पिछले 16 साल में यानी जब से नौकरी में हूं- एक दिन के लिए भी बेरोजगार नहीं रहा । लेकिन सैकड़ों दफा नौकरी के लिए सामने बैठे इंसान की आंखों में उसका दर्द देखा है। ज्यादातर वैसे ही लोगों को नौकरी दी जिन्हें बिल्कुल नहीं जानता था। उनमें प्रतिभा दिखी, जिस जगह पर उन्हें रखना है उसके मुताबिक उनमें काबिलियत देखी और अगले कुछ दिनों में ऑफर लेटर थमा दिया। जिस रोज नौकरी के लिए आए थे और जिस दिन ज्वॉयन कर रहे थे- दोनों दिनों के चेहरे का फर्क करीब से देखा-समझा है । जिनके साथ आप काम करते हैं, उनके साथ अनाम-अबूझ रिश्ता बन जाता है। किसी ना किसी बहाने अक्सर ऐसी कई बातें साझा करते हैं, जिनका नौकरी से कोई रिश्ता नहीं होता।
किसी बात पर बेसाख्ता ठहाके लगने लगते हैं, और किसी के साथ कुछ बुरा गुज़रता है तो उसे ये अहसास होता है कि घर से दूर इस बडे शहर में वो अकेला नहीं है। गांव की होली से लेकर नाच तक, स्कूल की शैतानियों से लेकर कॉलेज की आवारगी तक- सब किसी ना किसी वक्त साझा होता रहता है।
खबरों की रोज़ रोज़ की लड़ाई और मारकाट के बीच कुछ लोग दांव-पेंच में ज़रुर लगे रहते हैं लेकिन बड़ी आबादी पूरे ईमान और ताकत के साथ मरती खपती रहती है। इस मरने खपने से निजात पाने के लिये कभी सिगरेट की कश तो कभी चाय की चुस्कियों पर तफरीह से तबीयत हल्की कर ली जाती है। किसी भाई ने कार-ओ-बार के लिये उकसाया तो दफ्तर का काम खत्म होने के बाद रात में किसी अंधेरे, सन्नाटा भरे नुक्कड़ पर अड्डा जम जाता है।
ग़म ग़लत होता रहता है। बॉस से लेकर प्रधानमंत्री तक की कुंडली खुल जाती है। जिस किसी की याद आ गई और कभी उसने कुछ खुरपेंची की थी तो वो भले ही खर्राटा मार रहा हो उसकी सात पुश्तों की रात खराब हो जाती है। अगले दिन एक दूसरे का मुंह देखकर बीती रात पर हंस लेते हैं औऱ फिर काम पर लग जाते हैं।
देश के अलग अलग जगहों से सपने लेकर दिल्ली आए नौजवानों की एक बड़ी फौज टीवी न्यूज में काम कर रही है। घर-परिवार की दस जिम्मेदारियों, दफ्तर की परेशानियों, वेतन औऱ खर्च की तनातनी के बीच अपने लिए रास्ता निकालने की जद्दोजहद में दिन रात लगी रहनेवाली ये जमात किसी रहम की नहीं बल्कि हमारे आपके साथ की हकदार है।
टीवी 18 ग्रुप से इतनी बडी तादाद में लोगों का जाना तकलीफदेह है। हर आदमी अपने अपने तरीके से अपनी बात कह रहा है। मैंने कभी कहने का तरीका अनगढ़, अभद्र या अशिष्ट नहीं रखा लेकिन इतना आज ज़रुर कहूंगा कि ये वक्त हम सबको मिलकर सोचने का है । चुप्पी खतरनाक है । मैं हंगामे की हिमायत नहीं कर रहा लेकिन इससे पहले की वक्त उंगली उठाए, हमें मिलकर उठना चाहिए। बाकी फिर कभी ।
(टेलीविजन पत्रकार राणा यशवंत के फेसबुक वॉल से साभार)
पत्रकारों की छटनी –
जिस `मेरिट` की धार से अक्सर सामाजिक न्याय के सिद्धांत को काटा जाता है, और जिसे आम तौर पर पत्रकारों का भरपूर समर्थन भी मिलता रहा है, उसी तलवार से लगभग 300 पत्रकारों को नौकरी से निकालने का अन्याय किया गया है और नेता- जनता, पक्ष-विपक्ष चुप है। चिढाने के लिए अजय माकन जैसे कांग्रेस के नेता घरियाली आंसू बहते हुए ट्वीट करते हैं – Regular mtng with journos in my room at AICC.Sad not to see many regular faces.They were frm TV18.Good hardworking journos.Feel bad for them; और दिखाते हैं कि सरकार में रहते हुए भी वे कॉर्पोरेट के आगे कितने बेबस हैं।
