देश में स्वतंत्र मीडिया से ज्यादा जरूरी सशक्त, उत्तरदायी व संवैधानिक महत्ता प्राप्त मीडिया की
मनोहर मनोज,संपादक,इकोनोमी इंडिया
आधुनिक लोकतांत्रिक पूंजीवाद में प्रयुक्त होने वाले शब्द प्रेस की स्वतंत्रता जैसे शाब्दिक नारे से हमलोग इस कदर अभिभूत है कि इसके इतर हम समूची मीडिया व्यवस्था की एक व्यापक तहकीकात करने को तैयार नहीं होते। हमारे यहां प्रेस बल्कि जिसे अब मीडिया कहना ज्यादा समीचीन है, की स्वतंत्रता का निहितार्थ और उसके संपूर्ण औचित्य का एक वैज्ञानिक मंथन होना बेहद जरूरी हो गया है। वह मीडिया जो कथित स्वतंत्रता की आड़ में न तो अपना भला कर रही है और न ही समाज के व्यापक सरोकारों और लोकतांत्रिक राष्ट्र के प्रति अपने महान दायित्वों को निभा पा रही है।
और यह सारा कुछ देश के पूंजीवादी मीडिया प्रतिष्ठानों और मठाधीश मीडिया महानुभावों के बनी बनायी सोच की लीक पर चलने को बाध्य हो रही है। कहना न होगा कि आधुनिक दौर में किसी भी कार्य या पहल को खालिस स्वतंत्रता के नाम पर नियमन और संवैधानिक उल्लेखों के दायरे से बिल्कुल बाहर रखा जाए तो वह स्थिति किसी संस्था के लिये न तो अपने सार्वजनिक उद्देश्यों को प्राप्त करवाने में मददगार होती है और न हीं वह उनके अपने निजी हितों को सुलझा पाने में सहायक सिद्ध होती है।
कहना न होगा संविधान में महज अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों के तहत चलायमान हमारी समूची मीडिया व्यवस्था अपने आप में कई विरूपताओं, अंतरविरोधों और घोर समस्याओं के जाल में उलझी हुई है जिसका एक गरिमामय और औचित्यपरक समाधान निकाला जाना जरूरी है। हम आपको बता दें कि मीडिया के इस मामले का सबसे पहला समाधान संविधान में मीडिया के लोकतंत्र के चौठे खंभे के बतौर उल्लेख किये जाने में छिपा है जिस तरह से लोकतंत्र के तीन अंगों विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका के हर पहलुओं की संविधान में अलग धाराओं, उपधाराओं, बंधों और उपबंधों के जरिये व्याख्यायित की गई हैं उसी तरह से लोकतंत्र के इस अनौपचारिक चौठे खंभे मीडिया के सभी जरूरी पहलुओं को संविधान में उल्लिखित कर औपचारिक रूप क्यों नहीं प्रदान किया जा सकता?
मीडिया को संविधान में दर्जा मिले वह स्थिति मीडिया की कथित बेमानी स्वतंत्रता से भी बड़ी चीज है जो मीडिया को सशक्त, जिम्मेवार, जनसंवदेनशील बनाने के साथ विधायिका कार्यपालिका न्यायपालिका पर वैध रूप से नकेल कसने के साथ लोकतंत्र के शक्ति पृथक्कीकरण के सिद्धांत को सुपुष्ट करने का प्रयास करेगी। अभी मीडिया की स्वतंत्रता की मौजूदा इसे अपने संपादकीय सामग्रियों को मनमाफिक तरीके से परोसने की स्वतंत्रता दे देती है पर मीडिया प्रतिष्ठान को चलायमान रखने के रास्ते आने वाली तमाम अड़चनों, समस्याओं और अवरोधों को हटाने के लिये सरकारों या व्यवस्था द्वारा किसी ठोस या स्थायी पहल करने से भी रोकती है जिसे न तो मीडिया का भला होता है और न ही इससे देश समाज का भला।
