हूं. मेरी नजर के सामने एक वायनरी बनकर चीजें होती हैं लेकिन दूसरा हिस्सा कई बार गायब हो जाता है. वो हिस्सा जिसमे मैं अपने को दोषी नहीं पाता.
लेकिन ऐसे दहला देनेवाले नजारे से जब-जब गुजरता हूं, मुझे अपनी शक्ल किसी हत्यारे सी नजर आती है. लगता है हम उसी शहर-कस्बे के कोजी जोन में तमाम सुविधाओं से लैस चैन की नींद सो रहे होते हैं जहां कई-कई दाना मांझी पैसे के अभाव में अपनी पत्नी के लिए दवाई तक नहीं खरीद सकते.
आज रात मुझे अपना चेहरा बेहद क्रूर, घिनौना नजर आ रहा है. हमारी सुविधा और तरक्की के बीच कई स्तर की सांकेतिक हत्याएं शामिल है. मुझे नहीं पता कि जो अच्छे दिनों की खबरें दिखाते हैं, वो अपने भीतर कुछ भी मरा हुआ महसूस कर पाते हैं कि नहीं..लेकिन ऐसे मौके पर हम किस्तों की मौत के एक हिस्से गुजर रहे होते हैं. ये रात मुझे बहुत भारी कर दे रही है. @FB (एनडीटीवी की बहस से वापस लौटकर फेसबुक पर मीडिया विश्लेषक विनीत कुमार की टिप्पणी)