जिस सियासी राजनीतिक का राग नरेन्द्र मोदी ने छेड़ा है और जिस हिन्दुत्व की ढपली आरएसएस बजा रही है, कांग्रेस ना तो उसे समझ पायेगी और ना ही कांग्रेस के पास मौजूदा वक्त में मोदी के राग और संघ की ढपली का कोई काट है। दरअसल, पहली बार सोनिया गांधी और राहुल गांधी की राजनीतिक समझ नरेन्द्र मोदी की सियासत के जादू को समझ पाने में नाकाम साबित हो रही है तो इसकी बडी वजह मोदी नहीं आरएसएस है। और इसे ना तो सोनिया-राहुल समझ पा रहे है और ना ही कांग्रेस का कोई धुरंधर। अहमद पटेल से लेकर जनार्दन द्विवेदी और एंटनी से लेकर चिदबरंम तक सत्ता में रहते हुये हिन्दु इथोस को समझ नहीं पाये। और ना ही संघ की उस ताकत को समझ पाये जिसे इंदिरा गांधी से लेकर राजीव गांधी ने बाखूबी समझा। इसलिये सोनिया गांधी और राहुल गांधी की सियासत सिवाय मोदी सरकार के फेल होने के इंतजार से आगे बढ़ भी नहीं पायेगी। इसलिये कांग्रेस ना तो मोदी सरकार के लिये कोई चुनौती है ना ही संघ परिवार के लिये कोई मुश्किल। और यह चिंतन कांग्रेस में नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में हो रहा है। संघ के चितंन-मनन का दायरा कितना बड़ा है या कांग्रेस संघ की उस थाह को क्यों नहीं ले पा रही है, जिसे इंदिरा ने ७० के दशक में ही समझ लिया और राजीव गांधी ने अयोध्या आंदोलन के वक्त समझा। असल में संघ परिवार के भीतर भविष्य के भारत के जो सपने पल रहे है वह पहली बार नेहरु-गांधी परिवार के साथ अतित में रहे संघ परिवार के संबंधों से आगे देखने वाले हैं। हिन्दु राष्ट्रवाद को अध्यात्मिक तौर पर आत्मसात कराने वाले हैं।यानी हिन्दु धर्म का नाम लिये बगैर एकनाथ राणाडे की उस सोच का अमलीकरण कराना हो जो विवेकानंद को लेकर राणाडे ने १९७० में करा लिया था। लेकिन उस वक्त इंदिरा गांधी ने इस सोच की थाह को पकड़ लिया था।
असल में एकनाथ राणाडे की सौवी जंयती के मौजूदा बरस में वह सारे सवाल संघ के भीतर हिलोरे मार रहे है जिनपर अयोध्या आंदोलन के वक्त से ही चुप्पी मार ली गई और संघ की समूची समझ ही राम मंदिर के दायरे में सिमटा दी गयी। मुश्किल यह है कि काग्रेस की राजनीति बिना इतिहास को समझे भविष्य की लकीर खिंचने वाली है और संघ अपने ही अतित के पन्नो को खंगाल कर भविष्य का सपना संजो रहा है। जो कांग्रेस और तमाम राजनीतिक दल आज संघ परिवार के हिन्दु शब्द सुनते ही बैचेन हो जाते है उस हिन्दु शब्द का महत्व आरएसएस के लिये क्या है और इंदिरा गांधी ने इस शब्द को कैसे पकड़ा इसके लिये इतिहास के पन्नो को खंगालना जरुरी है। पन्नों को उलटे तो १९७० में स्वयंसेवक एकनाथ राणाडे ने जब विवेकानंद शिला स्मारक का कार्य पूरा किया तो इंदिरा गांधी ने राणाडे को समझाया कि स्वामी विवेकानंद के विचार को दुनियाभर में फैलाने और भारत को दुनिया का केन्द्र बनाने में उनकी सरकार राणाडे की मदद करने को तैयार है। बशर्ते स्वामी विवेकानंद को हिन्दू संत की जगह भारतीय संत कहा जाये। राणाडे इसपर सहमत हो गये । लेकिन तब के सरसंघचाल गुरुगोलवरकर इसपर सहमत नहीं हुये कि इंदिरा सरकार के साथ मिलकर हिन्दू संत विवेकानेद की जगह भारतीय संत विवेकानंद के लिये एकनाथ राणाडे काम करें। असर इसी का हुआ कि १९७१ की आरएसएस की प्रतिनिधि सभा में विवेकानंद शिला स्मारक की रिपोर्ट एकनाथ राणाडे ने नहीं रखी।
