बतकही : पिछले साल टेलीविजन की भाषा पर एक किताब आयी थी. किताब के लेखक ने शुरूआती लाइनों में ही टेलीविजन की शब्द सीमा 1000 -1500 शब्दों तक में बाँध दी.
उन्होंने लिखा कि यदि आप इतने शब्द जान गए तो समझ लीजिए कि हिंदी के अच्छे टेलीविजन पत्रकार बन गए. हालाँकि ये बेहद विवादास्पद लाइनें हैं. लेकिन कई बार ये लगता है कि शायद सच भी है.
ऐसा हिंदी चैनलों के दिग्गज पत्रकारों के कारण लगता है. वजह इनका एक ही शब्द को बार – बार दुहराना है. ये शब्द इनका तकिया –कलाम बन गए हैं और इनकी आदत में कुछ ऐसे शामिल हो गयी है कि 50 मिनट के कार्यक्रम में एक – डेढ़ दर्जन बार तो बोल ही देते हैं.
हालाँकि ये ऐसे पत्रकार जिन्हें भाषाई तौर पर बहुत सक्षम पत्रकार माना जाता है और ऐसा ये भाषा समस्या या शब्दों की कमी के कारण नहीं बल्कि आदतन करते हैं.
मसलन प्रख्यात टेलीविजन पत्रकार और एंकर पुण्य प्रसून बाजपेयी को बार – बार ‘दरअसल’ कहने की आदत है. दरअसल के अलावा ‘कहीं – न – कहीं’ शब्द भी दर्जनों बार बोल देते हैं और इस वजह से कई बार ये शब्द चुभने सा लगता है.
चुकी पुण्य प्रसून बेहतरीन एंकर हैं इसलिए दर्शक उनके शो को देखते ही देखते हैं. लेकिन ये शब्द कहीं – न – कहीं तो अटकता ही है.
लेकिन लगता है कि अब ये बीमारी पुण्य प्रसून से होते हुए रिपोर्टर से एंकर बन ख्याति प्राप्त कर चुके एनडीटीवी के रवीश कुमार में भी फैल चुकी है. ठीक स्वाइन फ्लू की तरह.
आप गौर करेंगे तो पायेंगे कि रवीश कुमार भी एंकरिंग के दौरान कई शब्दों को बार – बार इस्तेमाल करते हैं. लेकिन उनका सबसे प्रिय शब्द है – ‘ठीक है’. प्राइम टाइम में वे दर्जनों बार ‘ठीक है – ठीक है’ शब्द का इस्तेमाल कर, ठीक है को बुरी तरह से घिस देते हैं.
क्या अच्छा होता कि रवीश कुमार ‘ठीक है’ को थोड़ी राहत दे देते और किसी दूसरे शब्द पर मेहरबानी कर देते. नहीं तो दर्शक कहेंगे, देखो रवीश कुमार को भी पुण्य प्रसून की बीमारी लग गयी, कहीं – न – कहीं. वैसे बहस के दौरान हामी में ‘हूँ’ का हाल भी बेहाल हो जाता है. ठीक कहा न रवीश बाबू.
हैप्पी वैलेंटाइन डे !
अगर ऐसे ही देखना है तो आशुतोष जी भी तो…बट… बट … लेकि
का खूब इस्तेमाल करते हैं।
कुछ भी हो ये सभी लो अच्छे पत्रकार हैं।
इस मामल में अजीत अंजुम का जवाब नहीं । एक भी शब्द रिपिट नहीं करते। जानकारी के साथ ही भाषा ज्ञान भी है