टी वी, बग़दादी और रोमियो

पिछले कई वर्षों से टी वी चैनल मिडिल ईस्ट और अफ़ग़ानिस्तान में चल रही ख़ाना जंगी पर प्राइम टाइम में विशेष कार्यक्रम चला रहे हैं जिनके शीर्षक डरावने और कभी कभी अत्यधिक भयावह होते हैं। मानो बग़दादी और आए एस या तालेबान की तोप हिंदुस्तान के तरफ़ ही घूमने वाली है। जबकि भारत मे ऐसे कार्यक्रम करने का कोई उचित कारण नहीं सूझता।

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फैजान हैदर नकवी-

मसला गाय नहीं है क्यूं की अगर मसला गाय होता तो मिश्रा जी को गौ हत्या के लिए माफ़ ना किया जाता, अगर मसला गाय होता तो ड्राइवर अर्जुन को छोड़ा ना जाता।

मसला हम हैं हुज़ूर हम। हमारी धार्मिक अज्ञानता और कट्टरता ने आज यहां ला दिया कि समाज को हम फूटी आंख नहीं सुहा रहे और इस आग में राजनीतिक हांडी भी भरपूर पक रही है। किसी मुद्दे पर हम संवाद करने के बजाए फ़तवे ले कर आते हैं और फिर अपने आपे में नहीं रहते। बिना ये जाने बुझे की फ़तवा देने वाले का बौद्धिक स्तर क्या है और क्या हर मुद्दे पर फ़तवे की आवश्यकता है भी की नहीं। कुल मिला कर हम अपनी अज्ञानता की शरण दूसरे की अज्ञानता में ले रहे हैं।

इस्लाम कहता है कि सलात ( नमाज़) खड़े हो कर नहीं अदा कर सकते तो बैठ जाओ, बैठ कर नहीं कर सकते तो लेटे लेटे अदा कर लो, और अगर तब भी नहीं कर सकते तो इशारे से अदा कर लो। वज़ू पानी से नहीं कर सकते तो तय्युम कर लो। सेहत अच्छी नहीं तो रोज़ा मत रखो, ग़रीबों को ख़ाना खिला दो। हज पर उधार ले कर मत जाओ, तभी जाओ जब तुम्हारी ज़िम्मेदारियाँ पूरी हो जाएं और खर्च उठा सको। यानी दीन को इंसान पर आसान बना दिया कि कोई उसके बोझ तले दबा कुचला ना समझे।

मगर दीन की समझ रखने का दावा करने वालों ने इसका उलट किया और हर वो रास्ता दिखाया जिसमे एक को दूसरे से अलग दिखाया जा सके। और इस तरह अपने अपने गिरोह तैयार करे,जिससे उनके समर्थन से, गिरोहों के दिल और दिमाग़ पर हुकूमत की जा सके। और हम अभी इसी पर लड़ रहें हैं कि सलात हाथ खोल कर अदा करें या बांध कर। हम सुबह शाम बाबरी मस्जिद की वकालत करते नहीं थकते कभी ये सोचा है दुबारा बन गयी तो इमाम साहब कौन सी मसलक के होंगे, देवबंदी या जमाते इस्लामी या बरेलवी या अहले हदीस या तरीक़त या सूफ़ी, अच्छा शिया का दांव भी लग सकता है क्या ? और अहमदियों का क्या उनको तो सारे मिल कर पीटेंगे। उनके विरोध में एकता देखने लायक़ होती है।

पिछले कई वर्षों से टी वी चैनल मिडिल ईस्ट और अफ़ग़ानिस्तान में चल रही ख़ाना जंगी पर प्राइम टाइम में विशेष कार्यक्रम चला रहे हैं जिनके शीर्षक डरावने और कभी कभी अत्यधिक भयावह होते हैं। मानो बग़दादी और आए एस या तालेबान की तोप हिंदुस्तान के तरफ़ ही घूमने वाली है। जबकि भारत मे ऐसे कार्यक्रम करने का कोई उचित कारण नहीं सूझता। फिर भी ये समझ आता है वो लोगों के मानस पटल पर एक भयानक तस्वीर बनाने में कामयाब हुए है और शायद मक़सद भी यही था और वो तस्वीर उनको डराती हुई इस्लाम की परिभाषा को बदल देती है। जिसका असर कश्मीर से कन्याकुमारी तक देखने को मिलता है, जिसका असर सड़कों पर देखने को मिलता है, जिसका असर एनकाउंटर में गोली ठूस देने के ग़ुस्से में दिखता है। इस ग़ुस्से को कभी गाय में, कभी लव जिहाद में, कभी घर वापिसी में, कभी एन्टी रोमियो दल में शरण लेनी पड़ती है। उनको तुमसे गिला है, क्या है ये उनको भी नहीं पता बस वो तुमको कट टू साइज़ रखना चाहते हैं। और उन कार्यक्रमों को देख तुम इस्लाम की तरक़्क़ी पर फूले नहीं समा रहे थे। तुम्हे खेल ही समझ नहीं आया।