संघ के जानकार दिलिप देवघर के मुताबिक संघ की प्रतिनिधी सभा में विवेकानंद स्मारक शिला पर रिपोर्ट ना रखने पर स्वयसंवकों ने जब वजह जानना चाहा तो गुरु गोलवरकर की टिप्पणी थी, इनका संघ के साथ क्या संबंध।
तो पहली बार इंदिरा गांधी ने संघ की उस ताकत में सेंध लगायी जिसे मौजूदा वक्त में कांग्रेस के धुरंधर समझ पाने में नाकाम हैं। इंदिरा गांधी की सफलता इतनी भर ही नहीं थी बल्कि इसके बाद विवेकानंद केन्द्र को लेकर जो काम एकनाथ राणाडे ने शुरु किया वह इस मजबूती से उभरा कि रामकृष्ण मिशन और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सामानांतर एक बडी ताकत का केन्द्र विवेकानंद केन्द्र बनकर उभरा। यानी १९२६ में महज १२ बरस की उम्र में जो एकनाथ राणाडे आरएसएस के साथ जुड गये और जिन्होंने १९४८ में संघ पर लगे प्रतिबंध के दौर में गुरु गोलवरकर के जेल में रहने पर सरदार पटेल के साथ मिलकर तमाम समझौते किये। बालासाहेब देवरस और पी बी दाणी के साथ मिलकर आरएसएस का संविधान लिखा। जिसके बाद संघ पर से प्रतिबंध उठा। उस एकनाथ राणाडे को अपनी राजनीति से इंदिरा गांधी ने साधा। हालांकि गुर गोलवरकर की मृत्यु के बाद बालासाहेब देवरस ने बैगलोर में संघ की सभा में एकनाथ राणाडे को हाथ पकड़कर साथ बैठाया और उसके बाद से विवेकानंद केन्द्र पर रिपोर्ट देने का सिलसिला शुरु हुआ। लेकिन यहा समझना यह जरुरी है कि राणाडे के शताब्दी वर्ष में ९ नवंबर २०१४ को अगर प्रधानमंत्री मोदी दिल्ली के विज्ञान भवन के कार्यक्रम में शिरकत करते है और तीन दिन पहले नागपुर के न्यू इंग्लिश हाई स्कूल में सरसंघचालक मोहन भागवत भी एकनाथ राणाडे को याद कर स्वामी विवेकानंद के विचारों को ही देश में फैलाने के जिक्र कर हिन्दुत्व का सवाल उठाते हैं तो फिर इसके दो मतलब साफ है। पहला, संघ परिवार अब हिन्दू इथोस की उस सोच को देश मे पैदा करना चाहता है जिक्र जिक्र विवेकानंद ने किया और जिस सोच को राणाडे विवेकानंद के जरीये देश में फैलाना चाह रहे थे। और दूसरा कांग्रेस आज इस हिन्दू इथोस को समझ नहीं पा रही है कि आखिर नेहरु गांधी परिवार हमेशा हिन्दुत्व को लेकर नरम रुख क्यों अपनाये रहा।
दरअसल इंदिरा गांधी ने इमरजेन्सी के दौर में जेपी के साथ आरएसएस के जुड़ने को भी खतरे की घंटी माना । यह वजह है कि १९८० में सत्ता वापसी के बाद इंदिरा गांधी ने खुले तौर पर हिन्दुत्व को लेकर साफ्ट रुख अपनाया । सत्ता संबालने के बाद विदर्भ जाकर इंदिरा गांधी ने विनोबा भावे के पांव छुये। उस दौर में उन्होने संघ की ताकत को लेकर विनोभा भावे से जिक्र किया । संघ के सामाजिक संगठनों को ही आरएसएस के भीतर संघर्ष कराने के हालात भी पैदा किये। असल में संघ परिवार के भीतर अब इस सवाल को लेकर मंथन चल रहा है कि विश्व हिन्दु परिषद को तो अध्यात्मिक रुख अदा करना था लेकिन अयोध्या आंदोलन को लेकर विहिप का रुख राजनीतिक कैसे हो गया। सच यह भी है कि विहिप के राजनीतिकरण में भी इंदिरा गांधी की बड़ी भूमिका रही। जिन्होंने धीरे धीरे विहिप के आंदोलन को राजनीति के केन्द्र में ला खड़ा किया। जिसे राजीव गांधी ने अयोध्या आंदोलन के दौर में शिला पूजन पर विहिप के साथ समझौता कर आगे भी बढाया और रज्जू भैया के साथ समझौते की दिशा में कदम भी बढाये। ध्यान दें तो राजीव गांधी