दरअसल एक-दो दिन पूर्व टीवी 18 ब्रॉडकास्ट, सीएनएन-आईबीएन, आईबीएन 7 से करीब 300 स्टाफ-कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया गया है। नौकरी से निकाले गए में कुछ वरिष्ट पत्रकार और एंकर भी शामिल हैं। खबर यह की और छटनी होने की आशंका है। टीवी 18 NBCUniversal और मुंबई में आधारित नेटवर्क 18 समूह के बीच भारत में 50/50 के आधार पर संयुक्त उद्यम आपरेशन है। तो जब यह समाचार चल रहा था … ”ब्लडबॉथ इन दलाल स्ट्रीट… ब्लैक फ्राइडे…” तो उससे भी बुरा हाल हो था सीएनबीसी आवाज टीवी चैनल में काम करने वाले कर्मचारियों का।
ध्यान देने की बात है कि हर अन्याय का विरोध करने वाले प्रेस में काम करने वाले पत्रकारों की ओर से कोई खास विरोध नहीं हुआ है। कारण स्पष्ट है की अधिकांश मीडिया कॉर्पोरेट के हाथों में है। और भारत में कानून कॉर्पोरेट पर लागू नहीं होता, बल्कि कॉर्पोरेट के लिए कानून बनते हैं। उदाहरण के रूप में जो सरकार मानती है की मार्केट फोर्सेज (बाजारी ताक़तों) पर देश को छोड़ देना चाहिए, वह सरकार गैरकानूनी और असंवैधानिक तरीके से मीडिया की भरपूर कमाई और लोगों के पॉकेट से जबरन रुपये निकने के लिए अनिवार्य सेट टॉप बॉक्स का कानून बना कर लागू कर दिया और पक्ष-विपक्ष मेज थप-थपाते रह गए। तो क्या पत्रकारों के हक के लिए कोई कानून नहीं बन सकता है? खास तौर से जब एक कांग्रेसी कॉर्पोरेट सांसद नवीन जिन्दल के कोयला घोटाले में भूमिका के उजागर को रोकने के लिए जी ग्रुप के चेयरमैन सहित अन्य पत्रकारों पर मुक़दमा ठोक दिया गया और जलील किया गया।
और रेगुलेटर के दौर में, क्या मीडिया रेगुलेटर को पत्रकारों के हित की रक्षा का भार सौंपा नहीं जा सकता है। इस सरकार ने, या यूं कहें की NDA सरकार के समय से, शासन का भर रेगुलेटर को दिया जा रहा है। तो फोन का रेट टेलिकॉम रेगुलेटर तय करेगा, रेल भाडा और बाद में रेलकर्मियों का वेतन आदि रेगुलेटर तय करेंगे। तो मंत्री और मंत्रालयों का क्या काम? जनता का धन दो सत्ता के केन्द्रों पर क्यों खर्च हो? क्यों नहीं PM और रेगुलेटर सभी कुछ तय करें और कॉर्पोरेट संसद की सदस्यता को नीलामी से प्राप्त कर लें। खैर यह अलग मुद्दा है।
पत्रकारों का असल शोषण और दोहन तो छोटे स्तर पर होता है। हिंदुस्तान जैसे अख़बार का एक संवाददाता को 4-5 हज़ार रुपये और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पत्रकार के के समाचार पर सौ-दो सौ रुपये देकर उन्हें मजबूर किया जाता है की वे अपने व्यवसाय के साथ धोखा करे या उसकी बोली लगवाएं। क्या वरिष्ठ पत्रकारों का इनके लिए कोई कर्त्यव्य नहीं है?
इतने पत्रकारों के साथ हुए अन्याय पर हर बात पर बोलने वाले प्रेस कौंसिल ऑफ़ इंडिया के अध्यक्ष जस्टिस काटजू कहा हैं?
जिस सिद्दत से वे नरेन्द्र मोदी की कमियां गिनातें हैं, इस विषय पर वे उसी सिद्दत से क्यों नहीं सरकार पर दवाब बनाते हैं?
तो दिक्कत निजीकरण की निति में ही है और सरकार के अप्रभावी और कॉर्पोरेट के रखैल बनने में ही है। मैं आव्हान करता हूँ अपने पत्रकार साथियों से जहाँ भी मुझ जैसे छोटे कार्यकर्त्ता भी अगर कॉर्पोरेट के दखलंदाज़ी का विरोध करें, तो ज़रूर साथ दें।
और मैं अपने पत्रकार साथियों से यह भी कहना चाहूँगा की इस अन्याय का विरोध ज़रूर करें और हम जैसे कार्यकर्ता आपके साथ हैं। हम विपक्ष से, और खास तौर से श्री नरेन्द्र मोदी से, अपील करते हैं की इस अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठायें।
जय हिन्द।