सारा ठीकरा सत्ता धारी दल पर फोड़ देना सबसे आसान और मेरे लिए तो राजनैतिक तौर पर भी अच्छा ही है। लेकिन मुझे लगता है ऐसा नहीं है। सत्ता धारी दल तो उन विचारों को शह दे कर राजनैतिक लाभ और एजेंडा का परिपालन कर रहा है। ये विचार लोगों के दिलों में घर कर गए हैं सत्ता बदलने से वो उभर कर बाहर आ गए हैं। और अगर सत्ता फिर बदल जाएगी तब भी वो विचार नहीं बदलेंगे बल्कि फिर से सही समय की प्रतीक्षा करेंगे।

हमारे पास दो रास्ते हैं। पहला अपनी जिहालत का रोना गाना जारी रखे, पीड़ित बन कर कट्टरता के रसातल में जा कर कुछ धार्मिक संस्थाओं के हाथों की कठपुतली बन जाएं और फिर वोट बैंक बन कर किसी ऐसे को लाल बत्ती दिलवा सकें जो हमको डराता रहे और क़ौम और बिरादरी का वास्ता देता रहे, मुहर्रम और जुलूसे मुहम्मदी में आ जाये कुछ चंदा भी दे दे, रोज़ा इफ़्तार करवा दे, मदरसों में कूलर लगवा दे, और हमारी मस्ती में कोई अड़ंगा ना लगने दे। दूसरा ये की हम सकारात्मक हो कर आगे बढ़ें और अपने इमेज मेकओवर पर काम करें। बातों से नहीं बल्कि अमल से। जो मुद्दे हमको बिदकाने के लिए उछाले जाते हैं उनको समझें और और भारतीय होने के परिपेक्ष्य में अपना एजेंडा तय करें और सारे बैठ कर कॉमन मिनिमम प्रोग्राम पर राज़ी हो जाएं। और विदेशी मुद्दों को अपने लोकल देसी मुद्दों पर तरजीह ना दें।

अब ये तो औरंगज़ेब ही बता सकते हैं कि ता उम्र उनके नाम का दिया बांके बिहारी मंदिर में क्यों जलता रहा, और ये ख्वाजा ग़रीब नवाज़ ही बता सकते हैं कि उनके यहां लंगर शाकाहारी पुलाव क्यों रहा। बुल्लेशाह क्यूं लिख गए, ‘होरी खेलूंगी, कह बिस्मिल्लाह’। और आसिफुद्दौला से पूछो की मुहर्रम के जुलूस के बाद होली ये कह कर क्यों मनाई, की हाकिम का मज़हब नहीं होता। पूछो निज़ामो से जाकर क्यूं ब्याह रचाये हिन्दू राजपूतों के घरों में। पूछो मौलाना हसरत मोहानी से क्यों लिखा, ‘मोहे छेड़ करत नंदलाल, लिए खड़े अबीर गुलाल’।

होश के नाख़ून लो भाइयों, कहाँ फस गए फ़साद में। लकुम दीनकुम वलय दीन पर अमल करते हुए इख़लाक़ बलन्द करो। एक दूसरे के काम आओ। ऐसे काम ना करो जिस से दूसरे को तकलीफ़ हो या साम्प्रदायिक ताक़तों को दूसरों को तुम्हारा डर दिखा कर तुम्हें मारने का लाइसेंस मिल जाये।

बाज़ आओ गाय से, एक किलोमीटर दूर से वालेकुम अस सलाम कर लो या फिर एक मुस्लिम गो रक्षक दल तुम भी बना लो और गाय को प्लास्टिक खाने से बचाओ।

सऊदी अरब और ईरान को आक़ा मौला मानने से जुम्मन का कुछ भला न होगा, हाँ अगर वो राम खिलावन के काम आएगा तो एक दिन राम खिलावन भी जुम्मन के साथ खड़ा दिखेगा।

में ये इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि फ़तवे देने वाले अपने आस्तानों मे सुरक्षित हैं सड़क पर पहलू ख़ान मर रहा है।

(लेखक के सोशल मीडिया प्रोफाइल से साभार)

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