रायपुर के एक चैनल आईबीसी 24 की एंकर सुप्रीत कौर अपने कर्तव्य को निभाने के लिए एक मिसाल बन गई. यह आभास होने पर भी कि महासमुंद के एक बडी सड़क दुघर्टना में जिन लोगों के गंभीर रूप से घायल या निधन होने की बात कही जा रही है, उसमें उनके पति भी शामिल है, वह अपनी भावनाओं और दुख को दबाए हुए पूरा समाचार पढती रही. वह एक पल भी विचलित नहीं हुई. मीडिया में अपने काम के प्रति समर्पण, हौसला, धैर्य नैतिकता की कितने ही प्रसंग सुनने को मिल जाते हैं. लेकिन यह घटना अपने आप में अलग है. सचमुच एक युवा नवविवाहिता को अपने जीवनसाथी के बारे मे ऐसी सूचना मिलना और फिर उसी सूचना को पढना, साथी टीवी रिपोर्टर से इनपुट लेना सब कुछ अंदर से मन को झकझोर देता है. अजीब सी बिडंबना लेकिन उन हालातों में भी कैमरे के सामने सहज रहना, अपनी उस वक्त की जिम्मेदारी को पूरा करना यही बताता है कि टीवी मीडिया में अब भी युवा किस समर्पण साहस के साथ आते हैं. वह केवल कैमरे के सामने बैठने वाली एक प्रतिमूर्ति भर नहीं होते. वहां केवल टीवी कैमरा और चौंधियाती हुई रोशनी नहीं होती, बल्कि उसमें जीवटता, साहस और धैर्य का परिचय भी होता है. ऐसे पल में जब आपको देश दुनिया में हजारों लोग देख सुन रहे होते हैं, एक एक पल संवेदनशील होता है जिम्मेदारी के अहसास का होता है. और कोई क्षण इस तरह भी झकझोर सकता है जैसे सुप्रीत के साथ हुआ. तब अपने स्तर पर ही संभलना होता है, जूझना होता है. उनके भी जज्बात हैं, उनकी भी भावनाएं हैं लेकिन जब जिंदगी के ऐसे मोड़ आते हैं तो कोई सुप्रीत कौर एक प्रेरणा बन जाती है.
सत्तर के दशक में महान शोमैन राजकपूर की एक फिल्म आई थी, मेरा नाम जोकर. फिल्म एक जोकर के मनोविज्ञान पर आधारित थी. बल्कि जोकर एक कलाकार का रूप था. वह हंसता है, हंसाता है. मगर उसकी अपनी जिंदगी में गहरा दुख होता है. जिसे वह मन ही मन महसूस करता है. उसकी आंख कभी छलकती नहीं. आंसू बाहर नहीं आते. बस वह मन के अंदर रोता है. शोमैन का यह चित्र न जाने क्यों आरके बैनर की हिट फिल्मों में नहीं आया. फिल्म नहीं चली. लेकिन राजकपूर ने अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि वह नहीं जानते कि मेरा नाम जोकर फिल्म को एक सच्ची अभिव्यक्ति, सुदर संवाद और बेहतर संगीत के बावजूद क्यों नहीं स्वीकारा गया. लेकिन वह इससे कला जगत के बहाने उस इंसान की बात कह गए जिसके अंदर गहरा दर्द है, बिछुड़ने का अहसास है, टीस है लेकिन वह इसे अपने में ही समा लेता है. इसी फिल्म में एक दृश्य है. फिल्म के जोकर को अहसास हो जाता है कि उसे बिना बताए उसका सर्कस देखने आई उसकी मां अब इस जिंदगी में नहीं रही. उसकी मां के सिवा उसका दुनिया में कोई नहीं था. लेकिन वह अपने जज्बात को काबू में रखता है, वह अपना शो करता है. गाता है, मुस्कराता है. इन बातों से अनजान दर्शक उसके लिए तालियां बजाते रहते हैं. उसका दुख शो के खत्म होने पर झलकता है वह भी दूसरे अंदाज में. थीम यही थी कि शो मस्ट गो आन. कुछ भी हो कर्तव्य भावना से पहले है.