आज देश में कुछ बड़े पूंजीवादी मीडिया के साये में चलने वाली मीडिया अपना सारा एजेंडा मीडिया की स्वतंत्रता के इतर तय हीं नहीं कर पाता। मुश्किल ये है कि आज के इस व्यावसायिक युग में जहां मिशन भी व्यवसाय के लीक पर अपने अर्थशास्त्र को नहीं छोडने के लिये बाध्य है, वे मीडिया को खालिस उद्योग माने या मिशन माने उसको लेकर इसे कई भ्रमजालों में डाला हुआ है। दरअसल उन मीडियों मालिकानों के लिये मीडिया का कारोबार तुलनात्मक रूप से घाटाजनक होने तथा प्रत्यक्ष रूप से इसके प्रतिकुल अर्थशास्त्र होने के बावजूद भी इनके व्यवसायिक हितों के लिये अनुकूल क्यों बना हुआ है? यह एक विचारणीय प्रश्र है। वैसे यह बात अब सबको मालूम है कि मीडिया की आड़ में मीडिया मालिकानों की और दूसरे व्यावसायिक उद्येश्यों की पूर्ति संभव हो जाती है। पर सवाल ये है कि इस लूंज पूंज व्यवस्था से हम मीडिया व्यवस्था को आखिर कितने दिनों तक ढ़ो सकते हैं।
देखिए आज मीडिया पर जो यह आरोप लगता है कि वह वैसे खबरों को तवज्जो देता है जो ख्वामखाह सनसनी फैलाए। वह ऐसे कवरेज को तरजीह देता है जिससे व्यापक सरोकारों के बजाए लोगों की उदात्त भावनाओं का शोषण करे। वह ऐसे मनगढंत व प्लंाटेड खबरों को तरजीह देता है जो मीडिया बाजार में चर्चित करे। हमे यह जान लेना चाहिए कि ऐसा करने की चार वजहें हैं। पहला कि इन तरह की खबरों और कवरेज से पाठकों व दर्शकों का ध्यान ज्यादा आसानी से खींचा जा सकता है। उनकी प्रसार संख्या और टीआरपी बढ़ायी जा सकती है जिसका असर उनके मिलने वाले विज्ञापनों की मात्रा पर पड़ेगी और साथ ही इससे उन विज्ञापनों की मिलने वाली कीमत दरें भी बढ़ जाएंगी। तीसरा कि इस तरह की खबरों के जरिये मीडिया प्रतिष्ठानों में नये पाठक दर्शक वर्ग में अपनी पैठ बढ़ाने तथा विज्ञापन बाजार में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने की प्रतियोगिता की वजह से भी होड़ लगती है।
इसकी चौठी व अंतिम वजह ये है कि हमारे देश में कोई मुकम्मल मीडिया नीति नहीं है। हमारे पास कोई मीडिया आयोग नहीं है और ऐसा इसलिये है कि संविधान में कही भी ऐसा उल्लिखित नहीं है कि देश में लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था की जरूरतों को देखते हुए मीडिया नामक संस्था हमारी संवैधानिक व्यवस्था में विधायिका कार्यपालिका न्यायपालिका की तरह इसकी एक अपरिहार्य जरूरत बनेगी। अगर संविधान में मीडिया संस्था को एक अस्तित्व प्राप्त होता तो स्वयंमेव हमारी एक मीडिया नीति होती, देश में न्यायिक आयोग की भांति एक मीडिया आयोग होता जो देश समाज और आम आदमी के व्यापक सरोकारों को ध्यान में रखकर सभी तरह के सूचनाओं, जानकारियों, रिपोर्टो अन्वेषणों, विचारों और जननीतियों के निरूपण कार्य को एक निर्धारित उच्च मानकों, सिद्धांतों और आदर्शों के तहत कार्य सुनिश्चित करवाती जिसमे निष्क्षता, तथ्यात्मकता, वस्तुनिष्ठता तथा औचित्य की कसौटी पर कस कर मीडिया को सभी लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया जाता जिसमे देश-विदेश की सभी घटनाओं और स्थितियों का हू ब हू पदार्फाश होता।
