टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट्स (टीआरपी), जिसे अब तक टीवी उद्योग का अंतिम सत्य माना जाता रहा है (क्योंकि मीडिया संस्थानों को मिलनेवाले विज्ञापन और पैदा होनेवाले राजस्व का बड़ा हिस्सा इसी के नतीजे पर टिके होते हैं), इन दिनों संदेह के घेरे में है. इसे जारी करनेवाली संस्था टैम पर न केवल सवाल खडे. किये जा रहे हैं, बल्कि देश के प्रमुख टीवी प्रसारक संस्थान/ मीडिया हाउस इससे अपनी सदस्यता वापस लेने की बात खुल कर करने लगे हैं. दिलचस्प है कि जिन मीडिया संस्थानों ने सालों से टैम की ओर से जारी टीआरपी को ही अपने कार्यक्रम, कंटेंट और उसे दिखाये जाने के तरीके को अपना आधार बनाया, अब वे स्वयं इसके विरोध में उतर आये हैं, वे इसे न केवल गैरजरूरी बता रहे हैं, बल्कि आंकड़ों को लेकर छेड़छाड़ किये जाने की बात भी खुल कर कर रहे हैं.
चैनलों ने की सेल्फ रेगुलेशन की बात
वैसे तो टीआरपी पर असहमति छिटपुट ढंग से सालों से जतायी जाती रही है. 27 जुलाई, 2009 को राज्यसभा में ‘देश के सांस्कृतिक मूल्यों के विरुद्ध विभित्र चैनलों पर दिखाये जा रहे कार्यक्रमों में बढ.ती ईलता, अशिष्टता’ को लेकर बहस हुई और चैनलों पर नकेल कसने से लेकर सेल्फ रेगुलेशन तक की बात की गयी. उस समय भी तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी ने टीआरपी के संबंध में स्पष्ट कहा था कि इसका कंटेंट से कोई लेना-देना नहीं है. अर्थात् अगर किसी टीवी कार्यक्रम की टीआरपी अच्छी है, तो इस आधार पर यह राय नहीं कायम की जा सकती है कि वह कार्यक्रम बेहतर होगा ही.
राज्यसभा में हुई इस बहस के बाद वचरुअल स्पेस पर टेलीविजन चैनलों के दिग्गजों ने भी एक बहस चलायी और दो सवाल उठाये. पहला, कि अंगरेजी चैनलों के मुकाबले हिंदी चैनल देखनेवाले दर्शकों की संख्या कई गुना ज्यादा है, बावजूद इसके अंगरेजी चैनलों के मुकाबले हिंदी की टीआरपी इतनी कम क्यों रहती है? और दूसरा, मौखिक रूप से, वचरुअल स्पेस पर जिन कार्यक्रमों को लेकर सबसे ज्यादा सकारात्मक लिखा जाता है, टीआरपी में उसकी कहीं कोई जगह क्यों नहीं होती? लेकिन उस समय टीआरपी सिस्टम के प्रति घोर असंतोष होने के बावजूद मीडिया संस्थानों ने (एनडीटीवी इंडिया को छोड. कर) इसके प्रति खुल कर असहमति नहीं जतायी. इसकी बड.ी वजह यह भी रही थी कि उस वक्त पूरा राजनीतिक माहौल, जिसमें मौजूदा सरकार से लेकर पूर्व सूचना प्रसारण मंत्री रहे भाजपा नेता रविशंकर प्रसाद भी शामिल थे, टीवी चैनलों पर एक हद तक सख्ती बरते जाने के पक्ष में था. दूसरी ओर मीडिया संस्थान अपनी पूरी ताकत इस बात पर लगा रहे थे कि किसी भी तरह से उन्हें रेगुलेट करने के लिए सरकार की ओर से किसी संस्था का गठन न हो, मीडिया संस्थान सेल्फ रेगुलेशन के तहत ही टीवी चैनलों को दुरुस्त करने की बात करें. हां, बीच में इसे साप्ताहिक जारी न करके एक और तीन महीने में जारी करने की बात की गयी, लेकिन वह सब भी ठंडे बस्ते में चला गया. लिहाजा सेल्फ रेगुलेशन की बहस ने इतना जोर पकड.ा कि टीआरपी को लेकर होनेवाली गड.बड.ियां और उससे निबटने के सवाल बहुत पीछे चले गये और जिस तरह के आंकडे. टैम द्वारा जारी किये जा रहे हैं, उसे अंतिम सत्य मान कर उसके हिसाब से अपनी स्ट्रैटजी बनाने का काम जारी रहा. उल्टे मीडिया संस्थानों ने इस टीआरपी को पहले के मुकाबले इतना अधिक महत्व देना शुरू किया कि आम दर्शक से लेकर मीडिया समीक्षक तक हर कार्यक्रम को लेकर टीआरपी पर आकर ठहर जाते.