राजकपूर की फिल्म तो पर्दे पर थी लेकिन आज यहां जिंदगी का एक सच्चा मगर दुख देने वाला दृश्य था. एक टीवी एंकर के लिए यह कर पाना, इस हालात से गुजर जाना आसान नहीं था. यहां उसके साहस हौसले की कोई छोटा इम्तिहान नहीं था बल्कि जिंदगी की सबसे बडी परीक्षा थी. वह यह जान रही थी कि जिस खबर में वह कुछ लोगों के गंभीर घायल या मारे जाने की आशंका की बात लोगों को बता रही है उसमें एक व्यक्ति उसका पति भी है. एक ऐसे दौर में जब दोनों ने वैवाहिक जीवन की शुरुआत की हो तब यह सब गहरा सदमा ही है. लेकिन सुप्रीत ने खबरों को पढना जारी रखा. टीवी खबरें देता रहा. लोग खबरों को देखते सुनते रहे. बिना यह जाने की टीवी के पर्दे पर जो युवा एंकर उन्हें कुछ बता रही है, उसकी जिदगी में क्या घट गया है. सचमुच ऐसे क्षण काल्पनिक से लगते हैं, कहानियों के लगते है, या फिर किसी टीवी घारावाहिक के लिए बुनी कहानी के लग सकते हैं. लेकिन जब वह महज काल्पनिक न होकर हकीकत होता है तो सब कुछ सिहर सा जाता है. राजकपूर के उस किरदार की तरह सुप्रीत कौर ने असली जीवन में अपने इस शो को रुकने नहीं दिया. उसने भी आसुंओं को थाम कर रखा. अपने कतर्व्य का पूरा निर्वाह किया. जिदंगी के ऐसे क्षणों को झेलकर कोई इंसान जब कुछ अनूठा कर गुजरता है तो वह एक समाज के लिए एक नई कहानी कह जाता है.
अपने चैनल के रायपुर स्टूडियो में हर सुबह की तरह सुप्रीत उस रोज भी आई थी. लेकिन वह सुबह उसके जीवन के लिए कुछ और थी. उसे मालूम नहीं था कि अगले कुछ क्षणों में उसे जीवन के सबसे मुश्किल क्षणों से गुजरना होगा. एक अजीब, कष्ट देने वाला मन को पूरी तरह विचलित करने वाली चुनौती से गुजरना होगा. ऐसे हालात जहां कोई केवल विलाप ही कर सकता है. सांत्वना, धैर्य ये सब तो बाद की चीजें हैं. वह जब खबर पढ़ रही थी तो बीच में ही महासमुंद के टीवी पत्रकार ने एक सड़क हादसे की जानकारी दी थी. ऐसे क्षण मे टीवी क चैनल हैड ने यह जानते हुए भी कि पिथौरा के पास सड़क दुर्घटना में हादसे से प्रभावित लोग कौन हैं, बडी कुशलता से नाम सामने नहीं आने दिया. लेकिन वाहन, दुर्घटना की जगह, लोगों की बाते तमाम चीजों से सुप्रीत को शक हो गया था कि जिस हादसे के बारे में जानकारी दी जा रही है उसमें उसका पति भी शामिल हैं. यूएसवी डस्टर को किसी भारी वाहन ने पीछे से टक्कर मारी थी. सुप्रीत को यह पता था कि उसके पति को अपने दोस्तों के साथ सराईपाला जाना है. इसलिए उसे यह भांपते देर नहीं लगी कि जिस घटना के बारे में पत्रकार ने जानकारी दी है वह उसके पति से जुड़ी है.
उसका मन अंदर से झकझोर गया होगा लेकिन उसके चेहरे पर एक पल के लिए भी भाव नहीं आया. वह खबरों को पढ़ती गई. स्टूडियो से बाहर आकर उसने पाया कि उसके मोबाइल फोन पर कई बार फोन किया गया है. और फिर उसे सच्चाई का सामना करना ही पडा कि दुर्घटना में गंभीर घायल बताया जा रहा उसका पति इस दुनिया में नहीं है.
