साक्षात्कार के वक़्त राहुल गाँधी का बगली झाँकना कमज़ोरी का प्रतीक

रमेश यादव

rahul arnab iv final2नई दिल्ली । मई 2013 से टीवी नहीं देख रहा हूँ। हाँ ! अख़बार नियमित पढ़ता हूँ । इसके अलावा हमारे लिए सोशल मीडिया सूचना का मुख्य स्रोत है। आज के टाइम्स आॅफ इंडिया (TOI) में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी का साक्षात्कार देखा। मूल साक्षात्कार Times Now चैनल के लिए उसके editor -in -chief Arnab Goswami ने लिया है। इस साक्षात्कार को हमने YouTube पर देखा-सुना। राहुल गांधी 2004 में सांसद बने। क़रीब 10 साल के संसदीय-राजनैतिक जीवन में पहली बार किसी टीवी चैनल को साक्षात्कार दिये हैं। राजनैतिक विकास के लिए किसी भी सांसद के लिए,दस साल का संसदीय जीवन कम नहीं होता । ख़ास तौर पर जब उसके हाथ में किसी राष्ट्रीय पार्टी की सम्पूर्ण बागडोर हो और वह भावी प्रधानमंत्री पद का अघोषित उम्मीदवार हो,उसके सामने तो और भी चुनौतियाँ होती हैं।

राहुल गांधी ने समय-समय पर जो ‘पॉलिटिकल स्टंट’ किया,उससे उन्हें मीडिया कवरेज तो मिला,लेकिन वो उस तरह ‘पॉलिटिकल ग्रोथ’ और प्रयोग नहीं कर पाये,जैसे की उनसे अपेक्षा की जाती है। ख़ास तौर पर तब,जब वो कांग्रेस की तरफ़ से राष्ट्रीय नेतृत्व का दावेदार हों।

राहुल गांधी का अब तक का ‘पॉलिटिकल स्टैंड’,’स्टंट’ भरा रहा है। बहुत ज़मीनी बदलाव और सामाजिक,राजनैतिक और आर्थिक परिवर्तन का एजेंडा प्रस्तुत करने में या तो वो पिछड़ रहे या फिर असमंजस में हैं। सिर्फ़ सूचना का अधिकार,मनरेगा,शिक्षा का अधिकार,खाद्य सुरक्षा बिल और कुछ अन्य बिल के सहारे राहुल गांधी UPA -3 की दावेदारी करने का कसरत कर रहे हैं। महँगाई,भ्रष्टाचार और कांग्रेस की जनविरोधी नीतियों की वजह से पूरे मुल्क में जिस तरह का जन असंतोष और आक्रोश व्याप्त है। ऐसी स्थिति में राहुल गांधी के सामने एक नहीं,कई तरह की चुनौतियाँ मुँह बायें खड़ी हैं। हम यहाँ कांग्रेस और राहुल गांधी का मूल्याँकन या उनका विश्लेषण नहीं कर रहे हैं,बल्कि उनके द्वारा दिये गये साक्षात्कार में जो कमज़ोरियाँ दिखीं,उस पक्ष को उद्घाटित कर रहे हैं।

TOI को दिये Interview को देखने के बाद ऐसा लगा कि राहुल गांधी टीवी पर राजनैतिक ख़बरों ख़ास तौर पर टीवी पर प्रसारित राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय नेताओं के साक्षात्कार को या तो नहीं देखते हैं या फिर देखते हैं तो उनसे सीखने की कोशिश नहीं करते हैं या कम करते हैं या नज़रअंदाज़ करते हैं। UPA-1 और UPA -2 जब सब कुछ दाँव पर लगाकर अमरीका से रिश्ता बना सकता है और ‘न्यूक्लिअर बिल’ पास करा सकता है तो फिर ‘प्रेसिडेंट ओबामा’ से राहुल गाँधी ‘भाषण कौशल’ क्यों नहीं सीख सकते ?