जब हमारा संविधान देश में मौजूद सभी तरह की मीडिया को हर तरह के भ्रष्टाचार, अनाचार, कदाचार, दूराचार, बलात्कार, अत्याचार, बीमार और अन्य सभी तरह की व्यवस्था जनित विकारों के खिलाफ बिल्कुल बेबाकी से देश-समाज-जनता के समक्ष अपने को प्रस्तुत करने का वैधानिक व सैद्धांतिक अधिकार देगा तो तब मीडिया न तो किसी धमकी या हमले से डरेगा, न किसी प्रसार संख्या या टीआरपी के दबाव में आएगा और न हीं किसी विज्ञापन के मिलने या न मिलने का मोहताज होगा। तब लोगों को यह शिकायत नहीं होगी कि मीडिया ने सनसनी फैलायी, या मीडिया ने खबर निकाला और फिर पैसे से ब्लैकमेलिंग किया और उसे दबा दिया या मीडिया ने किसी घटना के कवरेज पर अपनी हिम्मत नहंी दिखायी। मीडिया ने जरूरी खबरों को प्राथमिकता नहीं दी। या मीडिया ने निष्पक्षता से घटनाओं का विशलेषण नहीं किया।
दरअसल हमारे यहां मीडिया में किस तरह की खबरों का चयन हो किस तरह की खबरों को प्राथमिकता दे, समाज के किन किन बिंदुओं को कवरेज के दायरे में लाया जाए, कवरेज की निष्पक्षता, तथ्यात्मकता की कसौटी क्या हो, देश में विधायिका सहित तीनों लोकतांत्रिक अंगों की कारगुजारियों व हर तरह की कुव्यवस्था तथा कुप्रशासन का अनिवार्य रूप से पदार्फाश हो, इसे लेकर हमने आज तक कोई मीडिया नीति का निरूपण हीं नहीं किया। देश में एक बार 1970 के दशक में मीडिया आयोग का गठन हुआ जो सिर्फ सूचनाओं के कवरेज के नीति शास्त्र तक ही सिमट कर रह गया । इस दौरान प्रेस काउंसिल आफ इंडिया का गठन हुआ। पर हमाने पास मीडिया के अनेनकानेक पहलू है जिसे विचारमंथन, कानूनी निर्माण, संस्थागत संरचना तथा संवैधानिक दायरे में लाने की दरकार है।
मीडिया की सर्वउपलब्धता, सर्वसंज्ञानता, संपूर्णता, सूचनाओं की प्राथमिकता, सूचना संग्रह की आधारभूत संरचना की निर्मिति क्या हो इसके अलावा मीडिया की विज्ञापन नीति क्या हो इस पर व्यापक विमर्श की दरकार है। यदि मीडिया में लगी टीआरपी व प्रसार संख्या हड़पने की होड़ मीडिया के कंटेन्ट में गंदगी लाने के लिये जिम्मेदार है ऐसे में हमारी मौजूदा विज्ञापन नीति भी बहुत हद तक मीडिया में जनसरोकारों व देशहित की कवरेज को तिलांजलि देने के लिये बहुत हद तक जिममेवार है।
हमे यह बात भलीं भांति मालूम होनी चाहिए कि हर मीडिया चाहे व प्रिंट मीडिया हो इलेक्ट्रानिक मीडिया या फिर वेब मीडिया, उसके संचालन की तमाम लागते होती है, कुछ छोटी मोटी सरकारी सुविधाओं व प्रोत्साहनों के अलावा इसके संचालन की बहुत बड़ी लागत इनके प्रोडक् शन, सर्कुलेशन, हास्टिंग या ब्रोडकास्टिंग पर खर्च के रूप में बैठती हैं। इस खर्च का रिटर्न प्रिंट मीडिया को उसके प्रसार मूल्य के रूप में, इलेक्ट्रानिक मीडिया को उसके पे चैनल के रूप मे और वेब मीडिया को सब्सक्राइब फी के रूप में प्राप्त होता है जो उनकी लागत का एक छोटा अंश मात्र होता है।
इन मीडिया को जो वैध रूप में मोटी आमदनी प्राप्त होती है वह है पेड विज्ञापन। किसी भी अर्थव्यवस्था में विज्ञापन दाताओं का मकसद होता है अपने उत्पादों या ब्रांडों का ज्यादा से ज्यादा प्रचार जिससे उनके उत्पादों की बिक्री बढ़े और उनका बिजनेस बढे। ऐसे में विज्ञापनदाता मीडिया की प्रसार या टीआरपी को केवल तरजीह देते देखे जाते है पर इससे मीडिया में कंटेन्ट की बीमारी को बढावा मिलता है वह कंटेन्ट जो सनसनी बढ़ाने वाला हो, उकसावा फैलाने वाला हो और लोगों की सेक्स, हिंसा की प्रवृतियों