मीडिया पर मीडिया विश्लेषक ‘विनीत कुमार‘ की तीन टिप्पणियाँ :
अब किसी न्यूज चैनल या मीडिया हाउस की आलोचना करने का मतलब राजनीतिक पार्टी की आलोचना करना हो गया है. इसके समर्थन में वही लोग आ जाते हैं जो राजनीतिक पार्टी की आलोचना करने पर उतर आते हैं. इसका मतलब है मीडिया ने अपना स्वतंत्र चरित्र खो दिया है या फिर लोगों ने मीडिया को आलोचना से परे यानी सोलहों कलाओं में सम्पन्न देवता मान लिया है.
पी आर एजेंसी और विज्ञापन पर करो़ड़ों रुपये खर्च करके भी यदि कोई राजनीतिक पार्टी चुनाव हार जाती है तो ये आपके लिए पी आर एजेंसी और विज्ञापन के प्रभाव के खत्म हो जाने का मामला हो सकता है लेकिन मेरे लिए नहीं..ऐसा इसलिए कि जो राजनीतिक पार्टी चुनाव जीतती है वो भी किसी पी आर एजेंसी और विज्ञापन के दम पर ही..यानी चुनाव लड़ती भले ही राजनीतिक पार्टियां है लेकिन हार और जीत उसकी पी आर एजेंसी और विज्ञापन की स्ट्रैटजी होती है..हां विज्ञापन एजेंसी और विज्ञापन के प्रभाव को मैं तब खत्म होना मान लूंगा जब कोई बिना इसका सहारा लिए इससे लैश पार्टी को हरा दे.
चुनाव न लड़ने के अलावा मीडिया वो सबकुछ कर रहा है जो बहुमत की सरकार कर रही है. संसद का विपक्ष तो चुनाव के नतीजे आने के बाद कमजोर हुए थे लेकिन संसद के बाहर के विपक्ष ने बहुत पहले ही आत्मसमर्पण कर दिया था. ऐसे वक्त में मुझे शरद यादव का मीडिया खासकर टेलीविजन चैनलों से खीजकर संसद में दिया गया बयान याद आता है- इस बक्से का कुछ करो, इससे मुक्ति दिलाओ, आपको क्या लगता है इस बक्से से ही देश चल रहा है ?
(स्रोत-एफबी)