पत्रकारिता जगत में झकझोरने वाली दास्तां है ये. जहां एक टीवी एंकर पति की मौत की ब्रेकिंग न्यूज पढ रही होती है. साथ ही मीडिया के प्रति उस बनी बनाई धारणा को भी दूर करती है जहां टीवी मीडिया को केवल ग्लैमर की चीज मान लिया जाता है. कल्पना कर सकते हैं कि एक नवविवाहिता टीवी एंकर किस हालात से गुजरी होगी. किस तरह की मनस्थिति बनी होगी. लेकिन उसने अपने कतर्व्य को निभाया. पल भर में जो कुछ हो गया वह सुप्रीत को जिंदगी भर का दुख दे गया लेकिन उसने जो हौसला और संयम का परिचय दिया वह मीडिया के क्षेत्र को एक सम्मान भी दे गया. खासकर तब जबकि मीडिया को समाज से जोड़कर एक बडे नैतिक कर्म और जिम्मेदारी के तौर पर देखा जाता रहा हो. आज के समय में मीडिया की वह जगह कुछ धुंधली होती जा रही है. तब ऐसे समय में सुप्रीत से जुडी इस घटना का सामना आना मीडिया को फिर से हौसला देता है और कहीं न कहीं गहरी जिम्मेदारियों का अहसास कराता है. सुप्रीत रुकी नहीं क्योंकि मीडिया रुकता नहीं. उसे समाज के लिए चलते रहना है.
कर्तव्य को निभाने की एक खबर रायपुर से आई तो साथ ही कुछ टीवी चैनलों मे एक खबर यह भी आ रही थी कि एक बस ड्राइवर ने अपनी जिंदगी को दांव पर लगाकर कई लोगो की जान बचाई. बस चलाते समय उसे दिल का दौरा पडा. लेकिन उसने बस चलाना नहीं रोका, कुछ दूर एक सुरक्षित जगह पर ले गया. सुप्रीत के जीवन की तरह यह घटना भी एक मिसाल ही बनती है. बेशक इसकी कम चर्चा हुई हो लेकिन इस जिदंगी का भी वही मकसद रहा कि अपने कर्तव्य को निभाना है. सुप्रीत को अपनी जिम्मेदारी खबर पढते हुए निभानी थी, टीवी के पर्दे को विचलित नहीं करना था. बस ड्राइवर की जिम्मेदारी अपने यात्रियों की रक्षा करनी था. दोनो अपनी कसौटियों में खरे उतरे बल्कि प्रेरणा बने. हाल में बिहार की बाढ के समय एक टीवी पत्रकार का गहरे पानी में उतर कर रिपोर्टिंग करना इसी तरह हौसले की एक कड़ी है. जिसमें अपने कर्म क्षेत्र के लिए खतरों से भी खेला जाता है.
कर्तव्य निभाने की कई दास्तांन मिलती है. सैन्य क्षैत्र में जसवंत सिंह का तो तंवाग में मंदिर भी बना है. चीन भारत युद्ध में तीन तरफ से चीनी सैनिकों से घिरे होने पर जसंवत सिंह चाहते तो अपनी चौकी को छोडकर अपन जीवन बचा सकते थे. लेकिन वह अकेले सत्तर घंटे तक जूझते रहे और आखिर शहीद हुए. अगर जसंवत का वह युद्ध कौशल अपने कर्तव्य के लिए समर्पण न होता तो चीनी सना नूरानांग क्षेत्र से बहुत नीचे तक आ जाती. नूरानांग की घाटी दो बहनों को भी याद करती हैं जो रह रहकर जसंवत सिंह को बारुद दिया करती थी. आखिर खाई में छलांग लगाकर वह भी शहीद हुई. सैन्य क्षेत्र में जसवंत सिंह या आम जीवन में एक ट्रक ड्राइवर या फिर टीवी एकंर के तौर पर सुप्रीत की निभाई गई जिम्मेदारी समाज से बहुत कुछ कह जाती है. साहस समर्पण निष्ठा के ऐसे भाव समाज को अधीर नही होने लगते. विश्वास बना रहता है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)