का शोषण करने वाला है। ऐसे में हमे यह तय करना होगा कि हमारी विज्ञापन नीति क्या हो। यह तय हमारी मीडिया नीति करेगी कि विज्ञापनों को प्रदान करने का पैमाना खालिस प्रसार या टीआरपी या लॉग इन नंबर होंगे कि बल्कि इसके साथ इन मीडिया में परोसे जाने वाले साफ सुथरे कंटेन्ट भी होंंगे जो समाज में बेहतर जनमत का निर्माण करे, देश में लोकतंात्रिक मूल्य मान्यताओं को प्रोत्साहित करें, देश में नवनिर्माण में अपने बेहतर भागीदारी प्रदान करे तथा देश की राजनीति प्रशासन अर्थव्यवथा में मौजूद सभी तरक की विरूपताओं और विसंगतियों का पर्दाफाश करे।
हमें यह बात अच्छी तरह मालूम है कि वर्ष २०१२ में जो खबर सबसे ज्यादा सर्च की गई तो वह पार्न स्टार सनी लियोन थी। मतलब साफ है कि मीडिया से संबंधित नीतिगत संरचना को संवैधानिक जामा पहना कर हीं मीडिया की गरिमामयी रूप को हम प्राप्त कर सकते हैं। और यही स्थितिे देश की दीर्घकालिन बेहतरी में भी अपना योगदान कर सक ती है। अभी हम विज्ञापन मसले पर बात करें तो इस मामले का सबसे अफसोसनाक पहलू जो देखने को मिल रहा है वह है सरकारों द्वारा दिये जाने वाले विज्ञापनों में नीतिगत स्पष्टता की कमी और विज्ञापनों के जरिये मीडिया को अपने पक्ष में करने की नियती। पहली बात कि सरकारी विज्ञापनों की नीति इस तरह की बननी चाहिए जो एक तरफ मीडिया में साफ सुथरे तथा समाज व देश के व्यापक हित में परोसे जाने वाले मीडिया कंटेन्ट को प्रोत्साहित करें और मिशनरी तरीके से तथा मीडियाकर्मियों द्वारा निकाले जाने वाली लघु मंझोले प्रिन्ट इलेक्ट्रानिक वेब माध्यमों को संरक्षण प्रदान करे। पर इससे उलट सरकारी विज्ञापन भी चाहे केन्द्र सरकार व राज्य सरकारों के प्रचार व जनसंपर्क विभागों द्वारा दिये जाए या इन सरकारों के सार्वजनिक उपक्रमों द्वारा किये जाएं वे मीडिया में अपने पक्ष में परोसे जाने खबरों व अन्य प्रचार सामग्रियों के आधार पर उन्हें विज्ञापनों कीे संस्तुति देते हैं। ऐसे में जिस मीडिया में खबरों की सत्यता व वस्तुनिष्ठता के आधार पर जो समाचारों की प्रस्तुति होती है उन्हें ये विभाग विज्ञापन देने से मना कर देते हैं।
अभी हाल में प्रेस काउंसिल आफ इंडिया के चेयरमैन मार्कन्डेय काटजू ने सरकारों के इस रवैये पर अपनी कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। उन्होंने भी माना कि मीडिया को उनके खबरों की निष्पक्षता तथा उनकी पात्रता के आधार पर उनके विज्ञापन राजस्व पाने का अधिकार है जिसका सरकारों को अपने पक्ष में करने में इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। ये सारी चीजें देश में मीडिया के स्वस्थ संपादकीय और सबल आर्थिक आधार पाने के मार्ग की रुकावटे हैं। होना तो ये चाहिए कि सरकारें अपनी झूठी तारीफ या झूठी आलोचना के बजाए मीडिया की निष्पक्षता, गुणवत्ता व उनकी वैज्ञानिक तरीके से की गई खोजी पत्रकारिता को हीं विज्ञापन का मानदंड तय करना चाहिए।