राहुल गांधी जब से पार्लियामेंट मेम्बर बने हैं,तब से यदि मीडिया को फ़ेस किये होते। उसके साख दोस्ताना रिश्ता रखे होते तो शायद अब तक खुल गये होते। उन्हें इतनी असहज स्थिति का सामना न करना पड़ता,जैसा देखकर लगा। साक्षात्कार के दौरान पूछे गये सवालों का जवाब देते समय बार-बार राहुल गाँधी का नज़रें झुकाना,इधर-उधर देखना और नाक रगड़ना । आत्मविश्वास की कमी और कमज़ोर तैयारी को प्रदर्शित कर रहा था। आमतौर पर हर सवाल का जवाब हमेशा,पूछने वाले की आँखों में आँख डालकर देने की आदत को आत्मविश्वास से परिपूर्ण माना जाता है। राहुल गाँधी में इस ख़ूबी का अभाव दिखा ।

पूरे साक्षात्कार के दौरान राहुल गांधी के चेहरे पर तनाव और घबड़ाहट छायी रही । हर सवाल का जवाब देते वक़्त वो असहज,असंतुलित और असंयमित दिखे। यह सिर्फ़ राहुल गांधी की अकेले की कमज़ोरी नहीं है,बल्कि पार्टी के सलाहकारों और कांग्रेस मीडिया मैनेजरों का कुप्रबंधन भी साफ़ झलकता है। यहाँ राहुल गांधी एक पार्टी का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। वो पार्टी जिसकी स्थापना 1885 में हुई और जिसने 45-50 साल तक इस देश पर राज किया है। राहुल गांधी कांग्रेस पार्टी की तरफ़ से भविष्य के प्रधानमंत्री के एक मात्र दावेदार हैं। राहुल गांधी ने पूछे गये सर्वाधिक सवालों का सीधा और सटीक जवाब देने की बजाय दायें-बायें फिसलते रहे। उनका जवाब बच निकलने का था। साम्प्रदायिकता से लड़ने की,उनकी तैयारी कमज़ोर दिखी। साम्प्रदायिकता के ख़िलाफ़ एक मात्र राष्ट्रीय विकल्प बनने की कोशिश भी नहीं दिखी । एक देश के राष्ट्रीय नेतृत्व,एक पार्टी द्वारा अघोषित प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के पूरे वार्तालाप में न केवल आत्मविश्वास,बल्कि तथ्य की भी बेहद कमी दिखी। राहुल गांधी बहुत लोकप्रिय,जनपक्षधर,परिवर्तनकारी,ज़मीनी और सर्वमान्य राष्ट्रीय विचार पेश करने में कमज़ोर दिखे । कांग्रेस की जो राजनैतिक संस्कृति रही है,उसमें राहुल गांधी को कांग्रेस का सर्वमान्य नेता मानना और खेवनहार बनना निश्चित है। इस लिहाज़ से राहुल गांधी को राष्ट्रीय क़द विकसित करना और राष्ट्रीय ऊर्जा का संचार करना,उनके राजनैतिक करियर के लिए बेहद ज़रूरी है। सिर्फ़ दूसरी पार्टियों पर व्यक्तिवाद का आरोप लगाने मात्र से राहुल गांधी,व्यक्तिवाद और परिवारवाद के दाग-धब्बे को धोने में शायद न कामयाब हों। इसके लिए ज़रूरी होगा कांग्रेस के अंदर और बाहर आंतरिक और बाहरी लोकतंत्र को स्थापित करना । यह संजय सिंह जैसे सांसद को,असम के रास्ते राज्य सभा भेजने से कांग्रेस में लोकतंत्र की बहाली नहीं मानी जायेगी। यह ऊपर से नीचे की तरफ़ थोपा गया निर्णय माना जायेगा। राहुल गांधी को सम्पूर्ण मूल्याँकन की ज़रूरत है। पार्टी में परिवर्तन करने की ज़रूरत है। सब कुछ के बावजूद एक दशक बाद ही सही राहुल गाँधी का किसी चैनल के साथ खुलकर बातचीत करने का निर्णय सराहनीय है। इसको निरंतर जारी रखना चाहिए ।

(लेखक मीडिया शिक्षक हैं और इग्नो से जुड़े हुए हैं)

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