ने एक साथ दो-तरफा सियासी बिसात बिछायी । एक तरफ सैम पित्रोदा के जरीये तकनीकी आधुनिकीकरण तो दूसरी तरफ बहुकेन्र्दीय सांप्रदायिकता । शाहबानो मामला, अयोध्या में शिला पूजन और नार्थइस्ट में मिशनरी। ध्यान दें तो मौजूदा कांग्रेस में ना तो सोनिया गांधी हिन्दु इथोस को समझ पायी है और ना ही राहुल गांधी काग्रेस के नरम हिन्दुत्व रुख के कारणो को समझ पाये। इसलिये जिस स्वामी विवेकानंद की धारा को इंदिरा गांधी ने संघ के ही स्वयसेवक एकनाथ राणाडे के जरीये की संघ के हिन्दुत्व पर चोट कर सामानांतर तौर पर खड़ा किया आज वही विवेकानंद केन्द्र मोदी सरकार की थिंक टैक हैं। और कांग्रेस की समझ से यह सियासत कोसो दूर है। असल में कांग्रेस की दूसरी मुश्किल तकनीक के विकास के जरीये विचारधारा और समाज में परिवर्तन की समझ भी है। इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के संबंध एल्विन टोफलर से भी रहे। दोनों ही भविष्य की राजनीति में तकनीक और टेकनाक्रेट दोनो की जरुरत को समझते थे। और आरएसएस के भीतर भी यह समझ खासी पुरानी रही है। १९९८ में संघ के चिंतन बैठक में बकायदा एचवी शेषार्दी ने बाल आप्टे और केरल के वरिष्ठ स्वयंसेवक परमेशवरन के जरीये एल्विन टॉफलर की किताब वार एंड एंटी वार और हेलिग्टन की क्लैशस आफ सिविललाइजेशन पर एक पूरा सत्र किया। यानी सोलह बरस पहले ही भविष्य के बारत को लेकर जो सपना भी संघ के भीतर चिंतन के तौर पर उपज रहा था वह नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद कैसे लागू होगी या कैसे लागू की जा सकती है इस दिशा में काम लगातार चल रहा है। न्यूयार्क, सिडनी के बाद अब लंदन में भी प्रदानमंत्री मोदी की सार्वजनिक सभा के आयोजन में संघ का कोर ग्रूप लगा हुआ है इससे इंकार नहीं किया जा सकता। आज की तारीख में बकायदा हर एनआरआई स्वयंसेवक की पूरी जानकारी संघ-बीजेपी के कम्प्यूटर में मौजूद है, जिनसे संपर्क कर मोदी सरकार का साथ और संघ के हिन्दू राष्ट्र के सपने को जगाने में एक मेल यानी कंप्यूटर की चिट्टी ही काफी है । जो विदेशी स्वयंसेवकों में राष्ट्रप्रेम जगा देती है। इसी तर्ज पर अब दुनिया के हर हिस्से में में मौजूद भारतीयो की सूची भी अब संघ-बीजेपी तैयार कर रही है।
जाहिर है अगर तकनीक के आसरे संवाद बन सकता है और विदेश में रह रहे भारतीयो पर एक मेल से राष्ट्रप्रेम जाग सकता है तो संकेत साफ है कि डिजिटल क्रांति,संचार क्रांति और तकनीकी संबंध के आसरे भविष्य के भारत को बनाने की दिशा में संघ की पहल मोदी सरकार के आसरे जिस रफ्तार पर चल पड़ी है उसमें कांग्रेस कहां टिकेगी और बाकि राजनीतिक दलो की सोच कैसे असर डालेगी। क्योंकि कांग्रेस के भीतर भारतीय संस्कृति के उन सवालो को समझने वाला और सोनिया-राहुल गांधी को समझाने वाले कितने कांग्रेसी हैं, जो बता पाये कि नेहरु ने पारसी दामाद होने के बावजूद इंदिरा को हिन्दु रखकर भारत के सियासत के मर्म को समझा। इंदिरा गांधी ने ईसाई बहू होने के बावजूद राजीव गांधी को हिन्दू रखकर भारत के हिन्दू इथोस को समझा। और सोनिया-राहुल के दौर में संघ परिवार को आंतक के कटघरे में खडा कर हिन्दू शब्द पर ही सवालिया निशान लगाया गया। तो संकेत साफ है हिन्दू शब्द पर ही राजनीति बंटेगी तो कांग्रेस की हथेली खाली रहेगी।
(लेखक के ब्लॉग से साभार)