‘टीआरपी का खेल’ बना एक मुहावरा!
लेकिन गौर करें तो टीआरपी आम दर्शकों के बीच भले ही इतना अधिक पॉपुलर हो गया कि हर कार्यक्रम और खबर की बात करते ही ‘सब टीआरपी का खेल है’ जैसे मुहावरे इस्तेमाल होने लगे, लेकिन कभी इसकी तह में जाने की गुंजाइश पैदा नहीं हुई. इधर मीडिया समीक्षकों ने भी प्रसारकों के तर्क को ध्यान में रख कर टीआरपी को अंतिम सत्य तो मान लिया, लेकिन टीआरपी के आधार पर कार्यक्रमों का विेषण कैसे किया जाता है, वे कौन से तरीके या पैमाने होते हैं जिससे कि एक ही घटना पर एक चैनल की टीआरपी डबल डिजिट क्रॉस कर जाती है जबकि दूसरे चैनल के वैसे ही कार्यक्रम एक-दो प्वाइंट पर आकर अटक जाते हैं, इस पर गौर नहीं किया. बहुत हुआ तो वे टीआरपी/पीपल मीटर की थोड.ी-बहुत चर्चा कर देते हैं, लेकिन आंकडे. आधारित विश्लेषण नहीं होते.
डेमोक्रेटिक प्रोजेक्ट का हिस्सा नहीं
असल में टीआरपी जितना लोकप्रिय मुहावरा है, उतना ही रहस्यमयी भी. आम दर्शक और समीक्षकों की बात तो छोड. ही दी जाये, चैनलों में भी टॉप पांच-छह-सात, जो कि सीधे-सीधे चैनल की प्रशासनिक गतिविधियों से जुडे. हैं, के अलावे इस संबंध में किसी को न तो जानकारी होती है न ही विस्तार से दी जाती है. इसे कैसे देखा जाये और क्या निष्कर्ष निकाले जाएं, इस पर चर्चा नहीं होती. बस अमुक बैंड (समय अवधि) या कार्यक्रम की टीआरपी गिर रही है तो संबंधित मीडियाकर्मियों पर कोडे. बरसाने का काम शुरू हो जाता है. चैनल मोटी फीस देकर इस रिपोर्ट को हासिल करते हैं. इसके लिए कई तरह के पैकेज होते हैं और जो जितना बारीकी में रिपोर्ट लेना चाहता है उसे उतनी ही अधिक कीमत देनी होती है. लेकिन कोई भी चैनल इसे अपने मीडिया संस्थान के बीच सार्वजनिक करके लोकतांत्रिक रिपोर्ट की शक्ल देने की कोशिश नहीं करता. असल में बड.ी दिक्कत यहीं से शुरू होती है.
करीब साढे. छह सौ टीवी चैनलों के बीच एक भी ऐसा कार्यक्रम नहीं है, जो यह बताये कि दर्शक जो कार्यक्रम देख रहे हैं, उसका टीआरपी से क्या संबंध है और वे अच्छे कार्यक्रमों को इस रेटिंग प्वाइंट्स के जरिये कैसे प्रोत्साहित कर सकते हैं? चैनलों के भीतर सार्वजनिक न किये जाने से जाहिर है कि यह कभी भी ‘डेमोक्रेटिक प्रोजेक्ट’ का हिस्सा नहीं बन पाता और इसलिए दर्शक से लेकर मीडिया समीक्षकों के बीच नहीं पहुंच पाता. यहां तक कि सेमिनारों में भी, जहां टीआरपी को लेकर गंभीर बहसें होती है, कभी टीआरपी रिपोर्ट की प्रति सार्वजनिक नहीं होती. अलबत्ता टैम खुद साल-दो साल की पुरानी/ आंशिक रिपोर्ट अपनी वेबसाइट पर जारी करता है, लेकिन वह काफी नहीं है.
40 करोड. आबादी में नौ हजार पीपल मीटर
इस तरह के रहस्यवादी ढांचे में काम करने से टैम को बड़ा फायदा इस बात का होता है कि वह जितना चाहे अपनी र्मजी से मीटर लगाये और उससे आंकडे. जमा करे. अब यह बात कम हैरान करनेवाली नहीं है कि सवा अरब आबादीवाले देश में, जहां टीवी देखनेवालों की संख्या 40 करोड. से ज्यादा है, मात्र नौ हजार पीपल मीटर लगे हैं. इसका मतलब है कि इस नौ हजार मीटर से जुडे. दर्शकों की अभिरुचि और मिजाज के हिसाब से बाकी के दर्शक कार्यक्रम देखेंगे. दूसरी तरफ चैनल के प्रोड्यूसर, संवाददाता और संपादक इस बात के लिए बाध्य होंगे कि इन नौ हजार मीटर से संबद्ध दर्शकों की अभिरुचि के आसपास के ही कार्यक्रम निर्मित और प्रसारित किये जाएं. इसका नतीजा हमारे सामने है. ऐसे में खोजपरकता, तथ्यात्मकता और रचनात्मकता के बजाय पैटर्न आधारित कार्यक्रम ही चल सकते हैं. एक टैनल ने टीआरपी के जरिये कोई ट्रेंड सेट कर दिया, तो वही स्थापित हो जाता है.
