अरविंद शेष
हंस के वार्षिक गोष्ठी में अरुंधती रॉय के न आने पर उठे विवाद पर अरविंद शेष की एक टिप्पणी :
“हंस” की सालाना गोष्ठी में जिस तरह अंधेरे में रख कर न सिर्फ श्रोताओं, बल्कि अरुंधति राय और वरवरा राव तक को बुलाया गया कि इसमें गोविंदाचार्य भी मौजूद होंगे, वह राजेंद्र यादव के और आजकल फैशन में आ रहे चालबाज लोकतंत्र का एक और उदाहरण है।
दरअसल, लोकतंत्र के नाम पर आजकल एक छिपे हुए एजेंडे के तहत कुछ प्रतिगामी ताकतों को भी ससम्मान मुख्यधारा में जगह दिलाने, उसे स्वीकृति और वैधता दिलाने की सचेत कोशिश हो रही है।
“पाखी” पत्रिका में विभूति राय के साथ कथित टॉक शो और उसमें मैत्रेयी पुष्पा की मौजूदगी के बाद “हंस” की यह कोशिश (पिछले साल भी विश्वरंजन-प्रकरण) इसी एजेंडे के तहत संचालित थी।
सवाल है कि किसी गोविंदाचार्य, विश्वरंजन, विभूति राय जैसों को अरुंधति या इस तरह के किसी भी व्यक्ति के साथ बैठने में कोई हिचक क्यों नहीं होती? वे सहर्ष तुरंत क्यों तैयार हो जाते हैं?
क्या ये लोग अरुंधति या इस स्टैंड के साथ खड़े लोगों के मुकाबले ज्यादा उदार और लोकतांत्रिक हैं?
तब फिर सबसे ज्यादा लोकतांत्रिक और उदार नरेंद्र मोदी को मानना पड़ेगा, क्योंकि अरुंधति के नाम की घोषणा करके नरेंद्र मोदी जैसे किसी भी कत्लेआम-प्रेमी को न्योता भेजिए, मेरा दावा है कि वह दौड़ा चला आएगा।
मामला विश्वसनीयता और जनपक्षधरता का है। जो गैरभरोसेमंद और बेईमान है, उसे भरोसेमंदों और ईमानदारों का साथ खड़ा दिखने का हर मौका चाहिए और जो ईमानदार और भरोसेमंद हैं, उनका खुद पर भरोसा बनाए रखने के लिए जरूरी है कि वे चुनें कि कहां जाना है और कहां नहीं।
लोकतंत्र के नाम पर जिस तरह का खेल आजकल साहित्यिक और बौद्धिकता के कुछ हलकों की ओर से खेलने की कोशिश हो रही है, वह किसी गुप्त वैचारिक लेन-देन का नतीजा लगती है। संवाद का मतलब समझौता नहीं होता। स्वतंत्र मंच से अपनी बात कहने से भी लोकतंत्र को कोई हानि नहीं होगी, बल्कि उसे एक भरोसेमंद चेहरा मिलेगा।
(पत्रकार अरविंद शेष के फेसबुक वॉल से साभार)