कुल मिलाकर हमे देखना होगा कि हमारा मौजूदा मीडिया ढरऱ्ा हमारी मीडिया व्यवस्था को कौन सा रूप देना चाहता है क्या यह हमारी पूंजीवादी मीडिया की बरसों से बने ढांचे को ही और पुख्ता करना चाहता है या देश में मिशनरी और समाज निर्माण की भावना से निकलने व चलने वालेवाले असंख्य छोटे मंझोले मीडिया को संपोषित करना चाहता है। क्या यह मौजूदा ढरऱ्ा कुछ चंद मीडिया हाउस के इशारे पर चल कर मीडिया की स्वतंत्रता के नाम पर मीडिया को अपने आंतरिक सरोकारों तथा देश के व्यापक सरोकारों से भी विरक्त करना चाहता है। अगर देश में लोकतंत्र को वास्तविक मजबूती दिलानी है, व्यापक सामाजिक संवेदनशीलता की लौ को जगाये रखनी है, देश के विशाल राष्ट्रीय दायित्वों क ा निर्वाह साथ लेकर चलना है तो उसे मीडिया के तमाम सवालों के जबाब ढूंढने होंगे।
आज की तारीख में हमारे मीडिया की कोई स्पष्ट पहचान नहीं है। न तो वह संविधान का वैधानिक रूप से लोकतंत्र का चौठा खंभा बन पाया है, न हीं यह अब पहले की तरह विशुद्ध मिशन रह गया है, न ही मीडिया एक विशुद्ध उद्योग के रूप में ही विकसित हो पाया है। और न हीं मौजूदा व्यवस्था में यह एक सशक्त वाच डॉग की भूमिका में है और न ही ये देश समाज के व्यापक हित में एक जिम्मेदार अंग बन पाया है। दरअसल मीडिया की मौजूदा वास्तविक स्थिति उपरोक्त सारी स्थितियों के घुला मिले रूप में दिखायी पड़ रही है। ऐसे में जो लोग मीडिया की सारी व्याख्या मीडिया की खालिस स्वतंत्रता के हिसाब से करते है उनकी मीडिया के प्रति बनी हुई दृष्टि एक सकरी दृष्टि है जिससे न तो मीडिया के सामाजिक राष्ट्रीय दायित्व के निर्वाह में मदद मिलती है और न हीं यह मीडिया को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने में योगदान करती है। यह सिर्फ मीडिया को उस परंपरागत शगल में उलझाए रखने का प्रयास करती है जिसकी वजह से मीडिया के कई सारे सवाल अनुत्तरित रह जाते हैं। मीडिया केे सभी तरह के वैधानिक बंघनों से मुक्त रखने की पैरोकारी करने वालों को इस बात का भान होना चाहिए कि आज का दौर संविधान और संविधानवाद का है।
आज का दौर वैधानिकता और कानून की संरचना को प्राप्त करने संस्थाओं के सशक्तीकरण प्राप्त करने का दौर है। आज का दौर हर पहल को संस्थाओं में परिवर्तित कर उसे सरकारों के नजर में लाकर उसे सक्षम और जिम्मेवार बनने का दौर है। आज का दौर किसी भी वर्ग या समूहों के तमाम हितों चाहे वह मिशनरी हित हों या व्यावसायिक उसे साधने और हासिल करने का दौर है। नियमन के अभाव में स्वतंत्रता स्वायत्ता का अहसास नहीं करा सकती। ये जो पूंजीवादी मालिकों के साये में जीने वाले मीडिया जिस स्वतंत्रता की बात करती है वह मीडिया में मिशनरी व पेशेवर नजरिये से जुड़े मीडियाकर्मियों के हितों की रक्षा नहीं कर सकती, देश के असंख्य छोटे मंध्यम और लघु मीडिया संस्थाओं व प्रकाशकों के आर्थिक हितों की रक्षा नहीं कर सकती, देश में खबरों की प्राथमिकता और उसकी नैतिकता को वैधानिक मजबूती प्रदान नहीं कर सकती बस यह मीडिया मालिकान के अन्य व्यवसायिक हितों के लिये यह सिर्फ दबाव बनाने का महज एक औजार बन सकती है।