खबर वहीं, पीपल मीटर जहां
पीपल मीटर देश के उन चुनिंदा शहरों में लगे हैं जहां शिक्षा का स्तर बेहतर होने के साथ-साथ अंगरेजीदां माहौल ज्यादा है. शहरों में भी ये उन इलाकों में लगे हैं, जो कि सबसे पॉश इलाका माना जाता है. मसलन दिल्ली के नत्थूपुरा, सीलमपुर और बुराड.ी में आप पीपल मीटर की कल्पना नहीं कर सकते. यानी हैसियत के आधार पर दर्शकों का दो स्तरों पर विभाजन हो जाता है. ऐसे में अगर अंगरेजी के कार्यक्रम मुंबई, दिल्ली, अहमदाबाद जैसे शहरों की छोटी से छोटी घटनाएं राष्ट्रीय मुद्दा और दूसरी तरफ उत्तर-पूर्व राज्यों की बड.ी से बड.ी घटनाएं खबर का हिस्सा नहीं बन पाती हों, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि मीडिया संस्थानों के हिसाब से खबर वहीं है जहां पीपल मीटर लगे हैं.
कैसे बनाया कार्यक्रम देखने का दबाव
अभी जो देश के कुछ प्रमुख मीडिया संस्थानों ने टैम की रिपोर्ट का विरोध किया है और एक के बाद एक अपनी सदस्यता खत्म करने की बात कही है, उसके पीछे ये सारी दिक्कतें नहीं हैं. मीडिया संस्थान इन दिक्कतों को पिछले कई सालों से मैनेज करते आये हैं. नलिन मेहता ने अपनी किताब ‘इंडिया ऑन टेलीविजन’ में इस बात की विस्तार से चर्चा की है कि कैसे चैनलों ने टीआरपी मीटर लगे घरों में प्रलोभन देकर कार्यक्रम देखने का दबाव बनाया, कैसे टीआरपी और वितरण के झोल के बीच से राजस्व उगाही का काम होता रहा और ये सब करने के लिए नकदी से लेकर गाड.ियां तक दी जाती रही.
असल में प्रसारक ये सब करते-करते थक गये हैं. अब अंगरेजी के लोकप्रिय चैनल की टीआरपी दिल्ली में शून्य आयी है, इससे ज्यादा अंधेरगर्दी क्या हो सकती है? चैनल ने तो सालों से ये सारी गड.बड.ियां मैनेज की और संपादकीय डेस्क के बजाय मार्केटिंग के लोगों की र्मजी के मुताबिक खबर और कार्यक्रम दिखाते-बताते रहे, ताकि उन्हें टीआरपी मिले और टीआरपी के जरिये ज्यादा से ज्यादा विज्ञापन. लेकिन टैम ने इस तरह की रिपोर्ट जारी करके संकेत दिया है कि ये नौ हजार मीटर की भी विश्वसनीयता नहीं है.
टैम ने चैनलों को नचाया, घुमाया
नतीजतन प्रमुख प्रसारक, जो अब तक टीवी और मीडिया के दूसरे माध्यमों से राजस्व खड़ी करते आये हैं, सड़कों पर उतर आये हैं. उनका ऐसा करना जितना टैम के विरोध में खड.ा होना है, उससे कहीं ज्यादा सालों से उसे शह देने, उसकी शतरें पर काम करने, पिछलग्गू बनने और दर्शकों की मनस्थिति को नजरअंदाज करना है. नहीं तो किसी चैनल के कार्यक्रम की टीआरपी न तो शून्य हो सकती है और न ही कोई ऐसा चैनल जिसकी विजिविलिटी न के बराबर है, टीआरपी के टॉप दस में शामिल हो जाये. कहने को तो यह भी कहा जा सकता है कि टैम ने टीवी चैनलों को जितना हो सका, नचाया-घुमाया, अब एकमुश्त विरोध और इधर सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अपने आंकडे. जारी करने की स्थिति में उनके दिन लद भी सकते हैं.
(मूलतः प्रभात खबर में प्रकाशित )