तहलका के कार्यकारी संपादक के तौर पर अतुल चौरसिया का पहला संपादकीय

तहलका हिंदी का वार्षिकांक
तहलका हिंदी का वार्षिकांक
तहलका हिंदी का वार्षिकांक
तहलका हिंदी का वार्षिकांक

तहलका मुश्किल दौर से गुजर रहा है. ऐसा दौर जिसमें अस्तित्व का संकट है. एक के बाद एक लोग तहलका का साथ छोड़ कर चले गए. हाल ही में तहलका हिंदी के कार्यकारी संपादक संजय दुबे और विकास बहुगुणा की भी तहलका हिंदी से विदाई हो गयी. लेकिन इसके बावजूद तहलका हिंदी का हौसला नहीं टूटा. तहलका हिंदी निकल रही है और उतने ही धारदार तरीके से. इसका उदाहरण तहलका हिंदी का नया अंक है जो कि वर्षगाँठ विशेषांक है और जिसमें एक से बढ़कर एक लेखों को शामिल किया गया है जिसे जरूर पढ़ा जाना चाहिए.बतौर कार्यकारी संपादक तहलका हिंदी में अतुल चौरसिया ने अपना पहला संपादकीय भी लिखा है जिसमें पूरे अंक की विषयवस्तु को बताने के साथ-साथ एक तरह से तहलका हिंदी के आगे के विजन को भी भी उन्होंने रेखांकित किया है. मीडिया खबर के पाठकों के लिए पेश है तहलका के कार्यकारी संपादक अतुल चौरसिया का संपादकीय –

चरैवेति चरैवेति

वर्ष 2014 इतिहास के बर्बर कोने में अपना स्थान सुरक्षित कर चुका है. जब यह अंक आपके हाथों में होगा, तब लोगों की स्मृतियों पर पाकिस्तान के पेशावर शहर में मानवता को तार-तार करने वाली आतंकी वारदात का कब्जा होगा. बीतते यह साल निरीह बच्चों के साथ आधुनिक काल की मध्ययुगीन निर्ममता का गवाह बना. इस नैराश्य के वातावरण में भी तहलका हमेशा की भांति नए वर्ष का पहला अंक एक विशेषांक के तौर पर अपने पाठकों को सामने ला रहा है.

प्रचलित मान्यता तो यही कहती है कि इतनी बड़ी दुर्घटना के बाद यह समाचार ही सर्वाधिक प्रमुखता से पत्रिका में प्रकाशित होना चाहिए था. ऐसा न होना किसी को भी अटपटा लग सकता है. लेकिन अपने थोड़े से जीवनकाल में तहलका ने इस तरह के पारंपरिक सांचों को तोड़ने से कभी भी परहेज नहीं किया है. इसका मकसद घटना की गंभीरता को कम करना या नजरअंदाज करना नहीं है. इसके पीछे मौजूदा समय की नकारात्मकता और अंधियारे का सामना जीवन और उल्लास से करने की सोच भर है. अंततः यही वह नुस्खा है जो चौतरफा फैलते जा रहे आतंकवाद के खतरे से निपटने का रास्ता दिखा सकता है.

तहलका के कार्यकारी संपादक के तौर पर अतुल चौरसिया का पहला संपादकीय
तहलका के कार्यकारी संपादक के तौर पर अतुल चौरसिया का पहला संपादकीय (बड़े आकार एन देखने के तस्वीर पर क्लिक करें)

जब यह साल अपनी सबसे बर्बर घटना के लिए इतिहास में जगह मुकर्रर करने की कोशिश कर रहा था, तब तहलका ने इस साल से जुड़े कुछ उजास के कोने अपने पाठकों के सामने रखने की कोशिश की है. यह वर्ष भारत और दुनिया के इतिहास के कुछ दुर्लभ व्यक्तित्वों, परिवर्तनकारी घटनाओं और संस्थाओं का महत्वपूर्ण पड़ाव रहा है. इस लिहाज से यह अंक अपनी परंपरा, इतिहास और जड़ों से जुड़ने का जरिया भी है.

2013 में तहलका हिन्दी पत्रिका ने अपनी स्थापना के पांच वर्ष पूरे किए थे. इस अवसर पर प्रकाशित पांच वर्ष की प्रतिनिधि कथाएं नामक अंक पाठकों के बीच बेहद लोकप्रिय रहा था. यह अंक पांच वर्ष की यात्रा में तहलका द्वारा अर्जित उपलब्धियों से रूबरू होने का जरिया भी बना. विशेषकर तब जब श्रोता कुछ समय उठापटक से भरा रहा था. यह अफवाहें बार-बार सुनने को मिलीं कि तहलका बंद हो चुका है लेकिन इन अफवाहों ने छोटी सी टीम के हौसले को तोड़ने के बजाय उसे एक बार फिर से खुद को साबित करने के लिए प्रेरित किया. उन्हीं जमीनी रिपोर्टों, धारदार लेखों, बारीख विश्लेषणों के जरिए जो अतीत में तहलका की पहचान रही हैं. यह वह समय था जब वापसी करने की आसान राह के तौर पर सेक्स सर्वे से लेकर शानदार रेस्तरां और आभिजात्य खान-पान की तरफ रुख किया जा सकता था, लेकिन तहलका ने फिर से कठिन राह चुनी. इसका सबूत पिछले कुछ समय में आयी वे रपटें और कहानियां हैं जिनके आधार पर आप तहलका का आकलन कर सकते हैं. असम राइफल्स में व्याप्त भ्रष्टाचार की कहानी हो, जेट एयरवेज द्वारा रसूकदार लोगों को पहुंचायी जा रही वीआइपी सुविधाओं का खुलासा हो, महिलाओं के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करते आइवीएफ करोबार का कच्चा चिठ्ठा हो या बिहार में हाल के दिनों में दलितों के साथ अनपेक्षित रूप से बढ़ी जातिगत हिंसा. इस दौरान राजनीति, फिल्म, कला और संस्कृति जगत की तमाम हस्तियों ने भी अपनी बात तहलका के माध्यम से रखी है.

इस अंक का विचार सूत्र यह है कि वर्ष 2014 का देश और दुनिया के इतिहास से अनूठा संबंध है. इसी साल आधुनिक भारत के रचयिता पंडित जवाहर लाल नेहरू की 125वीं जयंती पूरे देश ने मनाई. यह सुर साम्राज्ञी बेगम अख्तर की जन्मशती की वर्ष भी है. हिन्दी साहित्य में प्रगतिशीलता के प्रखर स्तंभ गजानन माधव मुक्तिबोध के निधन की ये पच्चासवीं बरसी है. देश में मार्क्सवादी मार्का राजनीति भी इसी साल पचासवें वर्ष में प्रवेश कर गयी है. देश के अवचेतन पर गहरी छाप छोड़नेवाली भोपाल गैस त्रासदी और भागलपुर के दंगे भी किसी ने किसी रूप में इस साल अहम् रहे हैं. यह साल अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं के लिहाज से भी महत्वपूर्ण रहा. बर्लिन की दीवार गिरने का ऐतिहासिक अवसर भी इस साल अपने पच्चीस वर्ष पूरे कर चुका है.
यह अंक उन सारी ऐतिहासिक घटनाओं, इतिहास के पड़ावों और उसे नई दिशा देनेवाली विभूतियों के छुए-अनछुए पहलुओं से साक्षात्कार का प्रयास है, और अंत में इसकी सफलता-असफलता का निर्णय आपलोगों के उपर है जो पत्रिका के इस पड़ाव तक पहुंचने के साक्षी रहे हैं.

@अतुल चौरसिया

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