विनीत कुमार
मैं तो तंदूरी मुर्गी हूं यार, कटाके ले सइयां अल्कोहल से की जगह भोले भंडारी तो हैं मस्तमौला,टिका ले मत्था ठंडई चढ़ाके या फिर जुम्मे के दिन किया चुम्मे का वादा, लो आ गया अब जुम्मा, चुम्मा दे दे की जगह पिछले सावन में मांगी थी मन्नत,लो आ गया अब सावन-सावन, कांवर-कांवर ले ले, कांवडिया कांवर ले ले. गाने में सब कुछ जस का तस रखते हुए सिर्फ बोलभर बदल देने से जो सांस्कृतिक माल भारतीय संस्कार और परम्परा का पतन कर रहा था, कुछ लोगों के लिए चट से वो धर्म के विस्तार का हिस्सा बन जाता है. ये अलग बात है कि इसकी ट्यून मिक्सिंग इतनी स्मार्टली की जाती है कि दूर से आप सुने तो आपको कटका ले सइयां अल्कोहल से ही बजने का भान होगा. कमलानगर, डेरावलनगर,नत्थपुरा सहित दिल्ली के बाकी इलाकों में बीचोंबीच सड़क बिछाकर जो आए दिन माता जागरण आप देखते-सुनते हैं,वो ऐसे ही उदाहरण हैं. लेकिन
संस्कृति के इन उत्पादों को धर्म और संस्कार का हिस्सा मान लेना( अभी आप धर्म और संस्कार की व्याख्या छोड़ दीजिए, आस्था-अनास्था का सवाल भी) दरअसल पॉपुलर संस्कृति को न समझ पाने की भारी गड़बड़ी यहीं से शुरु होती है. ऐसा करके हम कंटेंट के कुछ हिस्से पर केन्द्रित होकर बाकी के हिस्से को पूरी तरह नजरअंदाज कर देते हैं. हमें धर्म और संस्कार का विस्तार दिखाई देता है जबकि वो पॉपुलर संस्कृति के उद्योग का विस्तार होता है. अब जिस डीजे/ गवैये टीम को अल्कोहल की जगह ठंडई और मुर्गी की जगह भोले बाबा कर देनेभर से उतने ही माल मिलते हैं, उसे भला बदलने में क्या हर्ज है ? जिस कार्टून नेटवर्क और अमेरिका की एनीमेशन कंपनियों को डोरेमान,पोकेमान,वेन्टन के बदले छोटा भीम, बाल हनुमान प्रसारित होने पर उतना ही मुनाफा है तो भारतीय दर्शकों को ऐसा करने में उसे क्या जाता है? लेकिन क्या बतौर मीडिया और संस्कृति के अध्येता के नाते हम इसमे संस्कार औऱ परंपरा का विस्तार खोजने लगने की कवायद से इस पूरे संस्कृति उद्योग को समझ पाते हैं बल्कि संस्कृति से अर्थशास्त्र,मार्केटिंग, पैकेजिंग आदि माइनस करके हम सही समझ बना पाते हैं ?
अभी थोड़ी देर पहले राहुल देव ने अपनी वॉल पर मेट्रो में सफर कर रहे एक ऐसे युवक के बांह की तस्वीर लगायी जिसने संस्कृत के श्लोक गोदवाए हुए थे. हालांकि ये श्लोक भी गलत-सलत हैं जिसकी तरफ कविताजी (DrKavita Vachaknavee ) ने ध्यान दिलाया. खैर, राहुल देव इस युवक के इस काम से इतने अभिभूत हैं कि हमलोगों को शाबासी देने की अपील कर रहे हैं क्योंकि इसने सुरुचि, संस्कार और साहस( अनुप्रास अंलकार) का परिचय दिया है. इसे साहस और संस्कार के बजाय पॉपुलर संस्कृति का हिस्सा मानने पर राहुल देव का मुझसे प्रश्न है कि- विनीत, यह ‘पॉपुलर कल्चर’ और पॉपुलर हो जाए तो क्या बेहतर न होगा…
क्या जवाब दूं ? लेकिन इतना तो जरुर कह सकता हूं बिल्कुल पॉपुलर हो जाए और आपकी कामना ठीक-ठीक निशाने पर बैठती है तो बल्कि जल्दी हो जाए लेकिन क्या पॉपुलर संस्कृति के कोई भी घटक इसी तरह कामना भर से पॉपुलर होते हैं और इस बीच अगर श्लोक की जगह इंडियन फक्कर पॉपुलर होने लग जाए तो संस्कार की कामना करनेवाले लोगों के हाथ में होता है कि वो ऐसा होने से रोक लें( अब तो शिवसेना भी ऐसा करने में नाकाम हो जाती है). दरअसल पॉपुलर ढांचे के भीतर इस तरह की कामना संस्कृति के मौजूदा रुप को खंडित करके देखने जैसा है और एक तरह से स्वार्थलोलुप नजरिया भी जबकि ये काम इस तरह से करता नहीं है. दूसरी बात
राहुल देव जिस कामना से इसके पॉपुलर होने की बात कर रहे हैं क्या वो कामना ऐसे पॉपुलर घटक से पूरी होती है या फिर वो उसी तरह से गंड़े-ताबीज जैसा एक उत्पाद बनकर रह जाता है जिसकी दूकान आसाराम बापू जैसे दागदार महंत धर्म के नाम पर चला रहे हैं. हमें पॉपुलर कल्चर की व्याख्या करते समय ये बात बारीकी से समझनी होती है कि इसके कंटेंट का संबंध इसकी विचारधारा के प्रसार से हो ही, जरुरी नहीं है. तन्त्रा की टीशर्ट पर गणेश के बड़े-बड़े छापे और ओsम की स्टीगर चिपकाए कनॉट प्लेस में दर्जनों विदेशी मिल जाएंगे जिन्हें बिल्कुल अर्थ पता नहीं है. चाइनिज भाषा में गोदना करवाए टिपिकल जाट घूमते मिल जाएंगे..लेकिन क्या इन सांस्कृतिक उत्पादों का उनकी विचारना से कोई संबंध हैं ? ऐसे में इस हद तक तो प्रसन्नचित्त हुआ जा सकता है कि देखो हमारे धर्म, संस्कार की चीजें सांकेतिक उत्पाद बनकर बाजार में तैर रहे हैं लेकिन इससे संस्कार का भी प्रसार होगा, इस तरह की कामना से मुक्त होकर ही हम पॉपुलर कल्चर को समझ सकते हैं. अब जो लोग देशभर में खोंमचे टाइप से मंदिर के खोलने में ही धर्म का विस्तार देखते हैं, उनकी तो बात ही अलग है.( हम यहां धर्म को लेकर निजी राय और इसे व्यक्तिगत आस्था बनाम धंधा होने की बहस से अलग रख रहे हैं)