मुकेश कुमार,वरिष्ठ पत्रकार
ये अच्छी बात है कि पत्रकारों ने अपने जातीय गर्व को सरे आम प्रकट करना शुरू कर दिया है और उसे उन्हीं की बिरादरी से चैलेंज भी किया जा रहा है। इससे मीडिया में जातिवाद की परतें खुलेंगी। लोगों को पता चलेगा कि पत्रकारों में जातीय अहंकार किस-किस रूप में मौजूद है और वह कंटेंट के निर्माण में किस तरह से काम करता होगा।
हम सब जानते हैं कि मीडिया भी इसी जातिवादी समाज का हिस्सा है, इसलिए उसी रूप में जातिवाद भी वहाँ मौजूद है, मगर उसे मानने से हम इंकार भी करते रहे हैं। मीडिया को ऐसी पवित्र गाय की तरह पेश करते रहे हैं कि मानो वह जाति, धर्म और दूसरे विभाजनों से ऊपर है और अगर समतावाद कहीं है तो मीडिया में ही।
कुछ समय पहले राजदीप सरदेसाई ने अपने गौड़ सारस्वत ब्राम्हण होने का सार्वजनिक इज़हार किया था। उससे भी पहले स्वर्गीय प्रभाष जोशी ने ब्राम्हण नस्ल का महिमामंडन करके जताया था कि संपादकों के स्तर पर भी ये किस हद तक मौजूद है।
तो आइए महानुभावों अब देर न कीजिए।, वे सब जिन्हें अपनी जातियों पर गर्व है और इस वजह से श्रेष्ठताबोध से भरे हुए हैं, घोषित करें कि वे क्या हैं-ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र या कुछ और? ये छिपाने का नहीं बताने का समय है, क्योंकि बहुत सारे लाभ इसी आधार पर बँटते आए हैं और अब तो खूब बँट रहे हैं। जाति बताइए, प्रसाद पाइए (छोटी जातियों के लिए दंड तो मनु बाबा ही तय कर गए हैं)।
लेकिन ज़ाहिर है कि एकाध फ़ीसदी लोग ऐसे भी होंगे जो इनसे सचमुच में मुक्त हैं या मुक्त होने की ईमानदार कोशिशों में लगे हुए हैं। वे बचे हुए लोग डंके की चोट पर कहें कि मैं पत्रकार हूँ, केवल पत्रकार।
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