वेद उनियाल – बेबस, लाचार और समस्याओं से घिरे राज्य मे। चार लाख पर मीडिया सलाहकार का केवल अय्याशी का पद। वरिष्ठ पत्रकार योगेश भट्ट जी के इस लेख को जरूर पढ़िए। और महसूस कीजिए किस तरह उत्तराखंड कौ हर बार की तरह इस बार भी रौंदा जा रहा है। कुछ भी अलग नही
योगेश भट्ट-
सरकार और पत्रकार एक ऐसा रिश्ता ,जो साथ चलें पर मिल ना पायें । सही मायनों में यही इस रिश्ते की सुचिता भी है । लेकिन लगता है ना सरकार और ना हम खुद इसे कायम रखने को तैयार हैं । सरकार पत्रकार को अपना ‘भोंपू’ बनाना चाहती है तो पत्रकार भी सत्ता सुख और सरकारी ‘मलाई’ की फिराक में है । सरकारें तो चाहती ही नहीं कि पत्रकार अपनी हद में रहें, अपने पवित्र पेशे की सुचिता बनाये रखें । आज सरकार चाहती है कि पत्रकार उसके लिए मीडिया मैनेज करे, अभी तक तो यह ‘खेल’ पर्दे के पीछे का था पर अब तो खुला खेल है । किसी पत्रकार को सरकार सलाहकार नियुक्त करे अच्छा है, फीड बैक और फ्लानिंग के लिहाज से यह बात तो समझ में आती है । मगर एक पत्रकार को मीडिया सलाहकार बनाए जाने की बात समझ से परे है। यूं तो जब-जब सरकार सलाहकार नियुक्त करती है, तब-तब सवाल उठते ही हैं, लेकिन कुछ दिन पहले जब सरकार ने एक मीडिया सलाहकार की नियुक्ति की तो उस पर सोशल मीडिया में अच्छी-खासी प्रतिक्रियाएं आईं।
सरकार ने उत्तराखंड मूल के दिल्ली में कार्यरत एक पत्रकार रमेश भट्ट को मीडिया सलाहकार बनाने का फैसला किया। मीडिया सलाहकार यानी मीडिया मैनेजर ,आश्चर्य इस बात को लेकर है कि कोई ‘पत्रकार’ सरकार को मीडिया मैनेजमेंट संबंधी क्या सलाह दे सकता है ? सच तो यह है कि सरकार का पत्रकार को मीडिया एडवाइजर बनाना यानी एक तीर से कई निशाने साधने जैसा है । यह एक पत्रकार को खत्म करना तो है ही , बाकी बिरादरी के लिए मैसेज भी है। सोचनीय यह है कि कोई पत्रकार, खासकर मुख्यधारा से जुड़ा रहने वाला पत्रकार आखिर किस तरह सरकार के लिए मीडिया को मैनेज कर सकता है? बतौर मीडिया एडवाइजर जो भी लोग अभी तक सरकारों के लिए काम करते रहे हैं, उनका काम यही तय करना रहा है कि किस पत्रकार को ‘सरकार’ से मिलाया जाए और किसे नहीं। क्या छपवाया , रुकवाया जाए और क्या चलवाया जाए ? किस मीडिया समूह के लिए रेड कार्पेट बिछाई जाई, किसको हतोत्साहित किया जाए। अगर कहीं स्थितियां मुख्यमंत्री के पक्ष में नहीं हैं तो साम,दाम,दंड,भेद करके सब कुछ कंट्रोल में कैसे किया जाए। किस समूह, किस पत्रकार को कितना और किस-किस तरह से उपकृत किया जाए? किसे विज्ञापन दिया जाए, किसे डराया-धमकाया जाए। सवाल यह है कि कोई खांटी पत्रकार क्या इस पर खरा उतर सकता है? जो व्यक्ति लंबे वक्त तक सक्रिय और जनसरोकारी पत्रकारिता करता रहा हो, वह तो किसी भी सूरत में ऐसा नहीं कर सकता।
सच यह है एक पत्रकार यदि सरकार का मीडिया एडवाइजर बन जाए तो फिर या तो वो उस भूमिका में नाकाम होगा या अपने सिद्धातों के साथ अन्याय करेगा। पत्रकारों को मैनेज करने की ही बात की जाए तो आज के दौर में यह भी कम मुश्किल टास्क नहीं है। पत्रकारों के बीच जिस तरह की गुटबाजी है , मीडिया हाउसों की प्रतिद्वंदता है, उसे देखते हुए किसी भी मैनेजर के लिए सबको संतुष्ट करना बेहद मुश्किल है। सरकार की कृपा आंकाक्षी पत्रकारों का हाल यह है कि आपस में वह एक दूसरे को फूटी आंख पसंद नहीं सुहाते । पिछली सरकार के कार्यकाल में यह साबित भी हो चुका है। तब किसी एक पत्रकार को उपकृत किए जाने की खबर चलाकर सरकार ने पत्रकारों का खूब तमाशा कराया। बताईये ऐसे में क्या कोई पत्रकार मीडिया सलाहकार की भूमिका निभा सकता है? यह अपने आप में बड़ा सवाल है । मंशा सही हो तो पत्रकारों के अनुभवों का लाभ सरकार तमाम दूसरी जिम्मेदारी देकर ज्यादा बेहतर कर सकती है , पर नहीं सरकार तो पत्रकार से सिर्फ ‘खेलना’ चाहती है। सवाल यह है कि एक पत्रकार को मीडिया एडवाइजर बना कर ही सरकार क्या संदेश देना चाहती है? सच यह है कि पत्रकार को पत्रकारों को मैनेज करने का जिम्मा देकर सरकार चाहती है कि मीडिया आपस में ही उलझता रहे ,और सरकार अपना उल्लू सीधा करती रहे।