आजकल मीडिया में पेड न्यूज की चर्चा हो रही है। मीडिया में यह नवसृजित परिपार्टी लोगों को नागवार इसलिये लग रही है कि पहले यह चीजें कभी घटित नहीं हुई। मीडिया में अब तक समाचारों के चयन के पीछे सामाजिक सरोकारों और लोकतंात्रिक प्रतिबद्धताओं का सिद्धांत चलायमान था उसे अब व्यवसायिक पर लग गए हैं और यही वजह है कि मीडिया चुनावों के समय महंगे चुनावी बजट का कुछ हिस्सा वैध रूप से पेड न्यूज के रूप में डिमांड कर रहा है। ये सभी चीजें इसलिये घटित हो रही हैं कि मीडिया के तमाम पहलुओं को नियमन और व्यवस्थागत मंथन के दायरे से बाहर रखा गया। हम मीडिया की चर्चा करते समय यह भूल जाते हैं कि मीडिया संचालन की लागतें और इसके आमदनी के बीच के संतुलन का माजरा क्या होता है? सवाल केवल दृष्टि का है। आज आप बात सरकारों की करें, राजनीतिक दलों की करें, कारपोरेट समूहों की करें, गैर सरकारी संगठनों की करें ये सभी अपनी बातों सूचनाओं और संचार जरूरतों के लिये अपने कुल बजट खर्च का कुछ हिस्सा प्रचार बजट, जनसंपर्क व विज्ञापन गतिविधियों के लिये निर्धारित करते हैं।
मसलन सरकारी विभागों में जनसंपर्क पदाधिकारी रखे जाते हैं, कारपोरेट कंपनियों में कारपोरेट संचार विभाग होते हैं, राजनीतिक दलों का मीडिया सचिव होता हैं इनके जरिये प्रचार प्रसार के लिये खर्च होते हैं इनके कर्मचारियों के वेतन पर भारी भरकम खर्च किया जाता है पर इसका अंतिम मकसद क्या होता है कि विभिन्न मीडिया में अपनी स्पेस व टाइम स्लाट प्राप्त करना या वेब मीडिया में अपलोडेड होना है। पर जब मीडिया में इसकी लागत पेड विज्ञापन की तर्ज पर पेड न्यूज के तौर पर मांगी जाती है जो उन संस्थाओं व प्रतिष्ठानों के प्रचार बजट से ही आनी है उसको लेकर हाय तौबा मचना मीडिया के अर्थशास्त्र की दृष्टि से तार्किक नहीं लगती है। हां यह अटपटा इसलिये लगता है कि पहले चुनाव के समय उम्मीदवारों को इस रूप में मीडिया पर खरचना नहीं पड़ता था। वे पत्रकारों को खाना होटल मुहैय्या कराकर कवरेज करवाते थे या ब्लैक में पैसे देकर करते थे। पर अब यदि मीडिया इसे व्हाइट में पेड न्यूज के रूप मे प्रचार कतार्ओं से पैसा लेना चाहता है तो इसका एक नैतिक और गरिमामय निदान अवश्य निकलना चाहिए।
लोगों को यह भी पता होना चाहिए कि चुनावी आचार संहिता के तहत कोई भी सरकारी विभाग विभाग मीडिया को विज्ञापन नहीं दे सकता ऐसे में मीडिया को अपने लागतों को पूरा करने के लिये पेड न्यूज का सहारा लेना पड् रहा है। पर यह पेड न्यूज मीडिया ब्लैकमेलिंग से कहीं बेहतर है। जी टीवी ने जिंदल समूह से 1 करोड़की विज्ञापन की मांग की और जिंदल समूह अपनी भ्रष्ट करतूतों पर पर्दा डालने के लिये 25 करोड की पेशकश की। मीडिया नीति का आदर्श यह कहता है कि किसी भी भ्रष्टाचार जनित समाचार वह अकेले जिंदल समूह का ही नहीं बल्कि सभी भ्रष्ट करतूतों का अनिवार्य कवरेज हो और उस कवरेज को विज्ञापन की सौदेबाजी में न तो दबाया जाए और ना हीं इसे उभारा जाए। आज वक्त आ गया कि मीडिया के तमाम सवालों की पूरी वैज्ञानिक तहकीकात हो जिसमें हम मीडिया तकनीक से लेकर मीडिया के कवरेज प्राथमिकताओं से लेकर मीडिया के राजस्व के साथ साथ मीडिया के नीतिगत प्रतिबद्धताओं और मीडियाकर्मियों के व्यापक हितों तथा लोकतांत्रिक जबाबदेहियों के साथ राष्टीय पुनर्निर्माण के एक बड़े हथियार के रूप में ज्यादा सशक्त, सक्षम, स्वायत्त व संवैधानिक रूप से जिम्मेवार मीडिया का आविर्भाव किया जाए। आजादी के बाद अलग अलग दौर में मीडिया के मुद्दे अलग अलग रहे है।
