हिंदी समाचार चैनल ‘आजतक’ को ‘आजतक’ नाम देने वाले कमर वहीद नकवी आजकल इंडिया टीवी में कार्यरत हैं. बतौर एडिटोरियल डायरेक्टर वे इंडिया टीवी को गंभीर चैनल बनाने की कवायद में लगे हुए हैं. 2014 के चुनाव और उसमें मीडिया की भूमिका पर ‘निशांत राय’ ने उनसे खास बातचीत की. यह बातचीत उन्होंने मूलतः ‘नई लहर’ के लिए की. पेश है बातचीत के प्रमुख अंश :
कमर वहीद नकवी, एडिटोरियल डायरेक्टर, इंडिया टीवी
आजतक से लेकर इंडिया टीवी तक, टेलीविजन पत्रकारिता का आपके पास लंबा अनुभव है. इतने वर्षों में राजनीतिक पत्रकारिता की दृष्टि से कई बदलाव हुए? लेकिन हाल के दिनों में एक नया ट्रेंड शुरू हुआ जिसके तहत कई टेलीविजन पत्रकार पत्रकारिता को झटक कर बड़ी सुगमता से राजनीति में चले गए. क्या यह ठीक है?
मुझे लगता है कि इसमें कोई बड़ी बात नहीं है.पत्रकारिता से राजनीति में जाने का सिलसिला बहुत पुराना है.बहुत बड़े-बड़े पत्रकार वर्षो पहले राजनीति में आ गए जिनमें अटल बिहारी वाजपेयी, मोती लाल वोहरा जैसे पत्रकार थे. वो समय प्रिंट का था इसलिए प्रिंट के पत्रकार थे.अब टीवी है तो अब टीवी के पत्रकार जा रहे हैं.आशुतोष टीवी पत्रकार थे, आशीष केतान वेब पत्रकार है, एम जे अकबर भी टीवी पत्रकार नहीं थे. टीवी का मतलब यह नहीं है कि टीवी के पत्रकारों का राजनीति में जाना सरल हो. जिन पत्रकारों की राजनीतिक आकांक्षा है, वे अपना रास्ता तलाशते हैं और रास्ता उनके लिए बन भी जाता है. लेकिन ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि टीवी पत्रकार राजनीति में सरलता से जा सकते हैं.
आपके अनुसार एग्जिट पोल होना चाहिए? क्या आप इसके पक्ष में है? जबकि एक चैनल के स्टिंग के जरिए ये प्रमाणित हो गया कि एग्जिट पोल या ओपनियन पोल में गड़बड़ी आसानी से किया जा सकता है.
पहले आप दोनों सवालों को मिलाये नहीं. क्योंकि दोनों अलग-अलग सवाल है. एग्जिट पोल तब होते है जब चुनावी प्रक्रिया खत्म हो जाती है. उसके बाद एग्जिट पोल के नतीजे सामने आते हैं. इससे चुनावो पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता. हाँ ओपनियन पोल वोटर को कुछ हद तक जरूर प्रभावित करते हैं. लेकिन यहाँ गौरतलब है पहले ओपनियन पोल फेज वाइज होते थे. आज के फेज में अगर वोटिंग हुई तो आप शाम को ओपनियन पोल ले सकते थे, मगर अब ऐसा नहीं है. अब तो 5 फेज के बाद ही ओपनियन पोल आता है तो इससे कोई नुकसान नहीं. नुकसान वहां होता है जहाँ कोई रेगुलेटर,मॉडरेटर,पेरामीटर नहीं होता. सबसे बड़ी बात है कि सैम्पल इकठ्ठा करने के बाद कैसे उसका विश्लेषण किया जाता है?
“मुंह की बात सुने हर कोई , दिल के दर्द को जाने कौन ,
आवाजों के बाजारों में , ख़ामोशी पहचाने कौन ?
यही २०१४ के चुनाव में टीवी पत्रकारिता में नजर आ रहा है , जो चिल्लाता है नेता बन जा रहा है , जिसमे मोदी , केजरीवाल , राहुल सभी आते है , आप इस बारे में क्या कहेंगे ??
जो जितना नाटकीय बोल रहा है,उतनी ज्यादा जगह पा रहा है. यह अब युद्ध का मैदान बन गया है. आप युद्ध में उतरे है तो आपको युद्ध में तो हथियार चलाना पड़ेगा. इस समय यदि कोई नेता हथियार के बिना उतरेगा तो वह नुकसान तो उठायेगा.मीडिया किसी को प्रायोजित नहीं कर सकता. अन्ना हजारे आंदोलन के दौरान भी यही आरोप लगा था. जब तक प्रासंगिक था मीडिया उन्हें कवर कर रहा था. जैसे- जैसे उनकी प्रासंगिकता कम होती गयी, उनकी कवरेज घटती चली गयी. इसी तरह जो लोग राजनीति में जितने प्रासंगिक है उसी हिसाब से कवरेज मिलती है. जो जनता के सेंटिमेंट है वही मीडिया के सेंटिमेंट है.
2014 के चुनाव का अहम मुद्दा विकास है. लेकिन आज टेलीविज़न पत्रकारिता में विकास पत्रकारिता को कोई महत्व नहीं दिया जाता ऐसा क्यूँ ?
मूल रूप से जो मीडिया है, वह शहरी मीडिया है और इसका अपना एक बाज़ार है. वह उस बाज़ार के हिसाब से सारी चीजे करता है. जैसे शहरों में विकास कार्य क्या- क्या हो रहा है ? फ्लाईओवर बनेगा या नहीं , कितने पॉवर प्लांट बनेंगे या कितना उत्पादन करेगा?
क्या पत्रकारों के लिए कोई योग्य शिक्षा का पैमाना होना चाहिए? आप इस विषय में क्या कहेंगे?
में बिलकुल पक्ष में हूँ. उसमे क्या- क्या विषय हो वह भी सम्मिलित हो. क्या-क्या उन्हें विषय पढ़ने चाहिए. मैंने उसके बारे में भी कई बार सुझाव दिए है. बहुत से विषय जो पत्रकारों को नहीं पढ़ाये जाते जैसे धर्म. धर्म पत्रकारों को नहीं पढ़ाया जाता है. मैंने हर बार कहा है कि धर्म पत्रकारों को जरुर पढ़ाया जाना चाहिए. आज तक यह बात किसी ने नहीं मानी. तमाम धर्मो की जानकारी पत्रकारों को होनी चाहिए. क्योंकि धर्म से सम्बधित बातो की रिपोर्टिंग करते समय बहुत सावधानी बरतने की जरुरत होती है. इसलिए पत्रकारों की योग्यता के स्तर को मापने के लिए एक संयुक्त परीक्षा होनी चाहिए.
Bahut Khoob. !!