जगदीश्वर चतुर्वेदी
बेवकूफियों से हास्य पैदा करना,ऊल-जलूल बातों से हास्य पैदा करना, कपिल के कॉमेडी शो की खूबी है। इस कार्यक्रम से बबूल संघ ,उसके साइबर बटुक और मोदी सरकार बहुत प्रभावित है। वे कपिल के कॉमेडी शो को भारत का राजनीतिक कंटेंट बना रहे हैं। देश के हर जलसे,दिवस,नायक,अच्छे नाम,अच्छे गुण आदि को राजनीतिक ‘कू-भाषा’ से अपदस्थ कर रहे हैं। वे हर अच्छे दिन और अच्छे त्यागी पुरुष को टीवी इवेंट बना रहे हैं ! ‘कू’ कर रहे हैं।। इस ‘कू -कल्चर’ के नए नायक इन दिनों टीवी टॉक शो पर आए दिन दिख जाएंगे। फेसबुक में दिख जाएंगे!
कपिल के कॉमेडी शो की खूबी है ‘ कू-भाषा’ का हास्य के लिए दुरुपयोग ,वहां हास्य कम और ‘कू-भाषा’ का दुरुपयोग ज्यादा होता है और यही भाषिक दुरुपयोग सांस्कृतिक भ्रष्टाचार की नई खाद है और इससे आमलोगों में भाषायी कुरुपता पैदा होती। ‘कू-भाषा’ की संस्कृति का विस्तार होता है।नव्य-आर्थिक उदारीकरण ने सारी दुनिया में ‘कू-भाषा’ को नए-नए रुपों में प्रसारित किया है।इसके भाषिक प्रयोगों को हम आए दिन युवाओं से लेकर फेसबुक तक देख सकते हैं। ‘कू-भाषा’ का नया प्रयोग है ‘शेल्फी’!
कपिल के कॉमेडी शो का मूलाधार है ‘कू-भाषा’। यही वह बिंदु है जहां पर बबूल संघ का कपिल शो के साथ मेल बैठता है। संघ की दीर्घकालिक सांस्कृतिक रणनीति है भारत को सांस्कृतिक रुप से विद्रूप बनाओ। भाषा ,व्यवहार और राजनीति में अंतर पैदा करो। विलोम की सृष्टि करो। जिस भाषा को बोलो,जिस नायक की जय-जयकार करो उसके कंटेट को पूरी तरह बदलो ! यह काम वे पहले छोटे स्केल पर करते थे, अपनी गोष्ठियों-सभाओं-शाखाओं में करते थे लेकिन इधर के वर्षों में वे बृहत्तर तौर पर करने लगे हैं। राजनीतिक एजेण्डे के तौर पर,साइबर एजेण्डे के तौर पर,टीवी टॉकशो के तौर पर,मंत्रालय के कार्यक्रम के अंग के तौर पर कर रहे हैं,इसलिए संस्कृति में वे ‘कू’ कर रहे हैं और इसके लिए ‘कू-भाषा’ और केरीकेचर की शैली का जमकर इस्तेमाल कर रहे हैं। उनका नया ‘कू’ है ‘गुरु दिवस’ मनाओ का नारा। बबूल संघ की सांस्कृतिक हेकड़ी का आलम यह है कि वे अपनी ‘कू-भाषा’की आलोचना सुनने को तैयार नहीं होते, जो आलोचना करता है उस पर निजी हमले आरंभ कर देते हैं।मसलन् आपने कहा कि शिक्षक दिवस को ‘गुरु दिवस’ कहना सही नहीं है तो पलटकर हमला शुरु ! क्या तुम्हारा कोई गुरु नहीं है ? क्या राहुल ने मनमोहन सिंह को ‘गुरु’ नहीं कहा! गांधीजी ने ‘गुरु’ नहीं कहा ! ‘गुरु’ कहना और ‘गुरु’ मानना और ‘गुरु’ के अनुरुप या बतायी दिशा में आचरण करना एकदम भिन्न चीजें हैं। जब आप किसी को गुरु कहते हैं तो यह आपका निजी मामला है। लेकिन ज्योंही इसे सार्वजनिक करते हैं तो ‘गुरु’ का मामला निजी नहीं रह जाता,’गुरु’ निजी नहीं रह जाता। ‘गुरु’ सार्वजनिक मूल्यांकन के दायरे में आ जाता है।लेकिन बबूल संघ और मोदी सरकार की ज्ञानी ‘गुरु’ में नहीं ,फिल्मी ‘गुरु’ में दिलचस्पी है! आप सब जानते हैं फिल्मों में कई किस्म के ‘गुरु’ चित्रित हुए हैं। इनका गुरु ज्ञान का प्रतीक नहीं है बल्कि इनका ‘गुरु’ तो उन सभी लक्ष्यों को समर्पित है जिनको ‘गुरु गोलवलकर’ बता गए हैं। इनके नए गुरु तो ‘जन-संपर्क विशेषज्ञ’ हैं जो बता रहे हैं कि भाषा में उलझाओ,भाषिक पदबंधों में सांस्कृतिक उत्पाद मचाओ। भाषिक उपद्रव यानी ‘कू-भाषा’ से मीडिया कवरेज बनाने में मदद मिलती है,वाक्य को इवेंट बनाने में मदद मिलती है। इसलिए बबूल संघ को आदित्यनाथ से लेकर तोगड़िया,मोदी से लेकर साइबर बटुक जैसी मीडिया इवेंट या हेडलाइन बनाने वाली भाषा चाहिए। वे भाषिक प्रयोगों के जरिए सांस्कृतिक ‘कू’ करने में लगे हैं। उनकी दिलचस्पी संस्कृति को अपदस्थ करने में हैं।
(स्रोत-एफबी)