नवयौवन लोकतांत्रिक भारत के लिये जहां प्रेस की स्वतंत्रता सबसे बड़ी चिंता रही। एक दौर आया जब सरकार नियंत्रित इलेक्ट्रानिक माध्यम आकाशवाणी व दूरदर्शन की स्वायत्ता एक बहुत बड़ा मीडिया मुद्दा बनकर उभरा। एक ऐसा समय आया जब देश में अपलिंकिंग की इजाजत के जरिये निजी प्रसारण अधिकार की तेजी से मांग उठी। एक दौर में देश में सूचना के अधिकारों की मांग उठी। आज की तारीख में मीडिया की जो पूरी दशा दिशा है उसे आज के आगे के दौर के अनुसार देखे जाने की जरूरत है। आज देश में प्रिंट, इलेक्ट्रानिक, वेब तीनों मीडिया में नये प्लेयरों की धड़ल्ले से बढोत्तरी हो रही है। यह बढ़ोत्तरी वर्टिकल होने से ज्यादा होरिजन्टल ज्यादा हो रही है। यह मीडिया संविधान में फोर्थ इस्टेट होने के बजाए रियल इस्टेट ज्यादा हो गया है क्योंकि रोज सैकड़ों की संख्या में इन समूहों के द्वारा नये नये मीडिया सेटअप खोले जा रहे हैं। इनका मकसद या तो मीडिया के साये में अपने कारपोरेट हितों की रक्षा करनी है या मीडिया रेवेन्यू के बाजार में अपनी हिस्सेदारी प्राप्त करनी है।
हकीकत ये है कि मीडिया में होने वाली बढोत्तरी विज्ञापन राजस्व मेें होने वाली बढोत्तरी से कई गुनी ज्यादा है। दूसरा प्रसार मार्केट बढने के बजाए घट रहा है अलबत्ता ब्रोडकास्टिंग हास्टिंग का मार्केट जरूर बढ रहा है पर यह बढोत्तरी मीडिया के बढ़ते अर्थशास्त्र को वहन करने में सक्षम है, ऐसा कहना तथ्यों से परे होगा। केन्द्र सरकार की प्रचार संस्था डीएवीपी हर साल करीब एक हजार नये मीडिया का विज्ञापन पंजीयन करती है पर उस हिसाब से उसके विज्ञापन बजट में बढ़ोत्तरी नहीं होती यही हाल राज्य सरकारों के प्रचार विभागों का है।
बाकी मीडिया देश के कारपोरेट विज्ञापनों के भरोसे चलते हैं पर इन विज्ञापनों पर देश के संगठित बड़े मीडिया समूह का कब्जा है या यो कहें कि कारपोरेट विज्ञापनदाताओं के लिये यही मीडिया ज्यादा मुफीद है। इन सब बातों का नतीजा ये है कि जिस रफतार से देश में नये मीडिया खुल रहे है, उसी रफ्तार से मीडिया हाउस बंद भी हो रहे हैं और इनके कर्मी सड़को पर आ रहे हैं। अब प्रश्र ये है कि ऐसी कौन सी नीति बने जो निजी सार्वजनिक क्षेत्र की हिस्सेदारी व बेहतर नियमन के जरिये देश की मीडिया की उत्कृष्ट संपादकीय व विज्ञापकीय स्वास्थ्य मंस बढ़ोत्तरी करे। इसके लिये यह भी जरूरी है कि मीडिया की संख्या का एक समुचित निर्धारण हो, उनकी संपादकीय गुणवत्ता का एक आदर्श मापदंड तय किया जाए, उनके संचालन का एक बेहतर अर्थशास्त्र इजाद हो जिससे ब्लैकमेलिंग जैसी प्रवृतियों का खात्मा हो और देश के तीनों अंगों में मौजूद तमाम खामियों का मीडिया द्वारा एक प्रभावी अंकुश लगाया जाए।
यह तभी संभव है जब हम देश में मीडिया की बेमानी स्वतंत्रता के बजाए इसके तमाम अनभिव्यक्त सवालों पर रुबरु हुआ जाए। पर इसके लिये संविधान में इसे चौठे खंभे का दर्जा मिलना जरूरी है। तब जाकर मौजूदा दौर में मीडिया को संचालित करने वाली सरकारी संस्थाएं आरएनआई, पीआईबी, डीएवीपी और पीसीआई की भूमिकाओं की सही समीक्षा हो सकेगी।