कुमार सुनील
मालिकों के हाथों मजबूर राजदीप सरदेसाई के हाथ क्या इतने बंधे हैं?
पत्रकारिता करनी है तो कॉर्पोरेटर बनना पड़ेगा
सीएनएन-आईबीएन की बात छोड़िए, अंग्रेजी में है, लेकिन आईबीएन-7 ने पिछले कुछ सालों में जो मुकाम हासिल किया, वो चौंकाने वाला है. लड़ने-जूझने की एक प्रवृति. उस प्रवृति के ठीक उलट मीडिया की एक बात मुझे अचंभित करती रहीं है कि कैसे आधे घंटे के स्लॉट पर द वर्ल्ड दिस वीक का प्रोगाम चलाने वाले प्रणय रॉय इंडिया में मीडिया मर्डोक बन गए ? उन्हीं के चैनल पर सबसे पहले देखा था राजदीप सरदेसाई को, दिबांग को–वाकपटु
ता का कायल तो होना ही था. जिस तेवर कलेवर में उनकी रिपोर्टिंग देखी, ‘मुकाबला’ देखा तो लगा, बस यही चाहिए. राष्ट्रीय और सामाजिक कुरीतियों की ऐसे ही बजाते रहो. कुरितियों की कितना बजा पाए, यह हम आज देख रहे हैं. उलटे, जिनपर कुरितियों को बजाने की जिम्मेदारी थी वो खुद उन्हीं कुरितियों का शिकार होते रहे, हो गए.
इन सबके बीच आशुतोष ने जयपुर में साहित्यकारों को बीच जो तेवर दिखाए, उससे लगा कि उम्मीद बाकी है, उससे पहले पुण्य प्रसून ने अपने काले बुलेटिन के बाद जो रास्ता अख्तियार किया, उससे भी लगा कि उम्मीद बाकी है और तब शायद सबसे पहले या कमोबेश उसी समय दीपक शर्मा ने खुर्शीद के सामने जो हिमाकत की, लगा, अभी पत्रकारिता में सबकुछ खत्म नहीं हो गया, सब बिक नहीं गए. मैं भी अपने न्यूजरूम में था, दीपक को सलाम करते हुए, उनकी हिम्मत, हिमाकत के लिए. इसी बीच कुछ समय के लिए रवीश की बेहतरीन पेशकश ‘रवीश की रिपोर्ट’ बंद कर दी गई, रवीश ने कहीं कुछ लिखा, जो संस्थान के हित के खिलाफ गया, उन्हें हटाना पड़ा.
ठीक है, प्रणय रॉय कॉर्पोरेटर बन गए, राजदीप भी कॉर्पोरेटर बन गए, सफेद कॉलर काला पड़ता गया, सब चुपचुप देखते रहे. राजदीप आप भी देखते रहे. बदलने की प्रक्रिया कुछ इस कदर चलती रही कि आप सब पत्रकारिता के सिरमौर पर गए. हम सब अचंभित, जड़-स्तब्ध-भाव से आपको देखते रहे, कुछ-कुछ ये भाव वैसा ही था कि मानो किसी पिछड़े गांव के अनपढ़ गंवार बच्चे को लाकर कनॉट प्लेस के आसपास की ऊंची-ऊंची बिल्डिंगों के बीच छोड़ दिया गया हो. गाड़ियों की चिल्ल-पों के बीच डरता सहमता बच्चा कहां जाए, यह उसकी समझ से बाहर. नोएडा फिल्म सिटी में तब सीएनएन आईबीएन का दफ्तर जब नयी बिल्डिंग में शिफ्ट हुआ तब मैं वहां गया और चमचमाती बिल्डिंग की पहली सीढ़ी पर कदम धरने से पहले अपने चप्पल झाड़े थे, कहीं टाइल्स न मैली हो जाए. तब क्या पता था कि दरअस्ल पत्रकारिता की पूरी बुनियाद ही यहां काली हो चुकी है.
इस बिल्डिंग के ठीक अपोजिट, सड़क के उस पार थोड़ा आगे बढ़ने पर आईबीएन 7 का दफ्तर भी कुछ-कुछ हिंदी पत्रकारों सा बाहर से दिखता है—बुढ़ाते हिंदी पत्रकारों की धूल धक्कड़ से सनी सफेद डाढ़ी की माफिक, लेकिन फ्रेंच कट्स को उनकी हकीकत बताने को उतावला। यहां सवाल यह है कि अगर धूल-धक्कड़ से सनी सफेद दाढ़ी अचनाक फ्रेंच कट में मॉर्फ हो जाए तब क्या होगा—तब यहीं लिखना पड़ेगा कि हम सब मालिकों के हाथों मजबूर है. मालिकान अपने हिसाब से चलना चाहते हैं. यह लिखने में कलम ही नहीं चलेगी कि मैं मालिकों को हिसाब से नहीं चलूंगा क्योंकि वो अनैतिक चाल सुझा रहे हैं.
विनोद कापड़ी ने सही लिखा. जी न्यूज में उन्होंने हिम्मत दिखाई थी तब कुछ पत्रकारों की नौकरी चली गयी, कुछ की बच गई. कुछ की तो उन्होंने बचा ली, विरोध तो जताया उस व्यवस्था के खिलाफ जो हर किसी को हलाल करने पर आमदा है. कापड़ी जी, मैंने भी अपने संस्थान में विरोध जताया. पत्रकारिका का प तक नहीं जानने वाले हमारे एचआर साहब ने कुछ लोगों को चलता करने के लिए बंदूक मेरे कंधे पर रखी, बुलाकर कहा कि चलता करो. मैंने अपने इस्तीफे की शक्ल में इनकार किया. किसी-न-किसी को हिम्मत तो दिखानी पड़ेगी. मुंबई में आउटलुक वालों ने हिम्मत दिखाई, हाईकोर्ट से प्रबंधन के खिलाफ स्टे-ऑर्डर ले आए, तो आईबीएन के मित्र क्यों नहीं ला सकते ? राजदीप अगर खुद को पत्रकार कहते हैं तो सवाल है कि क्या इतना लिख भर देने से या ट्वीट कर देने से कि हमारे हाथ बंधे हुए हैं, हम मालिकों के हाथों मजबूर हैं, काम चल जाएगा ?
(कुमार सुनील )