दो वर्ष पहले आनंद पर्वत की गलियों में एक लड़की (मीनाक्षी) को करीब 35 बार चाकू मारा गया और सभी तमाशबीन बने रह गए। उस लड़की का गुनाह ये था कि कुछ दिनों पहले उस लड़के के छेड़ने पर वो गूंगी-बहरी नहीं बनी रही और थप्पड़ जड़ दिया। आप में से कई लोग कहेंगे कि इतनी बहादुरी दिखाने की क्या ज़रूरत थी? चुपचाप चली जाती। दरअसल हम लड़कियां हैं न, काठ की पुतलियां नहीं कि आप नचाएं-घुमाएं या पटक दें, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। इसलिए भारत को आज या आज के कई दशक पहले ही ऐंटी रोमियो स्क्वॉड की ज़रूरत थी। अच्छा होता यदि इसके बिना ही काम हो जाता पर वो आदर्श स्थिति है।
रीवा सिंह,पत्रकार-
हम सभी को ये शिकायत होती है कि समस्या जब चरम सीमा पर पहुंच जाती है तब कदम उठाए जाते हैं, जब उसकी एक-एक खुराक़ हमें परोसी जाती है तो सभी मूक दर्शक बन देखते हैं और नज़रंदाज़ करने को कहते हैं। लड़कियों को नसीहत मिलती है कि गूंगी-बहरी बनकर निकलो और सीधे घर लौटो। अगर उनमें से कोई विरोध करे तो घरवाले ही डांट लगाते हैं कि तुम्हें किसने कहा था झांसी की रानी बनने को!
बलात्कारी भी घर से निकलकर सीधे लड़कियों की योनि में नहीं घुस जाता, पहले गली-सड़क-चौराहों पर अपनी ट्रेनिंग लेता है। लड़कियों के कत्ल की घटनाओं पर नज़र डालें तो भी आप पायेंगे कि पहली ही मुलाक़ात में चाकू या कैंची नहीं चलायी जाती, वक्त लगता है। लड़की को समझाया जाता है, सहलाया जाता है। लड़की का बात न मानना इनकी साख़ का सवाल बन जाता है और फिर ये अस्त्र-शस्त्र उठाकर चल देते हैं अपने सम्मान की रक्षा को। सब ईगो का मामला बन जाता है।
अपने पिता से गाड़ी की चाबी भी मिमियाते हुए मांगने वाले ये सिरफिरे लड़की से दहाड़ते हुए मोहब्बत मांगते हैं और न मिला तो नस काटने की या कुछ भी करने की धमकी देते हैं। उसपर भी बात न बनी तो महीने-2 महीने उसके घर से स्कूल या कॉलेज के चक्कर काटते रहेंगे। आप इसपर अहिंसावादी होकर ये कह सकते हैं कि बाहर घूम ही तो रहा है, उसे छू भी नहीं रहा बेचारा। पर वो ‘बेचारा’ हर दिन के साथ उस लड़की की ज़िंदगी में कितनी बेचारगी भर देता है इसे आप आदतन नज़रंदाज़ कर जाते हैं। उस लड़की को पता होता है कि उसका पीछा किया जा रहा है, वो या तो सहम जाती है या डांट लगाना चाहती है। दोनों ही स्थितियों में उसकी मानसिक स्थिति क्या होती है ये समझने के लिए आपको लड़की ही होना पड़ेगा।
घरवाले कई बार मुसीबत मोल नहीं लेना चाहते और भाई व पिता के रूप में ज़ेड प्लस सिक्यॉरिटी लगा देते हैं। कई बार शिकायत करने भी जाते हैं पर वहां भी ज्यादा से ज्यादा यही होता है कि पुलिस बुलाकर लड़के को फटकारती है और भेज देती है। अब आप ये कहेंगे कि – तो क्या इतने के लिए फांसी दे दे? नहीं, फांसी नहीं दे। पिछले वर्ष पूर्वी दिल्ली के बुराड़ी में एक लड़की को एक आदमी ने कैंची घोंपकर मारा था। पता चला कि लड़की ने पहले उसकी शिकायत दर्ज करवायी थी, ऐसे ही समझा-बुझाकर उन साहबज़ादे को भेज दिया गया जिसके बाद उनके अंतर्मन में प्रतिशोध की ज्वाला भड़की और उन्होंने उसमें सारी समझदारी झोंकते हुए उस लड़की को मारकर अपने कर्त्तव्य-परायणता का परिचय दिया।
