विनीत कुमार
संस्कृति के इन उत्पादों को धर्म और संस्कार का हिस्सा मान लेना( अभी आप धर्म और संस्कार की व्याख्या छोड़ दीजिए, आस्था-अनास्था का सवाल भी) दरअसल पॉपुलर संस्कृति को न समझ पाने की भारी गड़बड़ी यहीं से शुरु होती है. ऐसा करके हम कंटेंट के कुछ हिस्से पर केन्द्रित होकर बाकी के हिस्से को पूरी तरह नजरअंदाज कर देते हैं. हमें धर्म और संस्कार का विस्तार दिखाई देता है जबकि वो पॉपुलर संस्कृति के उद्योग का विस्तार होता है. अब जिस डीजे/ गवैये टीम को अल्कोहल की जगह ठंडई और मुर्गी की जगह भोले बाबा कर देनेभर से उतने ही माल मिलते हैं, उसे भला बदलने में क्या हर्ज है ? जिस कार्टून नेटवर्क और अमेरिका की एनीमेशन कंपनियों को डोरेमान,पोकेमान,वेन्टन के बदले छोटा भीम, बाल हनुमान प्रसारित होने पर उतना ही मुनाफा है तो भारतीय दर्शकों को ऐसा करने में उसे क्या जाता है? लेकिन क्या बतौर मीडिया और संस्कृति के अध्येता के नाते हम इसमे संस्कार औऱ परंपरा का विस्तार खोजने लगने की कवायद से इस पूरे संस्कृति उद्योग को समझ पाते हैं बल्कि संस्कृति से अर्थशास्त्र,मार्केटिंग, पैकेजिंग आदि माइनस करके हम सही समझ बना पाते हैं ?
अभी थोड़ी देर पहले राहुल देव ने अपनी वॉल पर मेट्रो में सफर कर रहे एक ऐसे युवक के बांह की तस्वीर लगायी जिसने संस्कृत के श्लोक गोदवाए हुए थे. हालांकि ये श्लोक भी गलत-सलत हैं जिसकी तरफ कविताजी (DrKavita Vachaknavee ) ने ध्यान दिलाया. खैर, राहुल देव इस युवक के इस काम से इतने अभिभूत हैं कि हमलोगों को शाबासी देने की अपील कर रहे हैं क्योंकि इसने सुरुचि, संस्कार और साहस( अनुप्रास अंलकार) का परिचय दिया है. इसे साहस और संस्कार के बजाय पॉपुलर संस्कृति का हिस्सा मानने पर राहुल देव का मुझसे प्रश्न है कि- विनीत, यह ‘पॉपुलर कल्चर’ और पॉपुलर हो जाए तो क्या बेहतर न होगा…
क्या जवाब दूं ? लेकिन इतना तो जरुर कह सकता हूं बिल्कुल पॉपुलर हो जाए और आपकी कामना ठीक-ठीक निशाने पर बैठती है तो बल्कि जल्दी हो जाए लेकिन क्या पॉपुलर संस्कृति के कोई भी घटक इसी तरह कामना भर से पॉपुलर होते हैं और इस बीच अगर श्लोक की जगह इंडियन फक्कर पॉपुलर होने लग जाए तो संस्कार की कामना करनेवाले लोगों के हाथ में होता है कि वो ऐसा होने से रोक लें( अब तो शिवसेना भी ऐसा करने में नाकाम हो जाती है). दरअसल पॉपुलर ढांचे के भीतर इस तरह की कामना संस्कृति के मौजूदा रुप को खंडित करके देखने जैसा है और एक तरह से स्वार्थलोलुप नजरिया भी जबकि ये काम इस तरह से करता नहीं है. दूसरी बात