दो वर्ष पहले आनंद पर्वत की गलियों में एक लड़की (मीनाक्षी) को करीब 35 बार चाकू मारा गया और सभी तमाशबीन बने रह गए। उस लड़की का गुनाह ये था कि कुछ दिनों पहले उस लड़के के छेड़ने पर वो गूंगी-बहरी नहीं बनी रही और थप्पड़ जड़ दिया। आप में से कई लोग कहेंगे कि इतनी बहादुरी दिखाने की क्या ज़रूरत थी? चुपचाप चली जाती। दरअसल हम लड़कियां हैं न, काठ की पुतलियां नहीं कि आप नचाएं-घुमाएं या पटक दें, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। फ़र्क तो पड़ता ही है, भले हम गूंगी-बहरी रहें पर चुभन तो होती ही है। कबतक खून का घूंट पीती रहेंगी सिर्फ़ इसलिए कि आप सर्व शक्तिमान हैं! इसलिए उस लड़की ने थप्पड़ जड़ दिया और अपनी ही गली में उसका कत्ल हो गया। आज वहां के बीसों मां-बाप उसी की कहानी सुनाकर अपनी बाहर जाती बच्चियों का मुंह बंद करते होंगे। स्कूल-कॉलेज, बाज़ार-मंदिर क्या बचा रह गया है? क्या मंदिरों में बद्तमीज़ी नहीं होती? दुर्गा पूजा के वक्त प्रसाद बांटने के नाम पर तमाशा नहीं होता? क्या इसे आप मोहब्बत और आशिकी के नाम पर बचाना चाहेंगे? प्रेम और ज़बरदस्ती में बहुत फ़र्क होता है और इस फ़र्क को समझने में बॉलीवुड ने भी कई दशक झोंक दिये तभी आप “तेरा पीछा करूं तो टोकने का नहीं” से “नो मींस नो!” तक पहुंचे।
इसलिए भारत को आज या आज के कई दशक पहले ही ऐंटी रोमियो स्क्वॉड की ज़रूरत थी। अच्छा होता यदि इसके बिना ही काम हो जाता पर वो आदर्श स्थिति है। सच्चाई यही है कि तमाम बीमारियां, त्रासदियां, विपदाएं, अड़चनें होने के बावजूद हमें हमारा पूरक कहे जाने वाले वर्ग से स्वयं को बचाना पड़ रहा है। आप इस ऑपरेशन के नाम पर हल्ला बोलने से पहले इसके बारे में जान लेते तो बेहतर होता। इसके तहत हर टीम में 2 पुलिसकर्मी होंगे, एक महिला और एक पुरुष। एक पुलिस थाने की सीमा क्षेत्र में ऐसी 2-3 टीम होंगी। ये टीम स्कूल-कॉलेज या उन स्थलों पर स्क्रीय रहेंगी जहां महिलाओं का अधिक आना-जाना होता है। इस पूरी टीम में सिपाही, हवलदार और निरीक्षक होंगे जो वर्दी में अथवा सादे वस्त्रों में नज़र आएंगे। ये ईव-टीज़िंग जैसे मामलों पर नज़र रखेंगे और कार्यवायी करेंगे।
ये इस ऑपरेशन का सैद्धांतिक पक्ष है। इसका व्यावहारिक पक्ष यदि इससे भिन्न हो तो नकारात्मक पक्ष का काम कर सकता है और फिर इसका होना एक अभिशाप की तरह होगा। इसकी पूरी आशंका भी है कि जब ये काम शुरू होगा तो लोगों के अंदर क्रांति की ज्वाला फूटेगी और सभी अपनी संस्कृति के रक्षक बनने चले आएंगे। हो सकता है व्यावहारिक पक्ष में उन जोड़ों को भी डांट-फटकार सुननी पड़े जो स्वेच्छा से साथ हैं। हो सकता है पार्क में बैठे जोड़े अब आतंकित महसूस करें क्योंकि ‘संस्कृति के पुरोधाओं’ का पुराना रिकॉर्ड रहा है कि वे ऐसे जोड़ों को बेइज़्ज़त करते हैं, सार्वजिनक स्थल पर उठक-बैठक करवाते हैं। वैलेंटाइंस डे से एक दिन पहले सारे कार्ड्स जला डालते हैं। गोरखपुर इसका गवाह रहा है।
इस नियम का किसी पर भी जबरन थोपा जाना हानिकारक हो सकता है। ये ठीक वैसे ही होगा जैसे अवैद्य बूचड़खानों की बंदी के साथ-साथ मटन की दुकानों पर भी नकेल कसी गयी और लखनऊ के मशहूर टुंडे कबाबी को खामियाज़ा भुगतना पड़ा।यह ऑपरेशन एक सकारात्मक पहल है पर सिर्फ़ तभी जब इसका व्यावहारिक पक्ष सैद्धांतिक पक्ष से इतर न हो। गोरखपुर और अन्य क्षेत्रों में ऐसे स्क्वॉड के किये गए पुराने काम हमें चाहकर भी ऐसा सोचने नहीं दे रहे। उम्मीद करते हैं कि अब हमें बेहतर सोचने के मौके मिलें।